एहिं जग जामिनि जागहिं जोगी।परमारथी प्रपंच बियोगी॥
जानिअ तबहिं जीव जग जागा। जब सब बिषय बिलास बिरागा॥
अर्थात्, इस जगत् रूपी रात्रि में योगी लोग जागते हैं, जो परमार्थी हैं और प्रपंच (मायिक जगत) से छूटे हुए हैं। जगत् में जीव को जागा हुआ तभी जानना चाहिए, जब सम्पूर्ण भोग-विलासों से वैराग्य हो जाए।
गोस्वामी तुलसीदास जी स्पष्ट करते है कि इस जगत में जागृत बहुत ही कम लोग हैं
मोह निशा सब सोवनहारा।
देखहिं स्वप्न अनेक प्रकारा।।
प्रभु की माया से मोहित होकर हम सभी सो रहे हैं। और जो कुछ भी
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एहिं जग जामिनि जागहिं जोगी। परमारथी प्रपंच बियोगी॥ जानिअ तबहिं जीव जग जागा। जब सब बिषय बिलास बिरागा॥ |
और इस संसार में देख रहे हैं वो मात्र स्वप्न है. जैसे ही मृत्यु का झटका लगेगा, एक क्षण में ये सारा स्वप्न उजड़ जायेगा।
यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः ।
आत्मन्येव च संतुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ।।
‘जो मनुष्य आत्मा में ही रमण करने वाला और आत्मा में ही तृप्त तथा आत्मा में ही संतुष्ट हो, उसके लिए कोई कर्त्तव्य नहीं है।’
'मन इन्द्रियों को संयत करके एकाग्रचित्त होना सब धर्मों में - श्रेष्ठ धर्म है, सब तपों में श्रेष्ठ तप है।
तपःसु सर्वेषु एकाग्रता परं तपः ॥
सत्ता के तीन स्तर परमार्थ, व्यवहार और प्रतिभास है। उन्होंने स्वप्न और व्यक्तिगत होने वाले भ्रम को "प्रतिभास" नाम दिया है। इसका अस्तित्व तब तक है जब तक वह व्यक्ति नींद से जाग नहीं जाता. जैसे ही वो नींद से होश में आता है, वो जान जाता है कि ये उसका निजी भ्रम था, इसका वास्तव में अस्तित्व नहीं है
दूसरे स्तर पर "व्यवहार" की सत्ता मानते हैं. वो इसे भी स्वप्न ही मानते हैं. ये स्वप्न हम सभी सामुहिक स्तर पर एक साथ देख रहे हैं और ये बहुत लम्बे समय तक चलता है, इस कारण इसके एकदम सत्य होने की भावना हमारे अन्दर दृढ़ हो जाती है।
पर ये सत्य है नहीं. जब कोई व्यक्ति सत्ता के तीसरे स्तर "परमार्थ" में पहुँच जाता है तब उसे इस सामुहिक स्वप्न का पता चलता है. परमार्थ के स्तर पर पता चलता है कि ये जो कुछ भी दिख रहा है वो वास्तव में है ही नहीं, वास्तविक सत्ता सिर्फ एकमात्र "ब्रह्म" की ही है।
शुद्ध चेतना (आत्मा) है, जो ब्रह्म के साथ एक है, जैसे नमक पानी में घुल जाता है और दिखाई नहीं देता, पर उसका स्वाद पूरे पानी में होता है, वैसे ही आत्मा शरीर-मन में व्याप्त है, पर उसे देखा नहीं जा सकता, केवल अनुभव किया जा सकता है।
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी ।
यस्यां जा ग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः।।
