सुखी मीन जे नीर अगाधा। जिमि हरि सरन न एकऊ बाधा।।

Sooraj Krishna Shastri
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सुखी  मीन  जे  नीर  अगाधा। जिमि हरि सरन न एकऊ बाधा।।

अर्थात् , जो मछलियाँ अथाह जल में हैं, वे सुखी हैं, जैसे श्री हरि के शरण में चले जाने पर एक भी बाधा नहीं रहती है। 

वैसे ही प्राणी मात्र के  ईश्वर का शरण (आश्रय)लेने पर कोई बाधा (कष्ट)नही रहता है ।मृत्यु का भी भय नही रहता है । सर्वविदित आनन्द ही आनन्द रहता है ।

याद आता है कि एक  ऊँचे स्तर का व्यक्ति थे। उन्होंने  किसी सरोवर में मछली को देखा, मन बड़ा प्रसन्न हुआ, उसके मन में  विचार आया कि कितने दिनों से यह पानी में रह रही है, इसका वातावरण  बदलना चाहिए, इसका स्तर बढ़ाना चाहिए। उसने मछली को पानी से निकाला और दूध में डाल दिया। वह  दूध में छटपटाने लगी। उसने सोचा,  और ऊँचा स्तर कर देता हूँ। इसलिये दूध से निकालकर घी के बर्तन में डाल दिया। घी में और ज्यादा  छटपटाने लगी तब शहद के कुण्ड में डाला परंतु उसमें हालत और भी खराब होने लगी। 

सुखी  मीन  जे  नीर  अगाधा। जिमि हरि सरन न एकऊ बाधा।।
सुखी मीन जे नीर अगाधा। जिमि हरि सरन न एकऊ बाधा।।


एक भाई उधर से  जा रहे थे, उन्होंने सहज ही पूछा क्या  कर रहे हो?

 उसने कहा भाई,  मछली का स्तर ऊँचा कर रहा हूँ।  भाई ने कहा, यदि जिन्दा रखना  चाहते हो तो पानी में डाल दो। उसने फिर  से पानी में डाला तो मछली ने उसे  बड़ी कृतज्ञता से देखा और गहरे पानी में चली गई। मछली पानी के बिना कुछ  क्षण भी नहीं रह सकती , लेकिन एक दिन अपनी रसना की आसक्ति में जीवनदायी पानी को भी अलविदा कह देती है। लोहे के छोटे-से कांटे में लगे मांस को खाने के लिये जब दौड़ती है, तो स्वाद के कारण उसमें फंस जाती है। जो पानी में आनंद के साथ रह रही थी वह रसना पर संयम न रहने के कारण पकड़ में आ जाती है और बाजार में बेच दी जाती है।

संसार के ये छोटे प्राणी एक-एक इंद्रिय के असंयमी हो जाने के कारण जीवन में कष्ट का अनुभव करते हैं परंतु मनुष्य के भीतर तो पाँचों का असंयम है। आँखों से देखता है, कानों से सुनता है, शरीर से स्पर्श करता है, जीभ से अच्छे पदार्थों का स्वाद लेता है। यदि वह विचार न करे कि मुझे कितना सेवन करना चाहिए तो उसका क्या अंत होगा? क्या परिणाम होगा? आज संसार की अधिकतर कठिनाइयाँ इसलिये हैं कि मानव के जीवन से संयम समाप्त हो गया है। उसे लगता है कि प्रकृति दंड दे रही है। उसे लगता है कि मेरी तकदीर में ऐसा लिखा हुआ है लेकिन विचार कर देखें तो सारी कठिनाइयाँ असंयम के कारण ही है

जीवन में संयम की आवश्यकता होती है संयम का अर्थ है कि आदमी के पास वस्तुएँ तो हों पर उनका विचारपूर्वक उपभोग करे। कोई व्यक्ति जब असंयमी हो जाता है, तो समाज में उसका अच्छा प्रभाव नहीं रहता। यदि राजा असंयमी हो जाये, तो प्रजा में आदर्श नहीं रह पाता। परिवार में कोई असंयमी हो जाये, उसमें कोई व्यसन जग जाये, जैसे, जुआ खेलना, सुरा-पान करना आदि, तो सीमा टूटने लगती है। परिवार दुखी हो जाता है। इसलिये व्यक्ति जिस वस्तु का भी उपयोग करे, सेवन करे, विचारपूर्वक करे। मनुष्य के अतिरिक्त संसार में कुछ ऐसे प्राणी होते हैं, जो अपने ऊपर संयम नहीं रख पाते, तो उनका जीवन ही चला जाता है।

