🌺 आध्यात्मिक लेख: "मृत्यु के वेष में भगवान – आत्मा की परम पहचान" 🌺
भूमिका
मानव जीवन के प्रत्येक क्षण में कोई ऐसा तत्व उपस्थित होता है, जिसे हम सामान्य नेत्रों से देख नहीं पाते, किंतु जो सतत हमारे निकट रहता है – वह है परमात्मा। जब जीवन की गाड़ी अंतिम पड़ाव पर पहुँचती है, और मृत्यु अपना विकराल मुख प्रकट करती है, तब भी जो तत्व हमारी आत्मा को आलिंगन करता है – वह कोई और नहीं, स्वयं परमात्मा ही होता है।
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मृत्यु के वेष में भगवान – आत्मा की परम पहचान, सूरज कृष्ण शास्त्री |
प्रस्तुत पंक्तियाँ इसी रहस्य को भावपूर्ण रूप में उजागर करती हैं —
"भूला मैं पहचान न पाया मृत्यु वेष में तुमको नाथ।तुम्हीं रूप धर घोर मृत्यु का, आये करने मुझे सनाथ ॥कर आवरण भंग, तुमने ही माया का कर पर्दा छिन्न।देकर मुझे गाढ़ आलिंगन किया सदा के लिए अभिन्न।।"
—हनुमान प्रसाद पोद्दार
1. मृत्यु: एक वेष, न कोई शत्रु
मृत्यु को सामान्यतः भयावह, वियोगकारी, और अंधकारपूर्ण माना जाता है। परंतु भक्ति और अद्वैत के दृष्टिकोण से मृत्यु न तो शत्रु है और न ही कोई अंत है। यह तो परमात्मा का ही एक वेष है, जो हमारी आत्मा को संसार के चक्र से मुक्त कर, अपने आलोकिक आलिंगन में लेता है।
यह वही क्षण होता है जब भक्त कहता है:
"भूला मैं पहचान न पाया मृत्यु वेष में तुमको नाथ..."
क्योंकि परमात्मा जब मृत्युरूपी आवरण पहनकर आते हैं, तब उनकी पहचान लौकिक बुद्धि से संभव नहीं होती। लेकिन उस अंतिम मिलन में आत्मा जान जाती है कि वह whom we feared as the "end", was the eternal beginning.
2. “सनाथता” की अनुभूति
“सनाथ” का अर्थ है — जिसे स्वामी मिल गया हो, जो अब निःसंग नहीं रहा।
"तुम्हीं रूप धर घोर मृत्यु का, आये करने मुझे सनाथ..."
जब मृत्यु के उस क्षण में भक्त अनुभव करता है कि उसे छोड़ने नहीं, बल्कि साथ ले जाने स्वयं स्वामी आये हैं, तब उसका भय समाप्त हो जाता है। वह जान जाता है कि यह शरीर का अंत है, पर आत्मा का आलोकिक आरंभ।
3. माया का पर्दा छिन्न करना: जागृति का क्षण
"कर आवरण भंग, तुमने ही माया का कर पर्दा छिन्न।"
संसार में रहते हुए मनुष्य को माया, भ्रम, अहंकार और देहबुद्धि का पर्दा घेर लेता है। यह आवरण उसे उसके सच्चे स्वरूप से दूर कर देता है। लेकिन मृत्यु के क्षण में — विशेषतः यदि वह मृत्यु साक्षात्कार के साथ हो — तो यह माया टूटती है।
ईश्वर स्वयं इस आवरण को भंग करते हैं, और आत्मा को उसका सनातन सत्य दिखाते हैं।
4. परम आलिंगन: आत्मा का शाश्वत विलय
"देकर मुझे गाढ़ आलिंगन किया सदा के लिए अभिन्न।।"
यह पंक्ति अत्यंत कोमल, भावप्रवण और सूक्ष्मतम आध्यात्मिक सत्य को उजागर करती है। ईश्वर का आलिंगन कोई लौकिक क्रिया नहीं, वह तो आत्मा का ब्रह्म में विलीन होना है। यह अद्वैत का अनुभव है — जब “मैं” और “तुम” का भेद समाप्त हो जाता है।
अब भक्त और भगवान अलग नहीं रहते — वे “अभिन्न” हो जाते हैं।
5. भक्ति और आत्मज्ञान का समन्वय
इस संपूर्ण भावावेश में केवल प्रेम नहीं, बल्कि ज्ञान की दीप्ति भी छिपी है। यह मृत्यु का भय नहीं, बल्कि उसका आलोकिक उत्सव है। यही वह दृष्टि है जो गीता के उपदेश, उपनिषदों के ज्ञान और संतों के अनुभव में मिलती है।
जैसे श्रीमद्भागवत में भरत महाराज, अजामिल या शुकदेव जैसे अनेक पात्र मृत्यु के अंतिम क्षण में प्रभु-स्मरण द्वारा मुक्त होते हैं, वैसे ही यह अनुभूति भी कहती है —
"हे नाथ! मैं पहचान न सका, पर अब जान गया हूँ — मृत्यु नहीं, आप ही आये थे।"
6. यह लेख किसके लिए है?
- उनके लिए जो मृत्यु से भयभीत हैं।
- उनके लिए जो यह जानना चाहते हैं कि ईश्वर हमारे कितने समीप हैं।
- उनके लिए जो समझना चाहते हैं कि भक्ति केवल जीवन की नहीं, मरण की भी रक्षक है।
निष्कर्ष
मृत्यु कोई अंत नहीं, वह तो ईश्वर का आलिंगन है। जो इस रहस्य को जान जाता है, उसके लिए जीवन और मरण दोनों ही आनंद के द्वार बन जाते हैं। प्रस्तुत पंक्तियाँ इसी परम सत्य की ओर संकेत करती हैं — मृत्यु के वेष में आया हुआ वह प्रभु, जिसने माया का पर्दा हटा दिया और हमें सदा के लिए स्व में, ब्रह्म में, प्रभु में विलीन कर दिया।
॥ "मृत्यु भी ईश्वर का वेश है, और जीवन की अंतिम मुस्कान में छिपा है उसका आलिंगन..." ॥
🙏 हरि: ओम् 🙏