छिति जल पावक गगन समीरा । पंच रचित यह अधम शरीरा ।।
अर्थात्, पृथ्वी, जल, वायु, आकाश, अग्नि, इन पांचों तत्वों से मिलकर बना यह अधम शरीर है ।
यह पांचों तत्व परमात्मा के ही है , आप अपने शरीर को पहले समझिए, इस शरीर में समस्त सामग्री किसकी लगी है । जो अज्ञानतावश हम अपना माने बैठे हैं। जीव परमात्मा का ही है । इसी को हमेशा मानने का प्रयत्न करें । इसी का विचार करें , तो सर्वकर्ता परमात्मा ही तो है ,हम तो अज्ञानतावश दण्ड के पात्र बनते जा रहे हैं, जो अपना मान लेते हैं ।जबकि अपना तो कुछ भी नहीं है ,यदि है तो कहा है कैसे है।
अपना तो कोइ है नहीं देखा ठोक बजाय ।
अपना अपना क्या कहे मोह भ्रम लपटाय ।।
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छिति जल पावक गगन समीरा! पंच रचित यह अधम शरीरा ।। |
यदि अपना हमें कुछ भी दिखाई दे रहा है तो वह हमारी घोर अज्ञानतावश के कारण ।
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति ।।
क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग
समाने वृक्षे पुरूषो निमग्नोऽनीशया शोचति मुह्यमानः।
जुष्टं यदा पश्यत्यन्यमीशमस्य महिमानमिति वीतशोकः।।
जीव रूपी वृक्ष के घोंसले में दो जीव रहते हैं। वे आत्मा और परमात्मा हैं। जीवात्मा परमात्मा की ओर पीठ किए हुए है और वृक्ष के फलों को भोगने में मगन हैं। जब मीठे फल आते हैं तो यह सुख का अनुभव करती है और जब फल कड़वे आते हैं तो तब दुखी हो जाती है। परमात्मा जीवात्मा का मित्र है लेकिन वह हस्तक्षेप नहीं करता और वह केवल बैठकर देखता रहता है। यदि जीवात्मा अपनी पीठ परमात्मा की ओर से हटाकर उनके सम्मुख हो जाती है तब उसके सभी कष्ट समाप्त हो जाते हैं।" जीवात्मा भगवान के सम्मुख होने या विमुख रहने के लिए स्वतंत्र है। इस स्वतंत्रता के अनुचित प्रयोग से जीवात्मा बंधन में फंस जाती है जबकि इसका सदुपयोग करना सीखकर यह भगवान की नित्य सेवा प्राप्त कर सकती है और असीम आनन्द पा सकती है।
हिय फाटहुँ फूटहुँ नयन, जरउ सो तन केहि काम।
द्रवहिं नहिं पुलकइ नहीं, तुलसी सुमिरत राम॥
तुलसीदास कहते हैं कि श्रीराम का स्मरण करके जो हृदय पिघल नहीं जाते वे हृदय फट जाएँ, जिन आँखों से प्रेम के आँसू नहीं बहते वे आँखें फूट जाएँ और जिस शरीर में रोमांच नही होता वे वह जल जाएँ, (अर्थात् ऐसे निकम्मे अंग किस काम के? )।
एक कहानी सुनाता हूं —एक इंसान नरक में अपने दुख-दर्द भुगत रहा था, उसने भगवान से माफी मांगी कि मुझे इस नरक से बाहर निकालो , जो तुम कहोगे मैं करूंगा l भगवान ने उसे एक पिँजरे में डाल दिया l कहा इसमें कुल 84 दरवाजे हैं, उसमें से एक दरवाजा बाहर निकलने का है, वो तुम ढूंढ लो और बाहर निकल जाओ। मनुष्य गति का वो एक 84 वां दरवाजा है, जहां आप और हम सभी बैठे है ।
इंसान बहुत खुश हुआ कि 84 दरवाजों में से एक बाहर के लिये भी है। वो एक-एक दरवाजा ढूंढ़ते-ढूंढ़ते आगे बढ़ता गया। उसने 83 दरवाजे पार कर लिये l इतने में उसे जोरों की भूख लगी। उसने सोचा - पहले कुछ खा लूं, पेट भर लूं। दरवाजा तो मिल ही जायेगा। खाते-खाते वो बेवकुफ 84वें दरवाजे के पास जाकर भी भूल गया कि आगे का दरवाजा ही उसकी मुक्ति है, भूल गया वो कहां तक पहुंचा था, और फिर से पहले दरवाजे से शुरुआत की और ढूंढ़ता ही रहा।
प्रनतपाल रघुनायक करुनासिंधु खरारि।
गएँ सरन प्रभु राखिहैं तव अपराध बिसारि।।
जीवन मे तुमने कितने ही अपराध क्यो न किये हो, यदि तुम एक बार भी सच्चे मन से भगवान के शरण हो जाओ तो वे तुम्हारे सारे अपराधो को भुलाकर तुम्हे सदा के लिये अपनी गोद मे बिठा लेंगे, वे दया के समुद्र है।
