संस्कृत श्लोक "यथापि रुचिरं पुष्पं वर्णवच्चाप्यगन्धकम्" का हिन्दी अनुवाद और विश्लेषण

Sooraj Krishna Shastri
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संस्कृत श्लोक "यथापि रुचिरं पुष्पं वर्णवच्चाप्यगन्धकम्" का हिन्दी अनुवाद और विश्लेषण 

🌞 🙏 जय श्रीराम 🌹 सुप्रभातम् 🙏

आज का श्लोक — "सुभाषित और आचरण" — हमें यह सिखाता है कि केवल सुंदर वचन बोलना पर्याप्त नहीं है, जब तक कि वे आचरण में न उतरें। यह नीति-सूक्ति आत्ममूल्यांकन और आचारशीलता का प्रतिबिंब है।

संस्कृत श्लोक "यथापि रुचिरं पुष्पं वर्णवच्चाप्यगन्धकम्" का हिन्दी अनुवाद और विश्लेषण
संस्कृत श्लोक "यथापि रुचिरं पुष्पं वर्णवच्चाप्यगन्धकम्" का हिन्दी अनुवाद और विश्लेषण 



श्लोक

यथापि रुचिरं पुष्पं वर्णवच्चाप्यगन्धकम्।
एवं सुभाषिता वाणी निष्फलाकुर्वतो भवेत्॥

yathāpi ruchiraṁ puṣpaṁ varṇavac cāpy agandhakam |
evaṁ subhāṣitā vāṇī niṣphalā kurvato bhavet ||


🔍 शब्दार्थ और व्याकरणिक विश्लेषण:

पद अर्थ विवरण
यथा अपि यद्यपि उपमा सूचक अव्यय
रुचिरं पुष्पं सुंदर पुष्प विशेष्य-विशेषण
वर्णवत् च अपि रंगों से युक्त होने पर भी संयोजन
अगन्धकम् जिसमें गंध न हो विशेषण
एवं उसी प्रकार उपमा सूचक
सुभाषिता वाणी सुंदर/नीतिवचनयुक्त वाणी स्त्रीलिंग
निष्फला फलरहित विशेषण
अकुर्वतः जो आचरण न करता हो कर्ता के लिए षष्ठी विभक्ति

🪷 भावार्थ:

“जैसे सुंदर और रंगीन फूल, यदि गंधरहित हो तो निरर्थक होता है,
उसी प्रकार सुभाषित वाणी भी उस व्यक्ति के लिए निष्फल होती है जो स्वयं उस पर आचरण नहीं करता।”


🌿 प्रेरणादायक दृष्टांत: “सुभाषित बोल, लेकिन आचरण?” 🌿

एक शिक्षक प्रतिदिन अपने शिष्यों को कहते:

"मिष्ठ भाषण करो, सत्य बोलो, दया रखो।"

परंतु एक दिन शिष्य ने देखा कि वह शिक्षक अपने सेवक से क्रोधित हो कठोर वचन बोल रहे थे।

शिष्य ने विनम्रतापूर्वक कहा:

"गुरुदेव, आज आपने पुष्प तो दिया, पर गंध कहाँ है?"

गुरु लज्जित हुए और बोले:

"वत्स, तूने मुझे स्वयं का ही पाठ याद दिला दिया। आज से वाणी और आचरण को एक करने का प्रयास करूँगा।"


🌟 शिक्षा / प्रेरणा:

  • सुभाषित वही फलदायी है जो व्यवहार में उतरे।
  • ज्ञान और आचरण का मेल ही धर्म है।
  • उपदेश करने से पहले स्वयं पालन करना आवश्यक है — अन्यथा वह केवल 'वर्णवत् अगन्धकं' (रंगीन पर गंधरहित) है।
  • आप जो कहते हैं, वही बनिए — तब ही शब्दों में शक्ति होती है।

🌸 समानार्थक नीति-सूक्ति:

“न वृथा भाषते विद्वान्” — “विद्वान् कभी व्यर्थ नहीं बोलता।”
“किं करोति श्लोकार्धेन — परोपकारः इत्येव” — “सारी नीति का सार: परोपकार।”

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