श्री लोमहर्षण सूत जी किस जाति के थे: शास्त्रीय विवेचन
श्रीलोमहर्षण सूत जी जाति से सूत नहीं थे, बल्कि उच्च ब्राह्मण थे। उनका "सूत" यौगिक उपनाम वा उपाधि था, न कि जाति।
(१) महाभारत के हरिवंश में श्रीनीलकंठ अपनी टीका में लिखते हैं:- "अग्निकुंडसमुद्भूत सूत निर्मल-मानस। इति पौराणिकप्रसिद्धेरग्निजो लोमहर्षणः, तस्य पुत्रः सौतिः उग्रश्रवाः, न तु 'ब्राह्मण्या क्षत्रियात् सूतः' इति स्मृत्युक्तः, तद्वितानर्थक्या पत्तेः।"
अर्थात: पुराण सूत की अग्निकुंड से उत्पत्ति बताते हैं। अतः अग्निकुंड से उत्पन्न होने के कारण उनका नाम सूत प्रसिद्ध है। यहाँ सूत जाति नहीं है। यदि ऐसा होता, तो सूत के पुत्र को भी सूत ही कहा जाता, सौति नहीं। जबकि उनके पुत्र का नाम 'सौति' है। जैसे ब्राह्मण के पुत्र को 'ब्राह्मणि' न कहकर ब्राह्मण ही कहा जाता है। यदि सूत का उदाहरण ही देखना चाहे, तो कर्ण सूत जाति के रूप में प्रसिद्ध थे, किंतु महाभारत में उन्हें कहीं भी 'सौति' नहीं कहा गया, बल्कि "नाहं वरयामि सूतम्" - सूत ही कहा गया है। अतः सूतजी के पुत्र को 'सौति' इस प्रकार तद्वित इ_ प्रत्यय से कहा गया है। यह एक प्रमाण ही सिद्ध करता है कि पौराणिक सूत जी का नाम सूत था, सूत-जाति नहीं थी।
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Sut ji : श्री लोमहर्षण सूत जी किस जाति के थे: शास्त्रीय विवेचन |
(२) अन्य प्रमाण देखें, तो शिवपुराण की वायवीय संहिता के उत्तरभाग में सौति ने अपने पिता को यज्ञ-कुंड से उत्पन्न बताया है। तब सूतकुल से उनके होने का या सूत जाति होने का प्रश्न ही समाप्त हो जाता है। बाद में जैसे 'जनक' एक उपाधि थी, उनके उत्तराधिकारी भी 'जनक' कहे जाते थे। उसी प्रकार आदि शंकराचार्य के उत्तराधिकारी भी 'शंकराचार्य' कहे जाते हैं। इसी तरह लोमहर्षण सूतजी के स्थान पर उनके पुत्र आदि को सूत कहना भी इस कारण है कि उन्होंने अपने पिता के कार्य को आगे बढ़ाया और उनकी उपाधि ग्रहण की। आज भी कथावाचक को व्यासजी या सूतजी कहा जाता है। वह ब्राह्मण ही होता है, प्रतिलोमज नहीं।
(३) श्रीमद्भागवत में उन्हें बलरामजी द्वारा वर्णसंकर समझकर मारा गया, किंतु वहाँ उनकी भूल ऋषियों ने ही बताई और इसे ब्रह्महत्या कहा गया। वर्णसंकर के मारने पर ब्रह्महत्या का दोष नहीं लगता। रामायण में श्रवणकुमार ने कहा था - "ब्रह्महत्याकृत पापं हृदयादपनीयताम्। न द्विजातिरहं राजन्।"
अर्थात: "राजन, मैं ब्राह्मण नहीं हूँ, अतः मेरे मारने से ब्रह्महत्या का भय हटा लीजिए। क्योंकि संकर होने से मेरे मारने पर ब्रह्महत्या नहीं लगेगी।"
इसी प्रकार, यदि सूतजी वास्तव में वर्णसंकर होते, तो उनके मारने पर अन्य प्रायश्चित तो किए जा सकते थे, किंतु ब्रह्महत्या का दोष और उसका प्रायश्चित अनिवार्य नहीं होता। महाभारत के प्रमाण और श्रीनीलकंठ द्वारा सूतजी को ब्राह्मण मानना इसका प्रमाण है।
(४) अग्निपुराण में श्रीसूतजी को "वक्ता वेदादिशास्त्राणाम्" कहते हुए स्पष्ट रूप से ब्राह्मण कहा गया है:
"ब्राह्मणः पौष्करे यज्ञे सुत्याहे वितते सति। पृषदाज्यात् समुत्पन्नः सूतः पौराणिको द्विजः। वक्ता वेदादिशास्त्राणाम् त्रिकालामलधर्मवित्।"
