Only with a Pure Antahkaran Chatushtaya Can One Realize God | अंतःकरण की शुद्धि से होता है ईश्वर साक्षात्कार

Sooraj Krishna Shastri
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Only with a Pure Antahkaran Chatushtaya Can One Realize God | अंतःकरण की शुद्धि से होता है ईश्वर साक्षात्कार

 अंतःकरण चतुष्टय के शुद्ध होने पर ही ईश्वर के दर्शन होते है, ईश्वर दर्शन करने के लिए जाते समय इन चारों  को शुद्ध  करके जाओ, अंतःकरण के चार प्रकार हैं। 

अंतःकरण जब संकल्प- विकल्प करता है, तब उसे "मन" कहा जाता है, वह अंतःकरण जब किसी वस्तु का निर्णय करता है तो उसे "बुद्धि" कहते हैं, वह अंतःकरण जब- श्रीकृष्ण का चिंतन करता है- तब उसे "चित्त" कहते हैं और उसमें जब क्रिया का अभिमान जागता है तब उसे "अहंकार" कहते हैं, मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार - इन चारों को शुद्ध करो, बिना इन्हें शुद्ध किए परमात्मा के दर्शन नहीं होते, ब्रह्मचर्य के बिना इनकी शुद्धि नहीं होती, ब्रह्मचर्य तभी सिद्ध होता है जब ब्रह्मनिष्ठा होगी।

Only with a Pure Antahkaran Chatushtaya Can One Realize God | अंतःकरण की शुद्धि से होता है ईश्वर साक्षात्कार
Only with a Pure Antahkaran Chatushtaya Can One Realize God | अंतःकरण की शुद्धि से होता है ईश्वर साक्षात्कार


सनत्कुमार ब्रह्मचर्य के अवतार हैं , महाज्ञानी एवं बालक जैसे दैन्यभाव से रहते हैं, नारायण के दर्शनार्थ वैकुण्ठ जाते हैं, जहाँ बुद्धि कुण्ठित होती है वह वैकुण्ठ है , वहाँ काम और काल प्रवेश नहीं पा सकते, वहाँ सात बड़े बड़े दरवाजे हैं।

सनकादि नाम से विख्यात चारों कुमार सनक (पुरातन), सनन्दन (हर्षित), सनातन (जीवंत) तथा सनत् (चिर तरुण) के नाम में ‘सन’ शब्द हैं, बुद्धि को अहंकार से मुक्ति का उपाय सनकादि से अभिहित हैं, केवल चैतन्य ही शाश्वत हैं, चैतन्य मनुष्य के शरीर में चार अवस्था जिसे जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति तथा तुरीय या प्राज्ञ विद्यमान रहती हैं, इस कारण मनुष्य देह चैतन्य रहता हैं। 

इन्हीं चारों अवस्थाओं में विद्यमान रहते के कारणवश चैतन्य मनुष्य को सनक, सनन्दन, सनातन तथा सनत् से संकेतित किया गया हैं, ये चारों कुमार किसी भी प्रकार की अशुद्धि के आवरण से रहित हैं, परिणाम स्वरूप इन्हें दिगंबर वृत्ति वाले जो नित्य नूतन और एक समान रहते हैं “कुमार” कहा जाता हैं।

तत्त्वज्ञ (तत्व ज्ञान से युक्त), योगनिष्ठ (योग में निपुण), सम-द्रष्टा (सभी को एक सामान देखना तथा समझना), ब्रह्मचर्य से युक्त होने के कारण इन्हें ब्राह्मण (ब्रह्मा-नन्द में निमग्न) कहा जाता हैं।

सनत्कुमार छः द्वार पर करके सातवें द्वार पर पहुँचते हैं जहाँ जय - विजय खड़े थे, उन्होंने उन्हें रोका जिसे सुनकर सनकादिक क्रोधित हो गये, क्रोध कामानुज अर्थात काम का छोटा भाई है, अति सावधान रहने पर काम को मारा जा सकता है किन्तु क्रोध को नहीं, काम का मूल संकल्प है, ज्ञानी किसी और के शरीर का चिंतन नहीं करते अतः काम उन्हें पीड़ा नही दे पाता, ज्ञानी का पतन काम द्वारा नहीं बल्कि क्रोध द्वारा होता है। 

छः द्वार पार करके ज्ञानी आगे बढ़ता है किन्तु सातवें द्वार पर जय विजय उसे रोकते हैं, वैकुण्ठधाम के सात दरवाजे योग की सात सीढियां हैं। 

योग के आठ प्रकार -  यम , नियम , आसन , प्राणायाम , प्रत्याहार , ध्यान, धारणा और समाधि ही वैकुण्ठ के सात द्वार हैं।

