Brahman: मैं ब्राह्मण क्यों नहीं हूं?
यह प्रश्न नहीं है, यह एक कुण्ठा है, जिससे इस देश का एक बहुत बड़ा वर्ग कुण्ठित है।
इसमें सिर्फ हिंदू ही नहीं वरन् कुछ अन्य मजहब और रिलिजन के लोग भी शामिल हैं।
इस विषय पर कितने ही वीडियो, लेख, ट्विट, फेसबुक, इंस्टाग्राम- सब जगह लिखे गए। सही-गलत के निर्णय दिए गए। लेकिन जो मूल समस्या (core issue) है उस पर किसी ने प्रकाश नहीं डाला।
अब कोर इशू क्या है?- इसको समझने के लिए हमें लगभग 40 वर्ष पीछे जाना पड़ेगा।
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Brahman: मैं ब्राह्मण क्यों नहीं हूं? |
स्वर्गीय कांशीराम जी का एक साक्षात्कार दैनिक जागरण में 1984-85 में छपा था। बहुत ही विस्तृत साक्षात्कार, लगभग पूरा एक पृष्ठ का।
पत्रकार ने उनसे दलितों (अब यह शब्द अपना अर्थ खो चुका है, लेकिन फिर भी चूंकि प्रचलन में है तो मैं भी प्रयोग कर रहा हूं) की स्थिति, दलित सशक्तिकरण, दलितों के “बहुजन समाज” होने के बावजूद उनका सत्ता से दूर रहना, उनकी कठिनाइयां, कुंठाएं इत्यादि इन सभी विषयों पर बात की थी।
उसमें जो सबसे मार्मिक प्रश्न था वह इस प्रकार था-
प्रश्न: ‘आपको दलितों की कौन सी सोच सबसे अधिक उद्वेलित करती है और कष्ट देती है’?
उत्तर : ‘दलितों को हजार समझाने के बाद भी उनके मन से “विकसित” होने का मानदंड बदलता ही नहीं। सबसे अधिक जो बात मुझे उद्वेदित करती है और कष्ट देती है वह यह है कि *हर दलित विकसित होकर ‘ब्राह्मण’ बनना चाहता है’।
काशीराम जी एक अच्छे विचारक थे और उन्हें समाज की बहुत अच्छी समझ थी। उनका उत्तर बहुत ही महत्वपूर्ण है।
उन्होंने आगे कहा था कि दुर्भाग्य यह है कि *सिर्फ दलित ही नहीं अन्य जातियां भी विकसित होकर ब्राह्मण ही बनना चाहती हैं। जब आपका लक्ष्य ही ब्राह्मण बनना है तो ब्राह्मणों की श्रेष्ठता तो आप खुद ही स्थापित कर रहे हैं।
इसी भ्रम को, इसी मानदंड को, इसी सोच को मैं बदलना चाहता हूं’।
इटावा में जो घटना हुई उसके मूल में भी यही है। प्रश्न यह नहीं है कि कौन सी जाति कथा वाचन कर सकती है कौन नहीं कर सकती।
आदिकाल से सभी जातियां कथा वाचन, भक्ति, पूजा करती आ रही हैं। हर जाति में महापुरुष हुए हैं, हर जाति में संत हुए हैं और बहुत महान संत और दार्शनिक हुए हैं, जिनका सम्मान ब्राह्मणों ने भी किया है।
सभी को ईश्वर की आराधना करने और ईश्वर के गुणगान करने का अधिकार है। साधारण भाषा में कहें तो कथा-वाचन ईश्वर का गुणगान है।
परंतु असली प्रश्न यह है कि अपनी जाति को प्रकट करके यह क्यों नहीं किया जा सकता?
किसी दलित को मुकुट मणि ‘अग्निहोत्री’ या किसी यादव को ‘तिवारी’ बनना आवश्यक क्यों है? जब तक यह कुण्ठा बाहर नहीं निकलती तब तक इनका पूर्ण विकास कभी नहीं हो सकता, और इस कुण्ठा से अधिकांश निकल ही नहीं पाते ।
यह आज से नहीं, आदिकाल से है। विश्वामित्र क्षत्रिय थे लेकिन उन्हें भी ब्राह्मण बनना था। शंबूक को भी ब्राह्मण बनना था। मुकुट मणि को भी ‘अग्निहोत्री’ (ब्राह्मण) बनना है। श्रेष्ठता के जो मानदंड ब्राह्मणों ने स्थापित किया अन्य उन्हें ही महानतम मानदंड मानते हैं तो फिर लड़ाई किस बात की है?
मायावती भी ब्राह्मणों की तरह ‘चरण छू’ में सबसे अधिक गौरव महसूस करती हैं।
चंद्रशेखर ‘रावण’ है जिसे यह तक पता नहीं है कि वह ‘रावण’ बनने का प्रयास कर रहा है और रावण स्वयं ब्राह्मण था। रावण कोई साधारण ब्राह्मण नहीं था।
उस युग में उसके समान धनवान, गुणवान, विद्वान, शास्त्रज्ञ, रणनीतिकार और कोई नहीं था। कर्नाटक में ब्राह्मण विरोधी गौरी “लंकेश” को भी “लंकेश” ही बनना था।
मुझे समझ नहीं आता की सारे ब्राह्मण-द्रोही ‘विकसित’ होकर ‘ब्राह्मण’ ही क्यों बनना चाहते हैं?
यदि ब्राह्मणों के बनाए मानदंड ही सर्वश्रेष्ठ हैं तो फिर चुपचाप अपने घर में बैठो ना।
न तो ब्राह्मणों ने अपनी जाति चुनी है और ना आपने। इसमें दोनों का कोई गुण या दोष नहीं है। ना किसी की श्रेष्ठता प्रकट होती है और ना किसी की निम्नता। यह विधि का विधान है या संयोग है कि कौन कहां पैदा हुआ। या यदि पुनर्जन्म और धर्म ग्रंथो को माने तो यह कर्म/प्रारब्ध के अनुसार निर्धारित होता है यानी पूर्व जन्म के कर्म के अनुसार।
मेरी सोच यह है ब्राह्मण बनने की बचाए अपने को इतना श्रेष्ठ करो कि ब्राह्मण स्वयं आपका सम्मान करें। ऐसे अनेक उदाहरण है- माता अमृतानंदमई के चरण लाखों ब्राह्मण छूते हैं, जबकि उनका जन्म शूद्र वर्ण में हुआ था। गंगूबाई हंगल शास्त्रीय संगीत की महान गायिका थीं जिनका जन्म भी शूद्र वर्ण में हुआ था। लेकिन जब इन्होंने गायन की ऊंचाइयों को प्राप्त कर लिया तो अनेकानेक ब्राह्मण इनको अपने घर बुलाकर भोजन कराते थे और सम्मान करते थे, पैर भी छूते थे।
तो भाई जाति छुपाकर ‘अग्निहोत्री’ या ‘तिवारी’ बनने की बजाय ब्राह्मण जैसे श्रेष्ठ गुणों का विकास करो। ब्राह्मण जाति नहीं सद्गुणों की श्रेष्ठता है।
सद्गुणी बनिए, स्वयं ब्राह्मण बन जायेंगे। ऋषि विश्वामित्र ने यही किया था।