कृष्णभक्त उद्धव जी की जीवन- चरित

Sooraj Krishna Shastri
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कृष्णभक्त उद्धव जी की जीवन- चरित

       उद्धव जी के साथ प्राचीन वृष्णि- वंश जुड़े है। 'वृष्णि' अथवा 'अहीर' वंश एक वैदिक भारतीय 'कुल', जिनका निकास 'यदु' के वंशज 'वृष्णि' से है। ऐसा माना जाता है कि 'ययाति' के पुत्र 'यदु' और यदु के पुत्र 'सात्वत'। 'वृष्णि' उस सात्वत के पुत्र थे। 'यदु' के नाम से 'यदुवंश' और उन से 'यादव- कुल' और इसीलिए वृष्णि- वंशज वाले 'यादव- कुल' के 'यादव' है। वृष्णि की दो पत्नियाँ थी-- 'गांधारी' और 'माद्री'। माद्री की गर्भ से जन्म एक पुत्रका नाम 'देवमीढ़' या 'देवमीढुष', जिसके पोते कृष्ण के पिता 'वसुदेव' थे। उद्धव जी वसुदेव के छोटे भाई 'देवभाग' के पुत्र होने के नाते वह भी वृष्णि- वंशीय थे।


      ऐसे भी उद्धव जी के जन्म- परिचय को लेकर तीन मतों में से एक है-- श्रीकृष्ण के चाचा जी 'देवभाग' के सुपुत्र उद्धव जी, जो कृष्ण से आयु में थोड़े बड़े थे और उनका असली नाम 'बृहदबल' था। दूसरे मत के अनुसार उनके पिता का नाम 'उपंग' और तीसरे मत से वे 'सत्यक' के पुत्र तथा कृष्ण के 'मामा' हैं। इन्ही तीनो मतों से उद्धव जी कृष्ण के चचेरे भाई होने की मत में अधिक दम है।।

        मामा कंस के निधन के बाद कृष्ण ने नाना जी उग्रसेन को उनका राजमुकुट लौटाकर, उस मथुरा राज्य का मंत्री पद के लिए सुयोग्य उद्धव जी को चुना था। कृष्ण- बलराम तो ऐसे ही जन्म से सर्वविद्या- सम्पर्ण थे; फिर भी दोनों भाई राजघराने की रीति- रिवाज के अनुसार कुछ वर्षों तक संदीपन मुनि के आश्रम में उनके शिष्य बनकर विद्या- शिक्षा की थी। उस समय द्वारका निर्माण नहीं हुआ था। अतः आश्रम- शिक्षा पूर्ण होने के बाद दोनों भाई मथुरा को लौटकर कुछ काल राज्य तथा प्रजाओं के सुरक्षा तथा उन्नति में लगे रहे थे।।

        ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार साक्षात बृहष्पति के शिष्य उद्धव जी योग और ब्रह्मविद्या के ज्ञाता होने के साथ- साथ युद्ध विद्या में भी निपुण थे। उनके योद्धा होने की प्रमाण-- जरासन्ध का आक्रमण के समय युद्ध में उनका अपूर्व सामर्थ्य प्रदर्शन था। बाल्य- काल में देवगुरु बृहस्पति से उन्हें ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति हुई थी और वे निरंतर निराकार और निर्गुण ब्रह्म की उपासना करते थे। गुरु बृहष्पति ने खुद उन्हें बताया था कि उनका छोटे भाई श्रीकृष्ण स्वयं मानव- लीलाधर विष्णु भगवान हैं। किंतु उद्धव जी को अपनी ज्ञान के प्रति अभिमान के कारण वह कृष्ण से मोह नहीं रखे और निराकर की उपासना को ही सच्चा मार्ग मानकर चले थे। इस रहस्य को कृष्‍ण भी जानते थे और ये भी जानते थे कि आगे सही समय आने से उद्धव जी की अभिमान स्वतः दूर हो जाएगी।।

      स्थिति वशः 'नन्दग्राम' से नन्दबाबा ने सपरिवार 'गोकुल' को पधारे थे, जंहा से कृष्ण- बलराम का गोप- गोपियों के साथ 'बाल्यलीला' सुरु हुई थी। किन्तु मथुरा राजा कंस का अत्याचार जब बढ़ गया, तब दोनों बालकों तथा प्रजाओं के सुरक्षा के लिए परिबारजन तथा गोपो- गोपियों को साथ लेकर नन्दबाबा ने 'ब्रज' अंतर्गत 'वृंदावन' को ही वासस्थान बनाया था। वैष्णवों के भक्ति ग्रन्थों के वर्णनानुसार वृन्दाबन के नैसर्गिक परिवेश में ही बाल्य- सखी राधा और गोपांगनाओं के साथ कृष्ण- कान्हा के 'प्रेमरास' की अभूतपूर्व दृश्य बनी थी। किन्तु कुछ दिन के बाद मामा कंस से आहूत होकर कृष्ण- बलराम को मंत्री अक्रूर जी के साथ वृंदावन से मथुरा नगरी तक जाना पड़ा था। फिर वंहा दोनों भाईओं ने रंगसभा में मल्ल वीरों का निधन करने के बाद, स्वयं कृष्ण ने मामा कंस का बध किया था। इसीके बाद दोनों भाई ने वंहा से कभी ब्रजभूमि की और लौट नहीं पाए थे।।