हम अपने दुख-दर्द भुगत रहे है l भगवान ने हमें मुक्ति का रास्ता भी बताया है कि नाम-सिमरन करो और मुक्ति पाओ। इंसान नाम दान /दीक्षा भी लेता है। बाहर निकलने के लिए मुक्ति का रास्ता भी पता है। कोशिश भी करता है। पर दुनियादारी में बहुत ही व्यस्त हो जाता है, खाने-पीने में बहुत ही व्यस्त हो जाता है। क्योंकि वो सोचने लगता है कि मुक्ति तो बाद में भी मिल ही जाएगी। भगवान ने रास्ता बताया है ना। पहले खा तो लूं, ऐश तो कर लूं। और साथ में यह मैं हूँ, यह मेरा है, यह उसका है, यह अच्छा है, यह बुरा है, इस प्रकार राग-द्वेष का निर्माण कर लेता है l इस कारण नरक में फंसता ही चला जाता है। और मुक्त नहीं हो पाता। वो आज भी '84 के पिंजरे' में फंसा हुआ है। और उसमें और फंसता ही जा रहा है।
जन्म मरण के बंधन से ही मुक्त होने के लिए सांसारिक कर्म, सत्कर्म करते हुए अपने हृदय में प्रेम और विश्वास रखकर प्रभु श्री हरि का सुमिरण और गुणगान करो l
हर जगह ईश्वर है, सब मे ईश्वर है इसका ध्यान रखते हुए व्यवहार करते हुए, हर सांस में प्रभु श्री हरि का सुमिरण करते रहना चाहिए। प्रभु को अपना मान कर उनकी शरणागति स्वीकार कर, उनके बताये मार्ग पर चलने से आप जन्म मरण के बंधन से ही मुक्त हो सकते हैं।
महाभूतन्यङकारो बुद्धिरव्यक्तमेव च ।
इन्द्रियाणि दशाकं च पञ्च चन्द्रियगोचरा: ।।
कार्य क्षेत्र को बनाने वाले चौबीस तत्व हैं: पंचमहाभूत (पांच स्थूल तत्व - पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश), पंचतन्मात्राएँ (पाँच इन्द्रिय विषय - स्वाद, स्पर्श, गंध, दृष्टि और ध्वनि), पाँच कर्मेन्द्रियाँ (वाणी, हाथ, पैर, जननांग और गुदा), पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ (कान, आँख, जीभ, त्वचा और नाक), मन, बुद्धि, अहंकार और प्रकृति (भौतिक ऊर्जा का मूल रूप)। श्रीकृष्ण ग्यारह इन्द्रियों को इंगित करने के लिए दशैकम् (दस और एक) शब्द का प्रयोग करते हैं। इनमें वे मन के साथ-साथ पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और पाँच कर्मेन्द्रियाँ भी सम्मिलित करते हैं।
किसी को आश्चर्य हो सकता है कि पाँच इंद्रिय विषयों को क्रिया-क्षेत्र में क्यों शामिल किया गया है, जबकि वे शरीर के बाहर विद्यमान हैं। इसका कारण यह है कि मन इंद्रिय विषयों का चिंतन करता है और ये पाँच इंद्रिय विषय मन में सूक्ष्म रूप में रहते हैं। इसीलिए, सोते समय जब हम अपने मन से स्वप्न देखते हैं, तो स्वप्न अवस्था में हम देखते हैं, सुनते हैं, अनुभव करते हैं, स्वाद लेते हैं और सूँघते हैं, भले ही हमारी स्थूल इंद्रियाँ बिस्तर पर आराम कर रही हों। यह दर्शाता है कि इंद्रियों के स्थूल विषय भी सूक्ष्म रूप में मानसिक रूप से विद्यमान रहते हैं। श्रीकृष्ण ने उन्हें यहाँ शामिल किया है क्योंकि वे आत्मा के संपूर्ण क्रिया-क्षेत्र की बात कर रहे हैं। कुछ अन्य शास्त्र शरीर का वर्णन करते समय पाँच इंद्रिय विषयों को छोड़ देते हैं। इसके स्थान पर, वे पाँच प्राणों को शामिल करते हैं । यह केवल वर्गीकरण का विषय है, न कि दार्शनिक मतभेद का।
इसी ज्ञान को आवरणों के रूप में भी समझाया गया है। शरीर के क्षेत्र में पाँच कोष (आवरण) हैं जो भीतर स्थित आत्मा को ढकते हैं:
अन्नमय कोष:
यह स्थूल आवरण है, जिसमें पाँच स्थूल तत्व (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश) शामिल हैं।
प्राणमय कोष:
यह प्राण-वायु कोश है, जिसमें पाँच प्राण वायु ( प्राण, अपान, व्यान, समान और उदान ) शामिल हैं।
मनोमय कोष:
यह मानसिक आवरण है, जिसमें मन और पाँच कर्मेन्द्रियाँ (वाणी, हाथ, पैर, जननांग और गुदा) शामिल हैं।
विज्ञानमय कोष :
यह बौद्धिक आवरण है, जिसमें बुद्धि और पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ (कान, आँख, जीभ, त्वचा और नाक) शामिल हैं।
आनन्दमय कोष:
यह आनन्दमय कोष है, जिसमें अहंकार शामिल है, जो हमें शरीर-मन-बुद्धि तंत्र के छोटे आनन्द के साथ पहचान कराता है।