कुरंग  मातंग  पतंग  भृंग   मीना  हता  पंचभिरेव  पंच।

 एका प्रमादी स कथं न हन्यते या सेवते पंचभिरेव पंच।।

परमात्मा द्वारा जीव को पांच ज्ञानेन्द्रियां प्रदान की गई हैं। श्रवण, त्वक्,चक्षु, जिह्वा और घ्राणेन्द्रिय। अर्थात  आँख, कान, नाक, जीभ और त्वचा. ये क्रमशः देखने, सुनने, सूंघने, स्वाद लेने और महसूस करने के लिए होती हैं।

हिरण को आपने देखा है, जब कुलांचें भरता है, तो कितना प्यारा लगता है। चिड़ियाघर कभी जाते हैं, तो हिरण के पास बहुत देर तक खड़े रहते हैं। उसकी आँखें बड़ी अच्छी लगती हैं लेकिन वही हिरण एक दिन अपने भीतर का संयम खो देता है। जंगल में कोई बंसी बजाने लगता है, तो अपने कानों पर संयम नहीं रख पाता और जिधर से बंसी की मधुर ध्वनि आ रही होती है, उधर भागता चला जाता है। वहाँ छिपकर बैठा शिकारी देखता है कि मुरली की तान में मस्त हो गया है, तो तुरंत अपनी रस्सी के बंधन में ले लेता है अथवा अपने बाण का लक्ष्य बना लेता है। जो अभी तक स्वतंत्र घूम रहा था, बंधन में नहीं था, श्रवणेन्द्रिय के संयम के अभाव में हमेशा के लिये बंध जाता है या अपने प्राण गंवा बैठता है। 

हाथी जंगल में मस्ती से विचरण करता है लेकिन अपनी एक इंद्रिय पर, वासना पर विजय न पाने के कारण पकड़ा जाता है। हाथी पकड़ने वाले उसकी इस निर्बलता को जानते हैं। जंगल में एक गहरा गड्डा खोदकर, उसके ऊपर हल्की-फुल्की लकड़ी डालकर, कागज की बनावटी हथिनी खड़ी कर देते हैं। हाथी वासना की प्रबलता के कारण, असंयम के कारण समझ नहीं पाता और जैसे ही दौड़ता है, गड्ढे में गिर पड़ता है। लोग उसे पकड़ कर लोहे की जंजीर से बाँध देते हैं। 

बरसात के दिनों में आपने पतंगों को दीपक या प्रकाश के चारों ओर मंडराते देखा होगा। वे भी शमा पर जान गंवा देते हैं। यदि थोड़ा-सा संयम आ जाए और विचार करें कि दीपक से अलग रहना है, तो प्राण बचा सकते हैं परंतु वे समझाने से समझ नहीं पायेंगे, उनको तो एक ही बेसब्री है।

शाम शमा पर न्योछावर है परवानों की

खैरियत दिखती नहीं इन नादानों की।

ऐसी नादानी ठीक नहीं, कौन कहे परवानों से

इज़हारे मोहब्बत करते हैं इतने महंगे नज़रानों से।।

पतंगे इतना बड़ा नजराना देने को तैयार हो जाते हैं कि संयम न होने के कारण अपने प्राणों से हाथ धो बैठते हैं।

इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते।

तदस्य हरति प्रज्ञां वायु वमिवाम्भसि ॥

क्योंकि जैसे जल में चलने वाली नाव को वायु हर लेती है, वैसे ही विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों में से मन जिस इन्द्रिय के साथ रहता है, वह एक ही इन्द्रिय इस अयुक्त पुरुष की बुद्धि को हर लेती है ।।

 हिरण 'शब्द' विषय में फंसकर अपने प्राण गंवा देता है। हाथी 'स्पर्श' विषय का दास बनकर बन्धन को प्राप्त होता है। पतंग 'रूप' विषय पर मोहित होकर जल जाता है। भौंरा 'गन्ध' विषय में मस्त होकर मृत्यु को प्राप्त होता है। मछली 'रस' के वशीभूत होकर कांटे में फंस जाती है। फिर भला इन पांचों विषयों को स्वच्छन्द होकर भोगने वाले इस मनुष्य का अमूल्य जीवन नष्ट होने से कैसे बच सकता है ? कैसे भी नहीं।