अर्थात: ब्रह्मा के पुष्कर यज्ञ में सोमरस निकालने के दिन पौराणिक ब्राह्मण सूत उत्पन्न हुए, जो वेदादि शास्त्रों के वक्ता और त्रिकालिक धर्म के निर्मल ज्ञाता थे। यहाँ उनका वेदाधिकारी होना और वेद का विद्वान होना उनके ब्राह्मणत्व को सिद्ध करता है। फिर स्पष्ट रूप से उन्हें ब्राह्मण कहा गया है।
(५) कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी इसका प्रमाण है। उसमें प्रथम सूत जाति आदि संकरों का निरूपण करते हुए कहा गया है कि क्षत्रिय से ब्राह्मणी में सूत होता है। इस वर्णसंकर सूत जाति का वर्णन करने के उपरांत कौटिल्य ने लिखा -
"पौराणिकस्तु अन्यः सूतो मागधश्च, ब्रह्म-क्षत्राद् विशेषः।"
अर्थात: पुराण में वर्णित सूत और मागध प्रतिलोमज सूत और संकर-मागध से भिन्न हैं। इनमें पौराणिक सूत ब्राह्मणों में श्रेष्ठ और मागध क्षत्रियों में श्रेष्ठ हैं। इस प्रमाण से भी पौराणिक सूतजी के ब्राह्मणत्व की सिद्धि होती है।
महामहोपाध्याय पंडित श्री गंगाराम शास्त्री जी ने अपनी टीका में भी यही दोहराया है कि पौराणिक सूतजी श्रेष्ठ ब्राह्मण हैं, क्योंकि विष्णुपुराण के प्रथमांश के तृतीयाध्याय में यह स्पष्ट है। आगे अग्निपुराण और कूर्मपुराण के वचनों का उल्लेख करते हुए कहा गया:
"इति व्यासशिष्यः पौराणिक-सूतस्य अयोनिज एव उत्पत्तिः प्रतिलोमज-सूत विलक्षणया कथ्यते, तथा द्विजत्वम्, तथैव मागधस्यापि तत्सहपठितस्य अयोनिजत्वम्।"
अर्थात: व्यास के शिष्य पौराणिक सूत की अयोनिज उत्पत्ति और उनका श्रेष्ठ ब्राह्मण होना कहा गया है।
आजकल के आर्यसमाजी - केवल निम्नजातियो को प्रसन्न करने के लिए, उनका धर्मांतरण करके उन्हें आर्यसमाजी बनाने के लिए सूतजी को भी शूद्र बताते हैं। जब कि आर्यसमाज के ही कई पुराने विद्वानो ने सूत जी को ब्राह्मण ही माना हैं।आर्यसमाज के विद्वान श्री उदयवीरजी ने अर्थशास्त्र की टीका में लिखा है: - "जो सूत और मागध नामक पुरुष पुराणों में वर्णित हैं, वे संकर सूत-जाति से भिन्न हैं।"
इसके अतिरिक्त, आर्यसमाज के ही विद्वान श्री भगवद्दत्तजी अपनी पुस्तक "भारतवर्ष का वृहद् इतिहास" में लिखते हैं: "लोमहर्षण सूत तो विद्वान ब्राह्मण थे।" (तृतीय अध्याय, पृष्ठ ३) । इसी पुस्तक के पृष्ठ ९८ पर वे पुनः लिखते हैं: - "कौटिल्य अपने सुप्रसिद्ध वाक्य में पौराणिक सूत और सारथि सूत का भेद बता गए हैं।"
(६) अतः शास्त्रों और सभी विद्वानों द्वारा सूतजी को ब्राह्मण ही माना गया है। तभी भविष्यपुराण में शौनक आदि ऋषियों ने सूतजी को ब्राह्मण के पर्यायवाची 'ब्रह्मन्' से संबोधित किया है:- "सत्यं ब्रह्मन् वदोपायं नराणां कीर्तिकारकम्।" इसी प्रकार, महाभारत के अनुशासन पर्व में:- "देवतानंतरं विप्रान् तपःसिद्धान् तपोधिकान्। कीर्तितान् कीर्तयिष्यामि सर्वपापविमोचनान्। - ब्राह्मणों के नामकीर्तन के अवसर पर लोमहर्षण सूतजी को काश्यप, व्यास आदि के साथ ब्राह्मण कहा गया है।
(७) कूर्मपुराण में - "त्वया सूत महाबुद्धे भगवान् ब्रह्मवित्तमः। इतिहास-पुराणार्थं व्यासः संन्यगुपासितः। त्वं हि स्वायम्भुवे यज्ञे..." अर्थात: हे महाबुद्धि सूतजी, आप भगवान्, ब्रह्मविदों में श्रेष्ठ ब्राह्मण हैं। आपने इतिहास-पुराणों के लिए श्रीव्यासजी की सेवा की थी। आप यज्ञ से उत्पन्न हुए थे।
