जौं सपनें सिर काटै कोई। बिनु जागें न दूरि दु:ख होई॥
एहि बिधि जग हरि आश्रित रहई। जदपि असत्य देत दु:ख अहई॥
जौं सपनें सिर काटै कोई। बिनु जागें न दूरि दु:ख होई॥
अर्थात्, इसी तरह यह संसार भगवान के आश्रित रहता है। यद्यपि यह असत्य है, तो भी दुःख तो देता ही है, जिस तरह स्वप्न में कोई सिर काट ले तो बिना जागे वह दुःख दूर नहीं होता।
साक्षी भाव में या आत्म भाव में कैसे जीएं जो हो रहा है उसे हो जाने दो ,सब केवल प्रकृति की लीला है।प्रकृति में न कुछ अच्छा है न कुछ बुरा सब कुछ केवल एक नाटक है, खेल है, ड्रामा है ।
अचोद्यमानानि यथा, पुष्पाणि फलानि च।
स्वं कालं नातिवर्तन्ते, तथा कर्म पुरा कृत्रिम।
जैसे बिना प्रेरणा के फूल और फल अपने समय पर उगते हैं, उसी प्रकार पहले किये हुए कर्म भी अपने समय पर फल देते हैं।
नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः।
शास्त्रों में निर्धारित कर्तव्य कर्म करो, क्योंकि कर्म न करने से कर्म करना श्रेष्ठ है। कर्म न करने से तुम्हारा शरीर निर्वाह भी सिद्ध नहीं होगा।
विचारों के अलावा जो शेष चेतना है ,वह यदि सोयी हुई है ,तो वह विचारक है यदि यह शेष चेतना जागी हुई है तो यही दृष्टा है . सोई हुई चेतना को विचारक या मन कहते हैं ,अहम का विकार कहते हैं ,कई लोग इस अहम भी कहते है।जाग्रत चेतना को ही दृष्टा कहते हैं । यही मूल अहम भाव है इसमें विकार नहीं है, ये विचार रहित है। इसमें सव्येम का आभास मात्र है। इसलिए इसको निर्विकार अवस्था या दृष्टा कहते हैं।
यहां विकार का अर्थ विचार उत्पन अवस्था से है।
फिर विचार क्या है ?
विचार इस चेतना का ही छोटा सा अंश है , विचार विचारक से पृथक नहीं है ,उसी का ही अंश है । विचार विचारक की क्रिया है ,जब आप विचार के साक्षी होंगे ,दृष्टा होंगे तब विचार और विचारक का अस्तित्व ही नहीं रहेगा , सिर्फ आप खालिस जागरूकता होंगे , मूल अहम भाव रहेगा जो दृष्टा है।
तो साक्षी भाव क्या है?
इन सबका मूल ही इन सबका साक्षी है। कोई भाव नहीं, वो तो केवल है सदा से। इस भाव के विषय में केवल बात हो सकती है, इसे थोड़ा बहुत महसूस कर सकते हैं, पर इसमें जबतक हम हैं हम आ नहीं सकते। जैसे सूर्य के विषय में बात कर सकते हैं , उसकी ऊष्मा को महसूस कर सकते हैं, पर उस पर जायेंगे तो हम समाप्त हो जाएंगे। वैसे ही साक्षी भाव है , यही आत्मा है यही परमात्मा है। इसे गीता में उपदृष्टा कहा है,भगवान कृष्ण कहते हैं ।
उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः ।
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः ।।