१. 'यम' -- पांच सामाजिक नैतिकता

अहिंसा – शब्दों से, विचारों से और कर्मों से किसी को हानि नहीं पहुँचाना।

सत्य – विचारों में सत्यता, परम-सत्य में स्थित रहना।

अस्तेय – चोर- प्रवृति का न होना।

ब्रह्मचर्य – ब्रह्मचर्य के दो अर्थ हैं---

               1.चेतना को ब्रह्म के ज्ञान में स्थिर करना।

                2.सभी इन्द्रिय-जनित सुखों में संयम बरतना।

अपरिग्रह – आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना और दूसरों की वस्तुओं की इच्छा नहीं करना।

२. 'नियम' --- पाँच व्यक्तिगत नैतिकता

शौच –शरीर और मन की शुद्धि।

संतोष – संतुष्ट और प्रसन्न रहना।

तप – स्वयं से अनुशासित रहना।

स्वाध्याय – आत्मचिंतन करना।

ईश्वर-प्रणिधान --  ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण, पूर्ण श्रद्धा।

३. 'आसन'--- योगासनों द्वारा शरीरिक नियंत्रण।

४. 'प्राणायाम'--- श्वास- लेने सम्बन्धी खास तकनीकों द्वारा प्राण पर नियंत्रण रखना।

५. 'प्रत्याहार'--- इन्द्रियों को अंतर्मुखी करना।

६. 'धारणा'--- एकाग्रचित्त होना।

७. 'ध्यान'-- निरंतर परमात्मा का ध्यान करना। 

८. 'समाधि'---आत्मा से जुड़ना, शब्दों से परे परम-चैतन्य की अवस्था।

इन्हें पार करने पर ब्रह्म का साक्षात्कार होता है । जिसे समाधि की अवस्था कहा जाता है ।

ध्यान का अर्थ है एक अंग का चिंतन,शरीर आँख को स्थिर रखना ही आसन है।

धारणा का अर्थ है सर्वांग का चिंतन, धारणा में अनेक सिद्धियाँ विघ्न डालती हैं।

जय - विजय प्रतिष्ठा के दो स्वरूप हैं - "सिद्धि और प्रसिद्धि" सर्वांग के चिंतन में सिद्धि -प्रसिद्धि बाधक बनती है।

जय अर्थात् स्वदेश में कीर्ति और विजय अर्थात् परदेश में प्रतिष्ठा, जो लौकिक प्रतिष्ठा मे फँसता है वह ईश्वर से दूर हो जाता है, वैकुण्ठ के सातवें द्वार पर जय - विजय रोकते हैं,  जय - विजय का अर्थ है "कीर्ति और प्रतिष्ठा" अर्थात् मनुष्य कीर्ति और प्रतिष्ठा का मोह नहीं छोड़ पाता, काम एवं क्रोध अन्दर के विकार है बाहर से नहीं आते बल्कि अवसर मिलने पर बाहर आ जाते हैं, मन पर सत्संग की भक्ति का अंकुश रखने पर, सतत ईश्वर का चिन्तन करने से अन्दर के विकार शान्त हो जाते हैं।

कर्म मार्ग में विघ्नकर्त्ता काम है , काम से कर्म का नाश होता है।

वल्लभाचर्य ने कहा है -

 "कामेन  कर्मनाशः  स्यात् , क्रोधेन  ज्ञान  नाशनम्।

  लोभेनभक्तिनाशःस्यात्,तस्मात् एतत त्रयं त्यजेत्।।"

भक्ति मार्ग मे लोभ बाधक है, लोभ से भक्ति का नाश होता है, ज्ञान मार्ग मे क्रोध बाधक है क्रोध से ज्ञान नष्ट हो जाता है, सनत्कुमारों को क्रोध आने से ज्ञान नष्ट हो गया और जय विजय को शाप देते हुए बोले "यह तो समदर्शी लोगों के रहने की जगह है तुम लोगों का स्वभाव विषम है , जो भगवान को जान लेते हैं , उनकी भेद-वृत्ति मिट जाती है, तुम लोग भगवान के पास रहते हो और इतना भेद करते हो, तुम लोग यहाँ रहने के योग्य नहीं हो इसलिए तुम लोग उस लोक में जाओ जहां काम क्रोध लोभ रहते हैं, भगवान के पास आने वालों को रोकने के लिए तुम्हें यहां नहीं रहना चाहिए।"  

सनत्कुमारों ने क्रोधित होकर जय -विजय को शाप दिया कि - राक्षसों में ही विषमता होती है, तुम दोनों के मन में भी विषमता है, अतः तुम राक्षस हो जाओ, दैत्यकुल में तुम्हें तीन बार जन्म लेना पड़ेगा। 

