भव सागर चह पार जो पावा। राम कथा ता कहँ दृढ़ नावा॥
संसार रूपी सागर का पार पाना चाहते हो तो उसके लिए तो श्री राम जी की कथा दृढ़ नौका के समान है।
वस्तु अमोलक दी मेरे सतगुरु, कर किरपा अपणायो।
जनम-जनम की पूँजी पाई, जग मैं सबै खोवायो।
खरचै न खुटै, कोई चोर न लूट, दिन-दिन बढ़त सवायो।
सत की नाव खेवटिया सतगुरु, भवसागर तरि आयो।
‘मीरा’ के प्रभु गिरधर नागर, हरष-हरष जस गायो।
मीराबाई कहतीं हैं कि अपने गुरु (सतगुरु) से राम नाम का अनमोल धन प्राप्त हुआ है। इस धन को पाने के बाद, उन्होंने जन्मों-जन्मों की पूँजी पा ली है, जिसे संसार में सब कुछ खोकर भी प्राप्त किया जा सकता है। यह धन न तो खर्च होता है और न ही कोई चोर इसे लूट सकता है, बल्कि यह दिन-ब-दिन बढ़ता ही जाता है।
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भव सागर चह पार जो पावा। राम कथा ता कहँ दृढ़ नावा॥ |
मीराबाई कहती हैं कि उनके सतगुरु ने उन्हें सत्य की नाव दी है, जिस पर सवार होकर उन्होंने भवसागर (संसार) को पार कर लिया है। वे अपने प्रभु गिरधर नागर (कृष्ण) की महिमा का हर्षित होकर गान करती हैं।
यावत्पवनो निवसति देहे, तावत् पृच्छति कुशलं गेहे ।
गतवति वायौ देहापाये, भार्या बिभ्यति तस्मिन्काये ॥
जब तक शरीर में प्राण रहते हैं तब तक ही लोग कुशल पूछते हैं। शरीर से प्राण वायु के निकलते ही पत्नी भी उस शरीर से डरती है ।
भजगोविन्दं भजगोविन्दं, गोविन्दं भजमूढमते ।
नामस्मरणादन्यमुपायं, नहि पश्यामो भवतरणे ।।
गोविंद को भजो, गोविन्द का नाम लो, गोविन्द से प्रेम करो क्योंकि भगवान के नाम जप के अतिरिक्त इस भव-सागर से पार जाने का अन्य कोई मार्ग नहीं है ।
संत सहहिं दु:ख पर हित लागी।
पर दु:ख हेतु असंत अभागी॥
भूर्ज तरू सम संत कृपाला।
पर हित निति सह बिपति बिसाला।।
संत दूसरों की भलाई के लिए दुःख सहते हैं और अभागे असंत दूसरों को दुःख पहुँचाने के लिए कष्ट सहते हैं।
कृपालु संत भोज वृक्ष के समान दूसरों के हित के लिए भारी विपत्ति सहते हैं अपनी खाल तक उधड़वा लेते हैं।
जिस प्रकार भोजपत्र का पेड़ अपनी छाल को आसानी से उतारने देता है, जिससे लोग उसका उपयोग लिखाई-पढ़ाई या अन्य कार्यों के लिए कर सकें, उसी प्रकार संत भी अपने सुख-दुःख की परवाह किए बिना दूसरों की सेवा करते हैं और उनकी मदद करते हैं।
ऐसे ही संत होते हैं । दूसरों का दुःख देखकर वह सहन नहीं कर पाते । वह जानते हैं , उन्हें पता है कि यह अवसर चूक जाने पर क्या क्या नारकीय योनियों में क्या क्या पीड़ाएँ भोगनी पड़ती है ।
यह यश , धन , दौलत , सुंदर स्त्री , यशस्वी पुरुष , यशस्वी पुत्र , अरबों की भूमि , साम्राज्य , बड़ी बड़ी अट्टलिकायें सब किसी काम की नहीं रहती , जब आँख बंद हो जाती है ।
जिस क्षण आँख बंद हुई कि आजीवन परिश्रम किया हुआ सब कुछ स्वाहा हो जाता है , मिट्टी के समान बन जाता है ।