इन्द्रियाणि परान्याहुरिन्द्रयेभ्य: परं मन: ।

मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धे: परतस्तु स: ।।

शरीर स्थूल पदार्थ से बना है; उससे श्रेष्ठतर पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं (जो स्वाद, स्पर्श, दृष्टि, गंध और ध्वनि की अनुभूतियों को समझती हैं); इन्द्रियों से परे मन है; मन से श्रेष्ठतर बुद्धि है, जिसमें विवेक करने की क्षमता है; किन्तु बुद्धि से भी परे दिव्य आत्मा है

कार्यकारणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते।

पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते ॥

सृष्टि के विषय में भौतिक शक्ति कारण तथा प्रभाव के लिए उत्तरदायी है; सुख तथा दुःख के अनुभव के विषय में व्यक्तिगत आत्मा को उत्तरदायी कहा गया है।

आत्मा को अपने पिछले कर्मों के अनुसार एक शारीरिक रूप (कार्य क्षेत्र) मिलता है, और वह खुद को शरीर, मन और बुद्धि के साथ पहचानती है। इस प्रकार, वह शारीरिक इंद्रियों के सुख की तलाश करती है। जब इंद्रियाँ इंद्रिय विषयों के संपर्क में आती हैं, तो मन एक सुखद अनुभूति का अनुभव करता है। चूँकि आत्मा मन के साथ पहचान करती है, इसलिए वह उस सुखद अनुभूति का आनंद लेती है। इस तरह, आत्मा इंद्रियों, मन और बुद्धि के माध्यम से सुख और दुख दोनों की अनुभूति करती है। इसकी तुलना एक स्वप्न अवस्था से की जा सकती है:

एहि बिधि जग हरि आश्रित रहई।

जदपि असत्य देत दु:ख अहई॥

जौं   सपनें   सिर   काटै   कोई।

बिनु   जागें   न   दूरि   दु:ख होई॥

इसी तरह यह संसार भगवान के आश्रित रहता है। यद्यपि यह असत्य है, तो भी दुःख तो देता ही है, जिस तरह स्वप्न में कोई सिर काट ले तो बिना जागे वह दुःख दूर नहीं होता।

"यह संसार भगवान द्वारा संचालित है। यह एक भ्रम पैदा करता है, जो अवास्तविक होते हुए भी आत्मा को दुख देता है। यह वैसा ही है जैसे अगर किसी का सिर सपने में कट जाए, तो दुख तब तक जारी रहेगा जब तक कि व्यक्ति जागकर सपने देखना बंद नहीं कर देता।" शरीर के साथ पहचान की इस स्वप्न अवस्था में, आत्मा अपने पिछले और वर्तमान कर्मों के अनुसार सुख और दुख का अनुभव करती है। नतीजतन, इसे दोनों तरह के अनुभवों के लिए जिम्मेदार माना जाता है।

जिस सुख को प्राप्त करने के लिये तुम मारे मारे फिर रहे हो , वह उनमें है ही नहीं । वह तो एकमात्र भगवान के पास है जिसके पास तुम जाना नहीं चाहते हो ।

इसलिए इन इन्द्रियों की कामनाओं को केवल भगवद्विषय में मोड़ तो भगवदक्षेत्र की ओर उन्मुख कर दो , तुम्हारा कल्याण हो जाएगा। अन्यथा यह भटकाव आजीवन बना रहेगा ।

हमन हैं इश्क़ मस्ताना हमन को होशियारी क्या।

रहें आज़ाद या जग से हमन दुनिया से यारी क्या।।

जो बिछड़े हैं पियारे से भटकते दर-ब-दर फिरते।

हमारा यार है हम में हमन को इंतिज़ारी क्या।।

ख़लक़ सब नाम अपने को बहुत कर सर पटकता है।

हमन गर नाम साँचा है हमन दुनिया से यारी क्या।।

न पल बिछ्ड़ें पिया हम से न हम बिछड़े पियारे से।

उन्हीं से नेह लागी है हमन को बे-क़रारी क्या।।

कबीरा' इश्क़ का माता दुई को दूर कर दिल से।

जो चलना राह नाज़ुक है हमन सर बोझ भारी क्या।।

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