वेदान्तसार श्लोक 1–14: संस्कृत पाठ और भावपूर्ण हिन्दी अनुवाद | Vedantasara with Hindi Translation
यहाँ प्रस्तुत है वेदान्तसार के प्रथम १४ श्लोकों का संस्कृत मूल के साथ क्रमबद्ध, शुद्ध और भावपूर्ण हिन्दी अनुवाद:
❖ श्लोक १
अखण्डं सच्चिदानन्दमवाङ्मयनसगोचरम् ।
आत्मानमखिलाधारमाश्रयेऽभीष्टसिद्धये ।। १ ।।
अनुवाद
जो अखण्ड (अविभाज्य), सत्-चित्-आनन्दस्वरूप, वाणी और मन की पहुँच से परे, समस्त जगत् का आधारभूत आत्मा है — मैं उस आत्मा का आश्रय करता हूँ जिससे मुझे परम अभीष्ट की सिद्धि हो।
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वेदान्तसार श्लोक 1–14: संस्कृत पाठ और भावपूर्ण हिन्दी अनुवाद | Vedantasara with Hindi Translation |
❖ श्लोक २
अर्थतोऽप्यद्वयानन्दानतीतद्वैतभानतः ।
गुरूनाराध्य वेदान्तसारं वक्ष्ये यथामति ॥ २॥
अनुवाद
जो वस्तुतः अद्वितीय आनन्दस्वरूप है और जो द्वैत का अतीत है — ऐसे तत्त्व को समझने के लिए गुरु की उपासना करके मैं अपनी बुद्धि के अनुसार वेदान्त का सार प्रस्तुत करूँगा।
❖ श्लोक ३
वेदान्तो नामोपनिषत्प्रमाणं तदुपकारीणि
शारीरकसूत्रादीनि च ॥ ३ ॥
अनुवाद
वेदान्त नाम है — उपनिषद् जो प्रमाणस्वरूप हैं, तथा उनके सहायक ग्रंथ जैसे कि शारीरकसूत्र (ब्रह्मसूत्र) आदि।
❖ श्लोक ४
अस्य वेदान्तप्रकरणत्वात् तदीयैः एवं अनुबन्धैः
तद्वत्तासिद्धेः न ते पृथगालोचनीयाः ॥ ४॥
अनुवाद
यहाँ वेदान्त का विषय होने से, उपर्युक्त शास्त्रों के अनुबन्ध (संबंध, प्रयोजन आदि) भी उसी प्रकार सिद्ध होते हैं। अतः उन्हें पृथक् रूप से विश्लेषित करने की आवश्यकता नहीं।
❖ श्लोक ५
तत्र अनुबन्धो नाम अधिकारिविषयसम्बन्धप्रयोजनानि ॥ ५॥
अनुवाद
यहाँ ‘अनुबन्ध’ नामक चार तत्व होते हैं —
अधिकारी (अध्ययन के योग्य व्यक्ति),
विषय (अध्ययन का विषय),
सम्बन्ध (शास्त्र और विषय के बीच का संबंध),
प्रयोजन (शास्त्र अध्ययन का फल)।
❖ श्लोक ६
अधिकारी तु विधिवद्धीतवेदवेदाङ्गत्वेनापाततोऽधिगताखिल-
वेदार्थोऽस्मिन् जन्मनि जन्मान्तरे वा काम्यनिषिद्धवर्जनपुरः सरं
नित्यनैमित्तिकप्रायश्चित्तोपासनानुष्ठानेन निर्गतनिखिलकल्माषतय
नितान्तनिर्मलस्वान्तः साधनचतुष्टयसम्पन्नः प्रमाता ॥ ६ ॥
अनुवाद
अधिकारि वह है —
जिसने विधिपूर्वक वेद-वेदाङ्गों का अध्ययन किया हो,
वेद के सम्पूर्ण अर्थ का सामान्य ज्ञान हो (इस जन्म में या पूर्व जन्मों में),
जो काम्य (इच्छापूर्वक किए जाने वाले) और निषिद्ध (वर्जित) कर्मों से दूर हो,
नित्य, नैमित्तिक, प्रायश्चित्त और उपासना आदि विधियों से समस्त पापों का परिमार्जन कर चुका हो,
और जिसके अन्तःकरण में अत्यन्त निर्मलता हो,
