जीवन, कृतज्ञता और ईश्वर की निष्पक्षता पर एक प्रेरणाप्रद कथा

Sooraj Krishna Shastri
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🕉️जीवन, कृतज्ञता और ईश्वर की निष्पक्षता पर एक प्रेरणाप्रद कथा 🕉️


भूमिका :

मनुष्य का जीवन परमात्मा की एक अनुपम देन है। परंतु जब यह जीवन सहज रूप से प्राप्त होता है और सुख-समृद्धि भी बिना किसी प्रयास के मिलने लगती है, तब हम उसे अपना अधिकार समझ बैठते हैं। कृतज्ञता का भाव नष्ट हो जाता है और शिकायतों का अम्बार लग जाता है। यह कथा इसी मनोवृत्ति को उजागर करती है।


कथा प्रारम्भ :

एक बहुत ही धनवान व्यक्ति था, जिसके पास अपार संपत्ति थी। परंतु वह केवल धनवान ही नहीं था, दयालु और परोपकारी भी था। उसने अपने गांव के सभी गरीब लोगों के लिए मासिक सहायता योजना आरंभ कर रखी थी।

  • किसी को 10 रुपये मिलते,
  • किसी को 20 रुपये,
  • किसी को ज़रूरत अनुसार और अधिक।

वे सभी लोग हर माह की पहली तारीख को आकर विनम्रता से अपनी राशि प्राप्त करते थे। वर्षों से यह सेवा बिना किसी प्रदर्शन और अपेक्षा के निरंतर चलती रही

जीवन, कृतज्ञता और ईश्वर की निष्पक्षता पर एक प्रेरणाप्रद कथा
जीवन, कृतज्ञता और ईश्वर की निष्पक्षता पर एक प्रेरणाप्रद कथा 



एक विशेष पात्र : वह अति-गरीब व्यक्ति

उस गांव में एक अत्यंत गरीब व्यक्ति था – बूढ़ा, असहाय, और बड़ा परिवार पालने वाला। उसे हर महीने 50 रुपये मिलते थे। यह उसकी एकमात्र आय थी। वह नियमित रूप से हर पहली तारीख को आता और वह राशि लेकर चला जाता – बिना कोई प्रशंसा या धन्यवाद किए।


एक दिन परिवर्तन हुआ...

एक माह की पहली तारीख आई। वह बूढ़ा व्यक्ति हमेशा की तरह पहुँचा।

परंतु इस बार कुछ बदला हुआ था।

सेठ के मैनेजर ने कहा,

“भैया, इस बार से तुम्हें पचास नहीं, सिर्फ पच्चीस रुपये मिलेंगे। थोड़ा हेरफेर हुआ है।”

बूढ़ा व्यक्ति भड़क उठा।

“क्या मतलब? मैं सालों से पचास लेता आ रहा हूँ। यह अन्याय है! जब तक पचास नहीं मिलेंगे, मैं यहां से हटूंगा नहीं।

मैनेजर ने समझाया –

“बात यह है कि सेठजी की एकमात्र बेटी का विवाह है। बहुत खर्चा आ रहा है – करोड़ों का आयोजन है। इसलिए फिलहाल संपत्ति का थोड़ा पुनर्गठन हुआ है। सभी की राशियाँ थोड़ी-थोड़ी कम की गई हैं।”


भिखारी का क्रोध और प्रतिक्रिया

बूढ़ा क्रोधित होकर बोला:

“तुमने मुझे क्या समझ रखा है? मैं कोई बिरला हूं?
अपनी बेटी की शादी करनी है, तो अपने पैसे खर्च करो, मेरे नहीं।
यह तो मेरा अधिकार है!”

वर्षों से वह मासिक सहायता प्राप्त कर रहा था, धीरे-धीरे उसने उसे अपना अधिकार समझ लिया था, जैसे वह कोई वेतन या विरासत हो

परंतु इतने वर्षों में उसने कभी धन्यवाद नहीं दिया था – न उस अमीर को, न जीवन को, न ईश्वर को।

लेकिन जैसे ही उस सुविधा में कटौती हुई, उसका विरोध मुखर हो उठा।


गंभीर शिक्षाप्रद निष्कर्ष :

🌼 1. कृतज्ञता की अनुपस्थिति और अधिकार का मोह

जो हमें अनायास प्राप्त होता है, हम उसे अपना स्थायी अधिकार मान बैठते हैं।

परंतु क्या हमने कभी उसके लिए कृतज्ञता प्रकट की?

जब जीवन सुखद हो, हम भूल जाते हैं धन्यवाद देना।

जब दुख आता है, हम शिकायती हो उठते हैं।

हम ईश्वर के पास केवल शिकायतें लेकर जाते हैं।

क्या हमने कभी सिर्फ धन्यवाद कहने के लिए भी मंदिर की सीढ़ियाँ चढ़ीं?


🌼 2. परमात्मा की निष्पक्षता

परमात्मा न किसी के पक्ष में है, न विरोध में।

वह निष्पक्ष नियम की भांति चल रहा है।
सज्जन उसकी धारा के साथ बहते हैं, दुर्जन उसके विपरीत खड़े हो जाते हैं।

दुर्जन को अहंकार चाहिए, विरोध चाहिए, संघर्ष में रस है।
सज्जन को समर्पण चाहिए, झुकना आता है, कृतज्ञता का संगीत सुनाई देता है।


🌼 3. अधिकार नहीं, अनुग्रह का अनुभव करें

जो भी कुछ जीवन में मिला है — वह धन हो या संबंध, स्वास्थ्य हो या अवसर, वह सब वरदान है, अनुग्रह है

इसे "मेरा" कहकर न बांधो,
इसे "प्राप्त हुआ" मानकर धन्यवाद देना सीखो।


समापन विचार:

जीवन तुम्हें बहुत कुछ दे रहा है – बिना मांगे, बिना मूल्य के।

परंतु क्या तुमने कभी उसे कृतज्ञता से देखा है?
या केवल तब याद किया है जब कुछ कट गया, छिन गया या बिगड़ गया?

ईश्वर की निष्पक्षता अटल है, लेकिन तुम्हारा नजरिया ही तय करता है – स्वर्ग मिलेगा या दुख।


🌸 सारांश वाणी :

"जिसे धन्यवाद नहीं आता, उसे सुख नहीं टिकता।
जिसे समर्पण नहीं आता, उसे ईश्वर नहीं मिलता।"


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