जो पीछे के कर्मो के गणित के अनुसार हो रहा है। आप किसी चीज को पकड़ों मत केवल दर्शक बन देखो जैसे आप मूवी देखते हो और केवल पॉपकॉन खाकर आनंद लेते हो ठीक वैसे ही आप अपने स्वभाव में स्थित होकर पृथ्वी रूपी रंगमंच पर विभिन्न पात्रों द्वारा किए जा रहे अभिनय का केवल आप आनंद लो मगर याद रखिए कि आप भी इस धरा पर अभिनय ही कर रहे तो आपको भी बिना कुछ दिल पर लिए बिना किसी बात को गलत या सही माने लोगों के हर व्यवहार को नाटक का हिस्सा मानते हुए अपने आत्म भाव में या साक्षी भाव में स्थित रहना है । जिस तरह पारदर्शक कांच में सूरज का प्रकाश आर पार हो जाता है कोई स्पष्ट प्रतिबिंब नहीं बनता जबकि कांच के एक हिस्से की कलई कर दी जाती है तो उस पर जब सूरज का प्रकाश पड़ता है तब प्रकाश का परावर्तन होता है और वस्तु का प्रतिबिंब बनता है। समझना यहां ये है कि आपका विरोध ही माया या भ्रम की रचना कर आपके संसार की रचना करता है जबकि आपका स्वीकार भाव बूंद के अस्तित्व को बनने ही नहीं देता क्योंकि जो बूंद सागर में समा गया वह तो सागर ही हो जाता है । इसलिए साक्षी भाव में जीने का अर्थ है कि आप स्वयं को ब्रह्म स्वरूप में स्थित होकर जी रहे हो । जहां न कोई संसार है , न माया, न भ्रम, न देह , न सुख, न दुख, न अपमान का भय है, न प्रशंसा की चाहत केवल आप ही आप हो और दूसरा कोई हैं नहीं ,हर रूप में केवल आप ही आप हो। जो स्वयं ही खेल की रचना किए हैं और स्वयं ही अनंत रूपो में होकर उस खेल का आनंद ले रहे है । खेल के निर्माता भी आप, खेल का खिलाड़ी भी आप , दर्शक भी आप और अंपायर भी आप।
आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः।
नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति ।।
आलस्य मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है और यह घातक शत्रु, उसके शरीर में ही निवास करता है।" कर्म मनुष्य का विश्वस्त मित्र है और उसे निश्चित रूप से अधोपतन से बचाता है। मुख्य शारीरिक कार्य जैसे भोजन ग्रहण करना, स्नान करना तथा शरीर को स्वस्थ बनाए रखने के लिए कर्म करना अनिवार्य होता है। इन अनिवार्य कर्मों को नित्यकर्म कहा जाता है। शरीर को सुचारु रूप से क्रियाशील रखने वाले इन कार्यों की उपेक्षा करना उचित नहीं है अपितु ये आलसी होने का संकेत है जो मन और शरीर दोनों को क्षीण और दुर्बल करता है। दूसरी ओर शरीर की देखभाल और पोषण करना आध्यात्मिकता के मार्ग में सहायक है। इस प्रकार अकर्मण्यता न तो भौतिक और न ही आध्यात्मिक उपलब्धि की साधिका है। अपनी आत्मा के उत्थान के लिए हमें अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। वे हमारे मन और बुद्धि को उन्नत और पवित्र करने में सहायता करते हैं।
अंत में-
सान्द्रानन्दपयोदसौभगतनुं पीताम्बरं सुंदरं
पाणौ बाणशरासनं कटिलसत्तूणीरभारं वरम् ।
राजीवायतलोचनं धृतजटाजूटेन संशोभितं
सीतालक्ष्मणसंयुतं पथिगतं रामाभिरामं भजे ॥
जिनका शरीर जलयुक्त मेघों के समान सुंदर (श्यामवर्ण) एवं आनंदघन है, जो सुंदर (वल्कल का) पीत वस्त्र धारण किए हैं, जिनके हाथों में बाण और धनुष हैं, कमर उत्तम तरकस के भार से सुशोभित है, कमल के समान विशाल नेत्र हैं और मस्तक पर जटाजूट धारण किए हैं, उन अत्यन्त शोभायमान श्री सीताजी और लक्ष्मणजी सहित मार्ग में चलते हुए आनंद देने वाले श्री रामचन्द्रजी को मैं भजता हूँ॥