जो लोग सांसारिक सुखों में डूबे हुए हैं, वे आध्यात्मिक ज्ञान से दूर हैं और उनके लिए वह समय रात्रि के समान है। जबकि जो लोग आत्म-साक्षात्कार में लगे हुए हैं, वे सांसारिक सुखों को महत्व नहीं देते और उनके लिए वह समय रात्रि के समान है।
बुद्धिमान् मनुष्यों की दो श्रेणियाँ हैं । एक श्रेणी के मनुष्य इन्द्रियतृप्ति के लिए भौतिक कार्य करने में निपुण होते हैं और दूसरी श्रेणी के मनुष्य आत्मनिरीक्षक हैं, जो आत्म-साक्षात्कार के अनुशीलन के लिए जागते हैं । विचारवान पुरुषों या आत्मनिरीक्षक मुनि के कार्य भौतिकता में लीन पुरुषों के लिए रात्रि के समान हैं । भौतिकतावादी व्यक्ति ऐसी रात्रि में अनभिज्ञता के कारण आत्म-साक्षात्कार के प्रति सोये रहते हैं । आत्मनिरीक्षक मुनि भौतिकतावादी पुरुषों की रात्रि में जागे रहते हैं । मुनि को अध्यात्मिक अनुशीलन की क्रमिक उन्नति में दिव्य आनन्द का अनुभव होता है, किन्तु भौतिकतावादी कार्यों में लगा व्यक्ति, आत्म-साक्षात्कार के प्रति सोया रहकर अनेक प्रकार के इन्द्रियसुखों का स्वप्न देखता है और उसी सुप्तावस्था में कभी सुख तो कभी दुख का अनुभव करता है। आत्मनिरीक्षक मनुष्य भौतिक सुख तथा दुख के प्रति अन्यमनस्क रहता है। वह भौतिक घातों से अविचलित रहकर आत्म-साक्षात्कार के कार्यों में लगा रहता है।
अस अभिमान जाइ जनि भोरे।
मैं सेवक रघुपति पति मोरे ।।
सच्चा भक्त तो प्रभु की प्रसन्नता में ही अपनी प्रसन्नता मानता है , इसी को तत्सुख-सुखित्वभाव कहा जाता है।
लेकिन ये सारा संसार ही मोह की नींद में सो रहा है और विभिन्न प्रकार के स्वपन देख रहा है कोई मान प्रतिष्ठा प्राप्त करने के,कोई सुख ऐश्वर्य के स्वपन देख रहा है कोई धनी बनने के स्वपन देख रहा है कोई राज्य पदवी को प्राप्त करने के स्वपन देख रहा है। महापुरुष फरमाते हैं कि चाहे कोई झुग्गी झोंपड़ी में रह रहा है या भव्य महलों में, चाहे कोई पैसे पैसे के लिये तरस रहा है या किसी ने धन केअम्बार लगा रखे हों। चाहे कोई कर्ज़दार बना हुआ है या साहूकार बना हुआ है। हैं ये सब सपने के दृश्य ही। रोज़ाना जो हम नींद करते हैं ये ज़रा सपना छोटा है पाँच छः घन्टे का है आठ नौ घन्टे का है और जो जीवन का सपना है ज़रा लम्बा है पचास साठ वर्ष,अस्सी नब्बे वर्ष का है फर्क इतना ही है बस। हैं दोनों सपने ही। असत्य हैं क्योंकि रोज़ाना की नींद में व्यक्ति जब स्वपन की रचना को देख रहा होता है प्रसन्न या अप्रसन्न हो रहा होता है उस समय ये रचना उसे सत्य प्रतीत होती है और संसार की तरफ से बेखबर होने के कारण दुनियाँ का उसके लिये कोई अस्तित्व नहीं होता वह उसके लिये असत्य होती है और जब इस नींद से जाग कर इन बाहरी नेत्रों से संसार के दृश्य देख रहा है और संसार के कार्य व्यवहार में लग जाता है तो सपने की रचना उसके लिये असत्य हो जाती है लेकिन अन्दर के नेत्र बन्द होने के कारण ये संसार के दृश्य भी सपने ही हैं। जीव के पिछले जन्म जो बीत गये हैं क्या वो सपना नही हो गये ?
