कुब्जा प्रसंग, भागवत रहस्य !

Sooraj Krishna Shastri
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कुब्जा प्रसंग, भागवत रहस्य !

सूर की वाग्विदग्धता और विनोदशीलता में कुब्जा-प्रसंग अत्यधिक सहायक हुआ है।

कुब्जा का अर्थ है--  कुबड़ी स्त्री, कृष्ण से प्रेम करनेवाली कंस की एक दासी, कहाँ कृष्ण का लोकोत्तर रुप और कहाँ कुबड़ी दासी, सूरदास ने इस प्रसंग को लेकर कथन पद्धतियों का आविष्कार किया है-- "दासी और शठ"  

कृष्ण को किसी भी प्रकार नीचा देखना पड़े , गोपियों के लिए यह हर्ष का विषय है, प्रेममयी गोपियों के साथ विश्वासघात करने के कुकर्म के परिणामस्वरुप कृष्ण को कुब्जा मिली।

कुब्जा प्रसंग, भागवत रहस्य !
कुब्जा प्रसंग, भागवत रहस्य !


अच्छा हुआ, जिस कृष्ण ने सबका हृदय चुरा लिया था , उसी चालाक कृष्ण का हृदय कुब्जा ने चुरा लिया,कितना मूर्ख बनाया कृष्ण को यह सुनकर गोपियो को कुछ सान्त्वना मिलती है, गोपियाँ कहती है -

     बरु कुब्जा भलो कियो।

     सुनि सुनि समाचार ऊधौ मो कछु सिरात हियो।

     जाको गुन,गति,नाम रुप,हरि हारयो,फिर न दियो। 

     तिन अपनो मन हरत न जान्यो,हँसि हँसि लोग लियो।

     सूर तनिक चन्दन चढ़ाय तन, व्रज बस्य कियो।

     सकल नागरि नारिन को , दासी दाँव लियो।।

गोपियाँ कुब्जा से वस्तुतः प्रसन्न नहीं थीं, परन्तु "शठ कृष्ण " का पतन देखकर वे प्रसन्न होती हैं, प्रतिपक्षियों में मुख्य प्रतिपक्षी को नीचा दिखाने के लिए यदि किसी अन्य प्रतिपक्षी की प्रशंसा भी करनी पड़े तो कोई हानि नहीं, यही मानकर गोपियाँ कुब्जा की प्रशंसा करती हैं, गोपियाँ तरह तरह की बात गढ़ लेने में कुशल हैं ,गोपियो का यह "झूठ" वचन वैचित्र्य को बढ़ा देता है, वे कहती है कि कृष्ण से हमारा परिचय नहीं है, अब वे 'गोपीनाथ' क्यों कहलाते हैं --- 

काहे को गोपीनाथ कहावत? 

जो पै मधुकर कहत हमारे गोकुल काहे न आवत? 

सपने की पहिचानि जानि कै हमहि कलंक लगावत। 

जो पै स्याम कूबरी रीझे सो किन नाम धरावत? 

ज्यों गतराज काज के औसर औरे दसन दिखावत। 

कहत सुनन को हम हैं ऊधो सूर अनत बिरमावत॥ 

गोपियाँ कहती हैं कि हे उद्धव,कृष्ण प्रेम तो कुब्जा से ।।

करते हैं और अपने को गोपीनाथ कहाते हैं।यदि वे हमारे कहलाते हैं तो गोकुल क्यों नहीं आते?हमारी और उनकी पहचान स्वप्न जैसी है।फिर भी गोपीनाथ नाम धारण करके हमें कलंकित -लज्जित करते हैं, यदि वे कूबरी पर ही सच्चे मन से अनुरक्त हैं तो खुलकर ‘कूबरीनाथ’ क्यों नहीं कहलवाते?यह चाल उस हाथी जैसी है जिसके 

खाने के दाँत और हैं और दिखाने के दाँत और हे उद्धव, कहने सुनने के लिए दिखाने के लिए तो हम उनकी 

प्रियतमा हैं, लेकिन वे रुकते कहीं और हैं, प्रेम किसीऔर से करते हैं। 

मथुरा मे कुब्जा के साथ काले कृष्ण के सम्बन्ध को देखकर सूरदास ने सर्प और भ्रमर जैसे विश्वासघाती काले जीवों की निष्ठुरता पर खूब व्यंग्य करके विनोद उपस्थित किया है ---  

"मधुकर ! यह कारे की जाति।

ज्यों जल मीन,कमल पै अलि,त्यों नहिं इनकी प्रीति।

कोकिल कुटिल कपट वायस छलि,फिर नहिं वह बन जाति।

तैसेहिं कान्ह केलिरस अँचयो, बैठि एक ही पाँति।।

सुत हित जोग जग्य व्रत कीजत,बहुविधि नीकी भाँति।

देखहुँ अहि मन मोह प्रेम तजि,ज्यों जननी जनि खाति।।" 

