पूतना(pootna) – अज्ञान, वासना और आत्मबोध की प्रतीकात्मक कथा

Sooraj Krishna Shastri
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पूतना(pootna) – अज्ञान, वासना और आत्मबोध की प्रतीकात्मक कथा
पूतना(pootna) – अज्ञान, वासना और आत्मबोध की प्रतीकात्मक कथा


यह पूतना-विषयक विचारों पर आधारित एक अत्यंत सुव्यवस्थित, गूढ़ और विस्तारपूर्वक व्याख्यायित लेख है। यह ऐसी शैली में है कि आप इसे धार्मिक प्रवचन, सत्संग, शोधपत्र या किसी आध्यात्मिक पत्रिका में भी प्रस्तुत कर सकते हैं:


पूतना – अज्ञान, वासना और आत्मबोध की प्रतीकात्मक कथा

प्रस्तावना

श्रीमद्भागवत महापुराण की बाललीलाओं में पूतना-वध एक अत्यंत महत्वपूर्ण प्रसंग है। यह केवल एक असुरिणी के वध की कथा नहीं है, वरन् अज्ञान, वासना, और आत्मविस्मृति के विरुद्ध दिव्य ज्ञान की विजय का दार्शनिक रूपक है। 'पूतना' का बाह्य रूप जितना भयंकर और मोहक है, उसका आंतरिक तात्पर्य उतना ही गूढ़ और जाग्रत करने वाला है।


1. नामार्थ – ‘पूतना’ का दार्शनिक विश्लेषण

शब्दार्थ:

  • पूत’ का अर्थ होता है – पवित्र, शुद्ध।

  • ना’ का अर्थ है – नहीं

‘पूतना’ अर्थात् जो पवित्र नहीं है, जो अशुद्ध है, अपवित्र है।

तात्त्विक अर्थ:

  • शास्त्रों में ‘पवित्रता’ का पर्याय है – ज्ञान

  • और ‘अपवित्रता’ का पर्याय है – अज्ञान

इस प्रकार पूतना = अज्ञान = अविद्या
पूतना केवल एक राक्षसी नहीं, वह मनुष्य के भीतर व्याप्त अज्ञान, वासना और आत्मभ्रम का रूप है।


2. गीता में ज्ञान की महिमा

भगवद्गीता का स्पष्ट कथन है कि इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र कोई नहीं:

“न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति।।”
(गीता 4.38)

अर्थ: इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला कोई साधन नहीं है। जिसका योग सिद्ध हो गया है, वह स्वयं ही समय आने पर उस आत्मज्ञान को प्राप्त कर लेता है।

यही ज्ञान पूतना रूपी अज्ञान का शमन करता है।


3. पूतना – वासना और इन्द्रियचंचलता का प्रतीक

पूतना केवल अज्ञान नहीं, वह ‘वासना’ का सजीव रूप है। वासना क्या करती है?

  • मोहक रूप धारण करती है।

  • अमृत का छलावा दिखाकर विष पिलाती है।

  • जीव को उसके आत्मस्वरूप से दूर कर देती है।

पूतना का व्यवहार:

  • वह सुंदर स्त्री का रूप धारण कर आती है।

  • छाती पर विष लगाकर दूध पिलाती है।

यह मन में उठती इन्द्रियवासनाओं का ही प्रतीक है – जो दिखती हैं मधुर, परंतु भीतर से घातक होती हैं।


4. पूतना चतुर्दशी के दिन क्यों आई?

मानसिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखें तो चतुर्दशी का विशेष महत्व है।

  • मनुष्य के भीतर 14 तत्त्व होते हैं:

    • 5 ज्ञानेन्द्रियाँ

    • 5 कर्मेन्द्रियाँ

    • मन

    • बुद्धि

    • चित्त

    • अहंकार

इन 14 स्थानों पर ही अविद्या और वासना निवास करती है। अतः पूतना का आगमन चतुर्दशी पर हुआ – जब सम्पूर्ण चेतना वासनात्मक आक्रमण के अधीन हो।

रामायण में चौदह वर्ष का वनवास भी इसी का संकेत है।

  • कैकेयी ने श्रीराम को 14 वर्ष का वनवास दिया – यह संकेत है कि जब तक इन 14 तत्त्वों पर विजय प्राप्त नहीं होती, आत्मज्ञान नहीं मिल सकता।

  • रावण भी इन 14 तत्त्वों में छिपा है – उसका वध एक प्रतीक है।


5. इन्द्रियों की वृत्तियाँ और पूतना का आगमन

श्रीमद्भागवत में आता है:

जब पूतना गोकुल आई, तो गायें वन में चरने गई थीं और नन्दबाबा मथुरा।

प्रतीकात्मक व्याख्या:

  • गायें = इन्द्रियाँ

  • वनगमन = विषयों की ओर गमन

  • नन्दबाबा का मथुरा जाना = विवेक का क्षणिक वियोग

जब इन्द्रियाँ विषयों में लीन होती हैं और विवेक दूर हो जाता है, तब पूतना (अज्ञान, वासना) मन में प्रवेश कर लेती है।


6. पूतना तीन वर्ष तक बालक को मारती है – इसका रहस्य

मानव जीवन की चार अवस्थाएँ होती हैं:

  1. जाग्रत

  2. स्वप्न

  3. सुषुप्ति

  4. तुरीय (तुर्यगा)

पूतना तीन अवस्थाओं (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति) में मनुष्य को सताती है – ये अवस्थाएँ माया और अज्ञान से ग्रस्त होती हैं।

तुर्यगा अवस्था:

  • जहाँ जीव ब्रह्म से एक हो जाता है।

  • वहाँ पूतना का कोई अस्तित्व नहीं।

  • वहाँ अज्ञान, वासना, त्रिगुण – सब समाप्त हो जाते हैं।


7. त्रिगुणात्मक माया और पूतना

पूतना तीन वर्ष के बालक को मारती है – इसका तात्पर्य है कि वह त्रिगुणात्मक व्यक्तित्व (सत्व, रज, तम) को प्रभावित करती है।

  • जो जीव माया के जाल, गुणों के प्रभाव और वासना में उलझा है – वही पूतना का शिकार बनता है।

  • लेकिन जो गुणातीत हो गया है – उसे पूतना छू भी नहीं सकती।

श्रीमद्भगवत में स्पष्ट कहा गया है:

"मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते।
स गुणान् समतीत्यैतान् ब्रह्मभूयाय कल्पते।।" (गीता 14.26)


8. पूतना का वध – आत्मज्ञान की विजय

भगवान श्रीकृष्ण ने पूतना के विषाक्त स्तन को पकड़ा – और उसका प्राणहरण कर लिया। इसका अर्थ है:

  • जब आत्मा विवेक, ज्ञान और भक्ति से सज्ज हो जाती है,

  • तब वह वासना और अज्ञान का विनाश कर देती है।

  • पूतना चाहे जितनी शक्तिशाली हो, ईश्वरचैतन्य उसे परास्त कर देता है।


निष्कर्ष: पूतना हमारे भीतर है

पूतना कोई प्राचीन राक्षसी नहीं।
वह हमारे ही मन की वासना है,
हमारी इन्द्रियों की चंचलता है,
हमारे जीवन में व्याप्त अज्ञान है।

जब तक:

  • इन्द्रियाँ विषयों में भटकती हैं,

  • विवेक दूर होता है,

  • आत्मस्वरूप का स्मरण नहीं होता,

तब तक पूतना बार-बार आती रहेगी।

पर जब:

  • मन प्रभु में रमता है,

  • ज्ञान की दीप्ति प्रकट होती है,

  • और इन्द्रियाँ सेवा में लगती हैं,

तब पूतना नष्ट हो जाती है।


अंतिम संदेश

पूतना-वध केवल एक कथा नहीं, वह एक चेतावनी है –

"हे मानव! अपने भीतर की पूतना को पहचानो,
और श्रीकृष्ण चेतना से उसका नाश करो।
यही जीवन की सच्ची विजय है।"

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