       इस अवसर में मथुरा- राजा उग्रसेन जी के मंत्री उद्धव जी के लिए नियत समय आ गया था। प्रवास में रहते हुए कुछ दिनों के बाद जब श्रीकृष्ण जी को अपने ब्रजवासी पोष्य- माता- पिता तथा सखी- गोपांगनाओं के विरह- दु:ख का स्मरण हुआ, तब माता- पिता को सांत्वना देकर प्रसन्न करने तथा गोपियों के वियोग- ताप को शान्त करने के लिए बुद्धिमान मंत्री उद्धव जी को ही वंहा भेज दिया था।।

      सहर्ष उद्धव जी कृष्ण के सन्देश बहन कर वृंदावन में पधारे थे। और वंहा नन्दबाबा, यसोदा मया तथा गोपों और गोपियों को वाक्चातुर्य में प्रसन्न करते हुए, उनके अतिथि बनकर कुछ महीनों अटक गए थे। इसी अवधि में वंहा कृष्ण के प्रति गोपवासिओं के अटूट श्रद्धा तथा गोपियों के कान्ताभाव के अनन्य अनुराग को प्रत्यक्ष अनुभव कर उद्धव जी क्रमशः प्रभावित हुए थे। वे राधारानी और गोपियों को कृष्ण का यह सन्देश सुनाए थे कि-- "तुम्हें मेरा वियोग कभी नहीं हो सकता, क्योंकि मैं आत्मरूप हूँ, सदैव तुम्हारे पास हूँ। मैं तुमसे दूर इसीलिए हूँ कि तुम सदैव मेरे ध्यान में लीन रहो। तुम वासनाओं से शून्य, शुद्ध मन से मुझ में अनुरक्त रहकर मेरा ध्यान करने में शीघ्र ही मुझे प्राप्त करोगे।" वस्तुतः ऐसी तरीके से कृष्ण ने उद्धव को ब्रजवासियों के लोकोत्तर प्रेम का प्रत्यक्ष दर्शन कराना चाहते थे।।

        प्रथम साक्षात में राधारानी और गोपियाँ उद्धव जी को ज्यादा ध्यान नहीं देते थे। उद्धव जी भी हार मानने वाले से नहीं थे। वे उन्हें लगातार कृष्ण- कथा सुनाये जा रहे थे। उनके इस कोसिस से जब से गोपियों को विश्वास हो गया था कि-- उद्धव जी उनके कान्हा की प्रिय सखा होने के नाते वंहा सिर्फ उनके लिए ही आये है, तब उन्होंने उनको घेर कर बारबार उनके प्राणप्रिय श्यामसुंदर की समाचार पूछना सुरु किया था।।

       उद्धव जी उनको विभिर्ण रूपकल्प के माध्यम समझाते थें-- "कान्हा- सखी गोपियों, कृष्ण तो सर्वव्यापी, वे तुम्हारे हृदय में तथा समस्त जड- चेतन में व्याप्त हैं। उनसे तुम्हारा वियोग कभी हो ही नहीं सकता। उनमें भगवद्बुद्धि करके तुम सर्वत्र उनको ही देखो।" गोपियां रो- रो कर बोलते थे-- "उद्धव जी! आप ठीक कहते हैं। हमें भी सर्वत्र वे मयूर- मुकुटधारी ही दीखते हैं। यमुना पुलिन में, वृ़क्षों में, लताओं में, कुंजों में, सर्वत्र वे कमललोचन ही हमें दिखायी पड़ते हैं। उनकी वह श्याम मूर्ति हृदय से एक क्षण को भी हटती नहीं।।" 

       उद्धव जी तो पहले से ही ब्रह्मवादी उदासी थे किंतु गोपियों से ऐसी अपूर्व कृष्णप्रेममय- भाव- विह्वलित भक्तिरस को हॄदगत कर स्वयं विगलित हो जाते थे। उद्धव जी से प्रियतम कान्हा की ऐसी कांत- मधुर- सन्देश को हृदय में स्थापन कर, अति प्रसन्नचित्त गोपियों को शुद्ध ज्ञान प्राप्त हुआ था। उन्होंने प्रेमविह्वल होकर कृष्ण के मनोहर रूप और ललित लीलाओं का स्मरण कर अपनी घोर वियोग- व्यथाको प्रकट करते थे। फिर भावातिरेक की स्थिति में कृष्ण से ब्रज के उद्धार की प्रार्थना भी करते थें। उद्धव जी से बारबार प्रियतम का सन्देश सुनकर उनका विरह- ताप शान्त हो गया था। उन्होंने श्रीकृष्ण को इन्द्रियों का साक्षी परमात्मा जानकर उद्धव जी के भली- भाँति पूजन और आदर- सत्कार करने में जुट गए थे। उद्धव जी ऐसे कई महीनों तक गोपियों का शोक- नाश करते हुए बृन्दावनवासी हो गए थे।

