संस्कृत श्लोक "अनवस्थितचित्तस्य सद्धर्ममविजानतः" का हिन्दी अनुवाद और विश्लेषण
🌞 🙏 जय श्रीराम 🌷 सुप्रभातम् 🙏
आज का श्लोक — “चंचल चित्त, अधार्मिकता और सतही हर्ष से बुद्धि अपूर्ण रहती है” — एक अत्यंत सूक्ष्म और गहन मानसिक एवं बौद्धिक अनुशासन की सीख है।
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संस्कृत श्लोक "अनवस्थितचित्तस्य सद्धर्ममविजानतः" का हिन्दी अनुवाद और विश्लेषण |
✨ श्लोक ✨
अनवस्थितचित्तस्य सद्धर्ममविजानतः ।परिप्लवप्रसादस्य प्रज्ञा न परिपूर्यते ॥
anavasthita-cittasya saddharmam avijānataḥ ।pariplava-prasādasya prajñā na paripūryate ॥
🔍 शब्दार्थ और व्याकरणीय विश्लेषण:
पद | अर्थ | व्याकरणिक विश्लेषण |
---|---|---|
अनवस्थितचित्तस्य | अस्थिर चित्त वाले व्यक्ति का | समास: बहुव्रीहि, षष्ठी विभक्ति |
सद्धर्मम् | सत् (सच्चे) धर्म को | कर्मपद |
अविजानतः | जो नहीं जानता | वर्तमान कृदन्त (ज्ञा + अव = न जाननेवाला) |
परिप्लवप्रसादस्य | जो हल्के में प्रसन्न होता है | समास: बहुव्रीहि, ‘तरल प्रसन्नता’ |
प्रज्ञा | बुद्धिकौशल, विवेक | स्त्रीलिंग |
न परिपूर्यते | पूर्ण नहीं होती | कर्तृवाच्य वाक्य, लट् लकार |
🌿 भावार्थ:
जिसका चित्त स्थिर नहीं है, जो सच्चे धर्म (नीति, तत्त्वज्ञान) को नहीं जानता, और जो थोड़ी-सी सतही प्रसन्नता में मग्न हो जाता है — ऐसे व्यक्ति की बुद्धि (प्रज्ञा) पूर्ण नहीं होती, अर्थात् उसमें विवेक की परिपक्वता नहीं आती।
🌱 आधुनिक जीवन में सार्थकता:
आज के समय में —
- हम तीव्र सूचना के प्रवाह में चित्त को स्थिर नहीं रख पाते,
- सतही सुख (सोशल मीडिया, तात्कालिक मनोरंजन) को ही संतोष समझ बैठते हैं,
- और बिना गहराई से जीवन के सिद्धांत (धर्म/कर्तव्य) जाने जीवन बिता देते हैं।
परंतु इस श्लोक के अनुसार —
ऐसी दशा में “प्रज्ञा” अर्थात् विवेकपूर्ण निर्णय लेने की क्षमता कभी पूर्ण नहीं हो सकती।
🔮 दृष्टांत:
🌊 एक तालाब का जल यदि स्थिर हो, तो उसमें चंद्रमा का प्रतिबिंब स्पष्ट दिखता है।
यदि जल लहराता रहे — चित्त चंचल हो — तो वहाँ सत्य नहीं दिखता।
वैसे ही —
- अस्थिर चित्त → एकाग्रता नहीं
- अधार्मिक जीवन → गहराई नहीं
- सतही हर्ष → आत्म-प्राप्ति नहीं➡️ परिणाम: अपूर्ण बुद्धि, अपूर्ण जीवन।
🌟 शिक्षा / प्रेरणा:
- चित्त को स्थिर करो — ध्यान, स्वाध्याय, मौन।
- सद्धर्म को जानो — गीता, उपनिषद, जीवन की गहराई।
- छोटी चीज़ों से मोहित न हो जाओ — थोड़े में संतुष्ट हो जाना आत्म-विकास की बाधा है।
- प्रज्ञा को विकसित करो — विवेक ही जीवन का प्रकाश है।
📘 सम्बद्ध सूत्र:
-
श्रीमद्भगवद्गीता (2.60–63):"इन्द्रियाणां हि चरताति..." — चंचल मन कैसे बुद्धि को भ्रमित कर देता है।
-
योगसूत्र (1.2) —"योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः" — चित्त को स्थिर किए बिना कोई उपलब्धि नहीं।
🕯️ मनन योग्य वाक्य:
“जहाँ चित्त स्थिर हो, वहीं धर्म प्रकट होता है;जहाँ धर्म होता है, वहीं सच्ची बुद्धि प्रकट होती है।”