कोयल,सर्प,भ्रमर,सब कारे हैं,और इनके कर्म भी कारे हैं, मथुरा तो "काजर की कोठरी" है,जो वहाँ से आता है,काला ही निकलता है ,एक भी मथुरावासी भूलकर भी भला नहीं बनना चाहता, कुब्जा प्रसंग में भगवान मनुष्य को कई संदेश देते हैं— "कुब्जा भगवान की नित्यकाल की संगिनी है,उसे देखकर भगवान हंस पड़े, भगवान हंसे इसलिए कि कुब्जा ही अकेली "त्रिवक्रा या कुबड़ी" नहीं है, वरन् सम्पूर्ण नारी जीवन ही त्रिवक्रा है।

नारी जीवन तीन वक्रों— सौंदर्य, पतिसुख, घर और बच्चों की चाह में ही बीतता है, इसलिए वह रजोगुण और तमोगुण प्रधान है, इन तीन वासनाओं में सिमटकर नारी जीवन कुब्जा (विकलांग) हो गया है,जिस दिन नारी पति और गृह-सुख से ऊपर उठकर श्यामसुन्दर के भक्ति-रस में रंगेगी उसी दिन वह श्रीकृष्ण कृपा से त्रिवक्रा से सर्वांग-सुन्दरी बन जाएगी। 

कुब्जा प्रसंग से दूसरी शिक्षा है - संसार की समस्त उत्तम वस्तुएं भगवान को अर्पण करनी चाहिए, कुब्जा की तरह मनुष्य को अपनी सबसे प्यारी वस्तु—अपने जीवन को ही इतना सुगन्धित (भक्ति से ओतप्रोत) करना होगा; जिससे कुब्जा के चंदन की तरह भगवान स्वयं हमें अपनी सेवा में लगाने को तैयार हो जाएं,यही भगवत्कृपा प्राप्त करने का सबसे सरल उपाय है । 

श्री डोंगरे जी ने कुब्जा प्रसंग की बहुत सुन्दर व्यााख्या की है---- मनुष्य की बुद्धि तीन जगहों पर टेढ़ी होती है अर्थात् बुद्धि के तीन दोष हैं-- "काम, क्रोध और लोभ" जिसकी बुद्धि टेढ़ी होती है उसका मन टेढ़ा होता है (मन में लोभ रहता है), उसकी आंख टेढ़ी होती है (अर्थात् आंख में काम रहता है) और जीवन टेढ़ा होता (अर्थात् विषयी व विलासी होता) है, कंस की सेवा करने से बुद्धि टेढ़ी होती है, किन्तु भगवान की सेवा करने से सीधी व सरल हो जाती है। 

हमारी बुद्धि ही कुब्जा है जो काम,क्रोध और लोभ से वक्र (टेढ़ी) हो गयी है, प्रभू की पूजा इन तीनो दोषों को नष्ट करके बुद्धि को शुद्ध करती है, बुद्धि यदि कंस काम की सेवा करेगी तो विकृत हो जायेगी,बुद्धि ईश्वर के सम्मुख आकर सरल बन सकती है, यदि ऐसा नही हुआ तो पाँचो विषय ---- "शब्द,रुप,रस,गन्ध,स्पर्श,जीव को सताते रहेंगे" कंस की सेवा करने वाली बुद्धि भ्रष्ट,वक्र होगी और कृष्ण की सेवा करने वाली बुद्धि सरल होगी,विषयो का चिंतन करने से बुद्धि वक्र होगी जिसकी बुद्धि वक्र होगी उसका मन भी वैसा ही हो जायेगा, विकृत मन वाले की आँखे भी दूषित हो जायेगी, जिसकी आँखे दूषित होगी,उसका जीवन भी दूषित होगा। 

कुब्जा पूर्व जन्म में सूपर्णखा थी,जो रुप बनाकर राम से विवाह का प्रस्ताव रखा था किन्तु प्रभु ने उसे ठुकरा दिया, जो रुप बनाकर प्रभु के पास जाते हैं, प्रभु उन्हें स्वीकार नहीं करते किन्तु कुब्जा की भाँति कुरुप रहने पर उसे रुपवान बनाकर स्वीकार भी करते हैं, भगवान बुद्धि के पति,और सद्गुरु बुद्धि के पिता हैं, सद्गुरु ही शिष्य की बुद्धि को भगवान के साथ विवाहित कराते हैं, इसलिए मनुष्य को अपनी बुद्धि को परमात्मा के साथ विवाहित होने तक सद्गुरु संत की शरण में रखना चाहिए, बुद्धि को स्वतंत्र रखने से उसमें दोष उत्पन्न हो जाते हैं।

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