संस्कृत श्लोक "निर्गत्य न विशेद् भूयो महतां दन्तिदन्तवत्" का हिन्दी अनुवाद और विश्लेषण
🌞 🙏 जय श्रीराम 🌷 सुप्रभातम् 🙏
आज का श्लोक – "महतों की वाणी की स्थिरता और नीचों की अस्थिरता" – एक उत्कृष्ट नीति-सूत्र है जो वाणी की गंभीरता और सत्यनिष्ठा पर गहन दृष्टि डालता है।
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संस्कृत श्लोक "निर्गत्य न विशेद् भूयो महतां दन्तिदन्तवत्" का हिन्दी अनुवाद और विश्लेषण |
✨ श्लोक ✨
निर्गत्य न विशेद् भूयो महतां दन्तिदन्तवत्।कूर्मग्रीवेव नीचानां वच आयाति याति च॥
nirgatya na vished bhūyo mahatāṁ dantidantavatkūrmagrīveva nīcānāṁ vaca āyāti yāti ca॥
🔍 शब्दार्थ एवं व्याकरणीय विश्लेषण:
पद | अर्थ | व्याकरणिक टिप्पणी |
---|---|---|
निर्गत्य | बाहर निकलकर | कृदन्त, अव्यय |
न विशेत् | (फिर) अंदर न जाए | लोट् लकार (निषेध) |
भूयः | पुनः, फिर | क्रियाविशेषण |
महताम् | महापुरुषों का | षष्ठी बहुवचन |
दन्तिदन्तवत् | हाथी के दांत के समान | उपमा |
कूर्मग्रीवेव | कछुए की गर्दन के समान | उपमा |
नीचानाम् | नीच जनों का | षष्ठी बहुवचन |
वचः | वचन, बात | कर्ता |
आयाति याति च | आता है और जाता है | वर्तमान काल |
🌿 भावार्थ:
महापुरुषों के वचन हाथी के दांत के समान होते हैं —
एक बार बाहर आ गए तो वापस नहीं जाते।
किन्तु नीच पुरुषों के वचन कछुए की गर्दन के समान होते हैं —
कभी बाहर, कभी भीतर – आते-जाते रहते हैं।
🌟 नीतिपरक व्याख्या:
गुण | महापुरुष | नीच |
---|---|---|
वाणी का स्वरूप | गंभीर, स्थिर | चंचल, अस्थिर |
प्रतिबद्धता | कथनी = करनी | कथनी ≠ करनी |
उदाहरण | हाथी का दांत – बाहर आ गया, फिर भीतर नहीं जाता | कछुए की गर्दन – जब चाहे भीतर-बाहर |
🔹 महापुरुष सोच-समझकर बोलते हैं, और जो बोलते हैं, उस पर अडिग रहते हैं।
🔸 नीचजन बोलते हैं कुछ, करते हैं कुछ, कभी हाँ, कभी ना – वाणी में न स्थिरता होती है, न विश्वसनीयता।
🐘 हाथी-दांत और वाणी की स्थिरता:
- हाथी के दांत (जिनसे वह खाता नहीं) बाहर होते हैं और स्थायी होते हैं।
- उसी प्रकार महापुरुष की बात एक बार निकली तो उसका परिवर्तन नहीं होता।
- वे वचनबद्ध होते हैं — "वाक्संयम" उनका धर्म होता है।
🐢 कछुए की गर्दन और वाणी की चंचलता:
- जब चाहे बाहर, जब चाहे अंदर – यह अस्थिरता कछुए के ग्रीवा की उपमा से व्यक्त की गई है।
- नीच व्यक्ति अपनी बातों से पलटता रहता है —👉 कभी कुछ बोलता है, तो कभी विरोधाभासी बातें।
📜 सम्बन्धित नीति-वचन:
"सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्, न ब्रूयात् सत्यमप्रियम्।"→ सत्य वाणी को मधुर और स्थिर बनाना ही सज्जनता है।
"सत्ये स्थितं वाक्यमेव धर्मः।"→ वाणी का सत्य में स्थित होना ही धर्म है।
🕯️ आधुनिक सन्दर्भ:
आज के युग में –
- लोग वादे करके पलट जाते हैं,
- नेता, व्यापारी, या सामान्यजन – वाणी में स्थिरता का अभाव है।
📌 यह श्लोक हमें स्मरण कराता है —
वचन की विश्वसनीयता = व्यक्तित्व की प्रतिष्ठा।
🕊️ जीवनोपयोगी प्रेरणा:
- बोलने से पहले सोचिए,
- बोलिए तो निभाइए।
- यदि असमर्थ हैं तो मौन रहिए, क्योंकि—
“मौन व्रत तोड़ने से अच्छा है, वाणी-व्रत निभाना।”
🔔 संक्षेप में:
✔ महापुरुष की वाणी – वज्र की तरह स्थिर
✘ नीच की वाणी – पानी की तरह बहती, बदलती
🌼 शुभ विचारों, स्थिर वाणी और अडिग संकल्पों के साथ आपका दिन मंगलमय हो।
जय श्रीराम! सुप्रभातम्! 🌅