भगवान ने सोचा कि इन्होने मेरे आँगन में ही पाप किया है, वे घर में आने के पात्र ही नहीं है, इन्होने अभी तक क्रोध पर विजय नहीं पाई है, अतः मेरे धाम में आने की पात्रता गँवा चुके है, मैं बाहर जाकर उन्हें दर्शन दे आऊॅं, सनकादिकों को अंदर प्रवेश न मिल सका, यदि वे अंदर जा सके होते तो फिर बाहर आने का प्रश्न उपस्थित ही नहीं होता, कारण भगवान का परमधाम तो है - “ यद्गत्वा न निवर्तन्ते” भगवान ने लक्ष्मीजी से कहा कि बाहर कुछ झगड़ा हो रहा है, वे दोनों बाहर आये, जय- विजय ने उनसे कुमारों के श्राप से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना की, विष्णु भगवान ने कहा कि श्राप वापस नहीं हो सकता, जय -विजय के बहुत कहने पर विष्णु जी ने उन्हें दो विकल्प दिए।

पहला- सात जन्मों तक विष्णु भक्त के रूप में पृथ्वी पर निवास। 

दूसरा - तीन जन्मों तक विष्णु के शत्रु के रूप में पृथ्वी पर वास, इनमें से कोई भी विकल्प पूरा होने पर उनकी वैकुण्ठ में वापसी होगी, इसके बाद वह हमेशा के लिए वहाँ रह सकेंगे।

जय - विजय सात जन्मों तक भगवान विष्णु से दूर नहीं रह सकते थे, इसलिए उन्होंने तीन जन्मों तक उनके शत्रु के रूप में जन्म लेने का विकल्प चुना, इस प्रकार सनकादिकों के मुख से ऐसी बात निकल गयी जो अवश्यम्भावी है, उनका ब्रह्म शाप अनिवारण है , उसको कोई रोक नहीं है।

जय - विजय डरकर उन महात्माओं के चरणों मे गिर गये और बोले महाराज आपने जो दण्ड दिया वह उचित है ।

बस एक कृपा कर दें कि हम चाहे किसी भी योनि में जायँ , हमारी शक्लो सूरत चाहे कुछ भी हो किन्तु हमें भगवान का स्मरण बना रहे ,भगवान की स्मृति न छूटे।

तब जय और विजय के तीन जन्म हुए —

प्रथम जन्म —

   सतयुग में दक्ष प्रजापति की पुत्री दिति और कश्यप के यहाँ जय और विजय अपने पहले जन्म में "हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष" के रूप में जन्मे, 

भगवान विष्णु ने "वराह अवतार लेकर हिरण्याक्ष" का  और "नरसिंहावतार से "हिरण्यकशिपु" का उद्धार किया। 

द्वितीय जन्म —

  त्रेता युग में दोनों "रावण और कुम्भकर्ण" के रूप में जन्मे और भगवान विष्णु ने "रामावतार" लेकर उनका उद्धार किया।

तृतीय जन्म —

   द्वापर युग में वो दोनों "शिशुपाल और दंतवक्र" के रूप में जन्मे और भगवान विष्णु ने "श्रीकृष्णावतार"लेकर उनका उद्धार किया।

भगवान विष्णु की आज्ञानुसार तीन लगातार जन्मों तक भूलोक में आते- आते, जय -विजय धीरे- धीरे ईश्वर के नजदीक होते गए, असुर से शुरु होकर राक्षस और फिर मनुष्य का जीवन जीकर वे वापस देवत्व के पास पहुँचे।

इस प्रकार अंतिम रूप से हमेशा के लिए उनकी वैकुण्ठ वापसी हो गई, अंततः उन्हें शाप से मुक्ति मिल गई। 

क्रोध करने से सनत्कुमारों को प्रभु के सातवें द्वार से वापस लौटना पड़ा किन्तु उनका क्रोध सात्विक था, वे द्वारपाल भगवान के दर्शन में बाधा उपस्थित कर रहे थे, अतः वे क्रोधित हुए, भगवान अनुग्रह करके द्वार पर आये और सनत्कुमारों  को दर्शन दिए, किन्तु वे भगवान के राजमहल में तो प्रवेश पा ही नहीं सके। 

ज्ञानी के लिए ज्ञान - मार्ग में अभिमान विघ्नकर्ता है। अभिमान के मूल में यही क्रोध है, कुछ अज्ञानवस्था में मरते हैं तो कुछ लोग ज्ञानी होकर अभिमान वश होकर मरते हैं। 

कर्म- मार्ग में विघ्नकर्ता काम है, काम से कर्म का नाश होता है। 

भक्ति - मार्ग में क्रोध विघ्न करता है, सनत्कुमार के मार्ग में क्रोध ने ही बाधा डाली, क्रोध से ज्ञान का नाश  होता है।

देह से काम उत्पन्न होता है, ज्ञानी के मार्ग में काम बाधा नहीं डालता किन्तु क्रोध बाधा डालता है, इन तीनों  के कारण पुण्य का क्षय होता है, विवेक से काम नष्ट होता है, किन्तु क्रोध को नष्ट करना कठिन है।

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