भले कितने ही पुत्र क्यों न हों , उर्वशी अप्सरा जैसी मनमोहिनी स्त्री ही क्यों न हो , सब कुछ एक क्षण में कूड़ा बन जाता है ।
यह भूमि जो आज आपकी है , इसे अनंत लोगों ने अपना मान कर इसके लिए युद्ध लड़ा है और अपना जीवन दुःखमय कर लिया है ।
यह जो कुत्ते गली गली में , कॉकरोच नालियो में रेंगते देखते हैं न आप लोग , यह उन्हीं की जमीन थी पहले , जो चमगादड़ और कबूतरों का झुंड देखते हैं किसी भी पुरानी इमारतों में सब वही हैं । आपकी तरह कितने आये और इस पृथ्वी पर आपसे बड़े बड़े अट्टलिकायें महलें बनाकर चले गए । उनसे सब यहीं रखवा लिया गया । और जो इसके बनाने में चार सौ बीसी की थी , उसका दण्ड कई गुना इनको ही भोगना पड़ा ।
बहुत दुःख है इस संसार में है।
नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि।
अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्।
कर्म, चाहे शुभ हो या अशुभ, बिना भोगे समाप्त नहीं होता, भले ही करोड़ों कल्प बीत जाएं". इसका मतलब है कि किए गए कर्म का फल अवश्य ही भोगना पड़ता है, चाहे वह इस जीवन में हो या अगले जीवन में भोगना तो पड़ेगा ही।
यह संसार दुःखालय है ।
इन दुःखों से पीड़ाओं से बचना हो तो कर्मों में आसक्ति भाव मत रखो, आसक्ति रहित कर्म करो ।
पीड़ा ले लेकर यह सब सामग्रियाँ न इकट्ठी करो ।अपना कर्म करो लेकिन उसमें आसक्ति मत रखो । आसक्ति केवल अपने आत्मा से सम्बंधित अवयव के लिए रखो , क्योंकि तुमसे समय आने पर यह शरीर भी यही रखवा लिया जाएगा , नंगे रह जाओगे ।
उस वक्त सब लुटा हुआ महसूस करोगे जैसे आज अचानक से तुम्हारा कोई 1% भी लूट ले तो आग लग जाती है , वर्षों तक नहीं भुला पाते तो सोचो जिस दिन अचानक से बिना बताए तुमसे तुम्हारा 100% छीन लिया जाएगा तो तुम्हारे पर क्या बीतेगी ???
तो ऐसे धन को इकट्ठा करो कि -
खर्च न खोटे , चोर न लुटे , दिन दिन बढ़त सवायो ।
मेरी बात मान लो सब , उस राम को छोड़कर अन्य कोई उपाय नहीं है , नहीं है , नहीं है ।
जितने जल्दी समझ जाओगे उतने ही जल्दी उस धन को कमाने के लिए जुट जाओगे ।
यावद्वित्तोपार्जनसक्त:,
तावन्निजपरिवारो रक्तः।
पश्चाज्जीवति जर्जरदेहे,
वार्तां कोऽपि न पृच्छति गेहे।।
जब तक व्यक्ति धनोपार्जन में समर्थ है, तब तक परिवार में सभी उसके प्रति स्नेह प्रदर्शित करते हैं परन्तु अशक्त हो जाने पर उसे सामान्य बातचीत में भी नहीं पूछा जाता है॥
भज गोविन्दं भज गोविन्दं,
गोविन्दं भज मूढ़मते।
संप्राप्ते सन्निहिते काले,
न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे॥
हे मोह से ग्रसित बुद्धि वाले मित्र, गोविंद को भजो, गोविन्द का नाम लो, गोविन्द से प्रेम करो क्योंकि मृत्यु के समय व्याकरण के नियम याद रखने से आपकी रक्षा नहीं हो सकती है॥