ब्राह्मण द्वारा वर्णसंकर को प्रणाम नहीं किया जाता। किंतु श्रीमद्भागवत् के पद्मपुराणीय माहात्म्य में:
"नैमिषे सूतमासीनमभिवाद्य महामतिम्।
कथामृतरसास्वादकुशलः शौनकोऽब्रवीत्।"
श्री शौनक द्वारा सूतजी को अभिवादन किया गया है। इसी प्रकार, स्कन्दपुराण के द्वितीय वैष्णवखण्डस्थ भागवतमाहात्म्य में भी ब्राह्मण ऋषियों द्वारा सूतजी का अभिवादन किया गया है।
शिवपुराण की विद्येश्वर-संहिता में:
"सूत सूत महाभाग व्यासशिष्य नमोऽस्तु ते। तदेव व्यासतो ब्रूहि भस्ममाहात्म्यमुत्तमम्।" (1.23.1, 2.11.1, 5.1.2)
यहाँ ऋषियों द्वारा सूतजी को नमस्कार कहा गया है।
(८) एक दिन पूर्व, एक मित्र की पोस्ट पर एक महाशय मुझसे बहस करने लगे कि पौराणिक सूतजी वर्णसंकर थे और सूतकुल में उत्पन्न थे। जब मैंने उन्हें सूतजी के अग्निकुंड से उत्पन्न होने के प्रमाण दिए, तो अपना खंडन होते देख उन्होंने आर्यसमाजियों की भाँति इन कथाओं को "बच्चों की कहानियाँ" और "गप्प" कहना शुरू कर दिया, जबकि स्वयं वे सूतजी के वर्णसंकर होने का प्रमाण पुराण से ही दे रहे थे। अर्थात, पुराण के किसी एक प्रकरण से अपनी बात को घुमाकर सिद्ध किया जा सके, तब तो पुराण प्रमाण हैं, किंतु उस बात के विरोध में पुराण में सौ से अधिक प्रमाण दिखें, तो उसे नहीं मानेंगे। ऐसे दोगलेपन का भी कोई टीका विकसित हो जाये, तो बड़ी अच्छी बात हो।
अग्निकुंड से उत्पत्ति या अयोनिज उत्पत्तियाँ पूर्व समय में हुआ करती थीं, क्योंकि तब ऐसे सामर्थ्यवान तपस्वी महापुरुष आदि हुआ करते थे। आज यह नहीं देखी जाती, क्योंकि अब ऐसे लोग नहीं हैं। पिछले डेढ़-दो सौ वर्षों में ही मानव की क्षमता में कितना अंतर आया है। फिर कई हजार-लाख वर्ष पहले ऐसा होता था, इसमें विश्वास रखने में क्या हानि है? और फिर मानना तो पड़ेगा ही, इन उत्पत्तियों का मज़ाक उड़ाने वाले आर्यसमाजियों के खुदामंद करीम दयानंद स्वामी ने भी सृष्टि के आदि में ईश्वर द्वारा आयोनिज उत्पत्ति की गयी, ऐसा माना हैं। तब क्या ईश्वर को प्रकृति विरुद्ध मानकर, ईश्वर को ही नकार दोगे? आश्चर्य की बात हैं कि स्वयं को सनातनी कहने वाले अनेक मूर्ख और धर्माचार्यो जैसा स्वरूप बनाकर रखने वाले भी एक एक करके अपने सब पूर्वजो को ही वर्णसंकर या शूद्र सिद्ध करने पर तुले हैं। इसका कारण मूर्खता तो है ही, इनकी बुद्धि राजनेताओ की गुलाम हो चुकी हैं।
(९) द्रौपदी की उत्पत्ति भी अग्नि से हुई थी। धृष्टद्युम्न की उत्पत्ति भी अग्नि से हुई थी। यह महाभारत में प्रसिद्ध है। चूँकि वहाँ हवि 'क्षत्रियत्वाभिमन्त्रित' थी, इसलिए इन दोनों को क्षत्रिय माना गया।
(१०) निरुक्त में - "अङ्गारेषु अङ्गिराः। अङ्गिरसः पुत्रास्ते अग्नेरधिजज्ञिरे इति अग्निजन्म।" - यहाँ अङ्गिरा ऋषि की उत्पत्ति भी अग्नि से कही गई है। अगर नहीं मानोगे तब तो वैदिक ग्रंथो में भी अनेकों अयोनिज उत्पत्तिया कही गयी हैं। वेद भी नकारने है , तब फिर स्वयं को सनातनी कहने के लिए तुम्हारे पास क्या बचा व बचेगा?
अतः व्यर्थ में अपने शास्त्रो के विरोध में जाकर, अपने ईश्वर के विरोध में जाकर, ऋषि मुनियो अपने पूर्वजो के विरोध में जाकर, उनका अपमान करके कोई भी एकता स्थापित नहीं हो सकती।