      इस दौर में गोपियों ने उद्धव जी को कहे थे-- "उद्धव जी! हम जानते हैं कि संसार में किसी की आशा न रखना ही सबसे बड़ा सुख है; फिर भी हम हमारे कान्हा के लौटने की आशा छोड़ने में असमर्थ हैं। उनके शुभागमन की प्रतीक्षा ही तो हमारा जीवन है। यहाँ का सभी जगह की एक- एक धूलिकण उनके चरण चिह्नों से चिह्नित है। हम मरकर भी किसी प्रकार उन्हें नहीं भूल सकते हैं।।" 

       गोपियों के अलौकिक प्रेम- भाव को देखकर ही उद्धव जी के 'अहंकार' विनष्ट हुआ था। कृष्णप्रेम- भक्ति से भावविभोर गोपियों से उद्धव जी इतने प्रभावित हुए थे कि उन्होंने सभी गोपियों को मातृ ज्ञान कर उनके चरणरज की वन्दना की थी। इस प्रकार कृष्ण के प्रति ब्रजवासियों के अभूतपूर्व प्रेम- भाव की सराहना करते- करते खुद कृष्णभक्त बने हुए उद्धव जी ने कुछ महीनों के बाद नन्दबाबा, गोपो तथा गोपियों से कृष्ण के लिए अनेक भेंट लेकर मथुरा लौटे थे।

       मथुरा में कुछ काल बीतने के बाद कृष्ण को समर्पित भक्त उद्धव जी ने कृष्ण- बलराम तथा यादवों के साथ वंहा से पश्चिमी समुद्रतट को पधारे थे। वंहा द्वारका- निर्माण के बाद कृष्ण ने द्वारकाधीश बनकर राज्यकार्यों में सहायता के लिए उद्धव जी को नियुक्त किया था। आगे कृष्ण जी को जब पांडवों के लिए हस्तिना जाना हुआ, तब से उनके वंहा लौटने तक श्रीबलराम जी के साथ उद्धव जी के माथे पर राज्यभार  संभालने की दायित्व पड़ा था।

       बहुत वर्षों के बाद जब द्वारका में अपशकुन दिखाई पड़ा, तब उद्धव जी ने पहले ही कृष्ण के गोलोकधाम लौटने का अनुमान कर लिया था। तब उन्होंने भगवान कृष्ण जी के चरणों में प्रार्थना की थी-- "महाप्रभो! आपके पोषण में जीवित और आपसे मिली ज्ञान से शुद्धपुत ये उद्धव तो आपका चरणदास बन गया है; इस अकिंचन को आप त्याग न कर, अपने साथ ही अपने धाम को ले चलें तो वंहा आपकी सेवा करने के लिए आपके भक्त को अवसर मिलेगा।" उस समय कृष्ण जी ने उद्धव जी को मृत्युपरांत वैकुंठ प्राप्ति की आश्वासन दिया था। फिर कृष्ण जी ने धर्म को लेकर उद्धव जी के सभी शंकाओं को दूर कर, योग की मोक्षमार्ग के साथ तत्त्वज्ञान का उपदेश किया था, जो 'उद्धव गीता' या 'अवधूत गीतार्ध' नाम से प्रसिद्ध हैं। इसी के बाद कृष्ण के उपदेश से बाकी आयु- काल बिताने के लिए उद्धव जी वंहा से बद्रिकाश्रम को पधारे थे।

       कृष्ण जी के प्रति गांधारी के श्राप फलीभूत होना था। इसीलिए अपशकुन के बाद द्वारका में यादवों के 'कुल- नाश' हो गया था। तो नियति की ऐसी विधान से कृष्ण को भी दुःख पहुंचा और इस स्थिति में इन्द्रादि देवगणों के अनुरोध पर जब कृष्ण का वैकुंठ को लौटने की समय हो गया, तब वे बदरिकाश्रम में स्थित उद्धव को भी वंहा ले जाने की इच्छा प्रकट किया था। तत्वज्ञान सुनाने के बाद कृष्ण ने उद्धव को उसके बारे में भी बताया था कि वह 'वसु' नामक देव के अवतार और इस जन्म में उद्धव के रूप में उनका ये अंतिम मानव लीला है। आगे कृष्ण जी पाताली होने के बाद भाई बलराम जी के साथ गोलोक को सिधर गए और तपस्यारत उद्धव जी को भी वैकुंठ प्राप्ति हुआ था।

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