तथा जिसमें साधन-चतुष्टय (विवेक, वैराग्य, शमादि-षट्सम्पत्ति, मुमुक्षा) विद्यमान हो — वही योग्य जानने वाला (प्रमाता) है।
❖ श्लोक ७
काम्यानि - स्वर्गादीष्टसाधनानि ज्योतिष्टोमादीनि ॥ ७॥
अनुवाद
काम्य कर्म वे हैं — जो किसी विशेष फल जैसे स्वर्ग आदि की प्राप्ति के लिए किए जाते हैं, जैसे — ज्योतिष्टोम यज्ञ आदि।
❖ श्लोक ८
निषिद्धानि - नरकाद्यनिष्टसाधनानि ब्राह्मणहननादीनि ॥ ८॥
अनुवाद
निषिद्ध कर्म वे हैं — जो नरक आदि अप्रिय फलों के कारण निषिद्ध किए गए हैं, जैसे — ब्राह्मण की हत्या आदि पापकर्म।
❖ श्लोक ९
नित्यानि - अकरणे प्रत्यवायसाधनानि सन्ध्यावन्दनादीनि ॥ ९॥
अनुवाद
नित्य कर्म वे हैं — जो प्रतिदिन करने चाहिए, और जिनके न करने पर दोष (प्रत्यवाय) लगता है, जैसे — सन्ध्या-वन्दन आदि।
❖ श्लोक १०
नैमित्तिकानि - पुत्रजन्माद्यनुबन्धीनि जातेध्यादीनि ॥ १० ॥
अनुवाद
नैमित्तिक कर्म वे हैं — जो किसी विशेष अवसर पर किए जाते हैं, जैसे पुत्र के जन्म के बाद किए जाने वाले जातकर्म आदि।
❖ श्लोक ११
प्रायश्चित्तानि - पापक्षयसाधनानि चान्द्रायणादीनि ॥ ११ ॥
अनुवाद
प्रायश्चित्त वे कर्म हैं — जो किसी पाप के प्रायश्चित स्वरूप में किए जाते हैं, जैसे — चान्द्रायण व्रत आदि।
❖ श्लोक १२
उपासनानि - सगुणब्रह्मविषयमानसव्यापाररूपाणि
शाण्डिल्यविद्यादीनि ॥ १२ ॥
अनुवाद
उपासनाएँ वे हैं — जो सगुण ब्रह्म (जैसे ईश्वर, विष्णु आदि) के ध्यान पर आधारित मानसिक क्रियाएँ होती हैं, जैसे — शाण्डिल्यविद्या आदि।
❖ श्लोक १३
एतेषां नित्यादीनां बुद्धिशुद्धिः परं प्रयोजनमुपासनानां
तु चित्तैकाग्र्यं "तमेतमात्मानं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा
विविदिषन्ति यज्ञेन" (बृ.उ ४.४.२२] इत्यादि श्रुतेः
"तपसा कल्मषं हन्ति" (मनु १२ - १०४]
इत्यादि स्मृतेश्च ॥ १३ ।।
अनुवाद
इन नित्य आदि कर्मों का परम प्रयोजन है — बुद्धिशुद्धि (विवेक की शुद्धता)।
उपासनाओं का प्रयोजन है — चित्त की एकाग्रता।
यह बात श्रुति से प्रमाणित है —
"तमेतमात्मानं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति यज्ञेन" —
(ब्राह्मणजन आत्मा को जानने की इच्छा से यज्ञ व वेदानुशासन करते हैं)
तथा स्मृति से —
"तपसा कल्मषं हन्ति" — तप से पापों का क्षय होता है।
❖ श्लोक १४
नित्यनैमित्तिकयोः उपासनानां त्ववान्तरफलं
पितृलोकसत्यलोकप्राप्तिः
“कर्मणा पितृलोक: विद्यया देवलोकः" (बृउ १-५-१६]
इत्यादिश्रुतेः ॥ १४॥
अनुवाद
नित्य और नैमित्तिक कर्मों तथा उपासनाओं का एक माध्यमिक (अन्तरग) फल यह भी है — पितृलोक और सत्यलोक की प्राप्ति।
जैसा कि श्रुति कहती है —
"कर्म से पितृलोक की प्राप्ति होती है और विद्या से देवलोक (सत्यलोक) की।"