यः शास्त्र-विधिम् उत्सृज्यवर्तते काम-कारतः।
न स सिद्धिं अवप्नोतिन सुखं न परम गतिम्।।
परन्तु जो मनुष्य शास्त्रों के आदेशों को त्यागकर अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करता है, उसे न तो सिद्धि प्राप्त होती है, न सुख।
जैसा कि पहले वर्णित है, शास्त्र-विधि, या शास्त्र का निर्देश , मानव समाज की विभिन्न जातियों और वर्णों को दिया गया है। प्रत्येक व्यक्ति से इन नियमों और विनियमों का पालन करने की अपेक्षा की जाती है। यदि कोई इनका पालन नहीं करता है और अपनी वासना, लोभ और कामना के अनुसार मनमाने ढंग से कार्य करता है, तो वह अपने जीवन में कभी भी सिद्ध नहीं हो पाएगा। दूसरे शब्दों में, मनुष्य सैद्धांतिक रूप से इन सभी बातों को जान सकता है, लेकिन यदि वह इन्हें अपने जीवन में लागू नहीं करता है, तो उसे मानव जाति में सबसे निम्न माना जाएगा। मानव जीवन में, एक जीव से अपेक्षा की जाती है कि वह विवेकशील रहे और अपने जीवन को सर्वोच्च स्तर तक ऊपर उठाने के लिए दिए गए नियमों का पालन करे, लेकिन यदि वह उनका पालन नहीं करता है, तो वह स्वयं को पतित करता है। किन्तु यदि वह नियमों, विनियमों और नैतिक सिद्धांतों का पालन भी करता है और अंततः परमेश्र्वर को समझने की अवस्था तक नहीं पहुँच पाता है।
लेकिन मेहनत बेकार नहीं जाएगी भगवान श्री कृष्ण जी कहते हैं कि
तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहकिम् ।
यतते च ततो भूय: संसिद्धौ कुरुनन्दन ।।
हे कुरुनन्दन! ऐसा जन्म पाकर वह अपने पूर्वजन्म की दैवी चेतना को पुनः प्राप्त करता है और पूर्ण सफलता प्राप्त करने के उद्देश्य से वह आगे उन्नति करने का प्रयास करता है । एक कहानी याद आ रही है—
राजा भरत, जिन्हें तीसरे जन्म में उत्तम ब्राह्मण कुल में जन्म मिला, पूर्व दिव्यचेतना की पुनःप्राप्ति के लिए उत्तम जन्म के उदाहरण स्वरूप हैं । भरत विश्र्व भर के सम्राट थे और तभी से यह लोक देवताओं के बीच भारतवर्ष के नाम से विख्यात है । पहले यह आर्यावर्त के नाम से ज्ञात था । भरत ने अल्पायु में ही आध्यात्मिक सिद्धि के लिए संन्यास ग्रहण कर लिया था, किन्तु वे सफल नहीं हो सके । अगले जन्म में उन्हें उत्तम ब्राह्मण कुल में जन्म लेना पड़ा और वे जड़ भरत कहलाये क्योंकि वे एकान्त वास करते थे तथा किसी से बोलते न थे। बाद में राजा रहूगण ने इन्हें महानतम योगी के रूप में पाया। उनके जीवन से यह पता चलता है कि दिव्य प्रयास अथवा योगाभ्यास कभी व्यर्थ नहीं जाता। भगवत्कृपा से योगी को कृष्णभावनामृत में पूर्ण सिद्धि प्राप्त करने के बारम्बार सुयोग प्राप्त होते रहते हैं।
इसलिए मनुष्य को धीरे-धीरे स्वयं को कृष्णभावनामृत और भक्ति के स्तर तक ऊपर उठाना चाहिए; तभी वह सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त कर सकता है, अन्यथा नहीं।
तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि ।।
अतः जो कर्म करने योग्य है और जो नहीं करने योग्य है, उस स्थिति में शास्त्र ही तुम्हारे लिए एकमात्र प्रमाण है। ऐसा जानकर, केवल उन्हीं कर्मों को करना चाहिए, जो शास्त्र विधि के अनुकूल हों।
कभी-कभी, नेक इरादे वाले लोग भी कहते हैं, "मुझे नियमों की परवाह नहीं। मैं अपने दिल की सुनता हूँ और अपना काम करता हूँ।" दिल की बात मानना तो ठीक है, लेकिन वे कैसे यकीन कर सकते हैं कि उनका दिल उन्हें गुमराह तो नहीं कर रहा? जैसा कि कहा जाता है, "नरक का रास्ता नेक इरादों से बना होता है।" इसलिए, शास्त्रों से यह जाँचना हमेशा बुद्धिमानी है कि क्या हमारा दिल सचमुच हमें सही दिशा में ले जा रहा है। मनु स्मृति में कहा गया है:
भूतं भव्यं भविष्यं च सर्वं वेदात् प्रसिध्यति।
"भूत, वर्तमान या भविष्य के किसी भी आध्यात्मिक सिद्धांत की प्रामाणिकता वेदों के आधार पर ही स्थापित की जानी चाहिए।" इसलिए, श्रीकृष्ण अर्जुन को शास्त्रों की शिक्षाओं को समझने और उनके अनुसार कार्य करने का निर्देश देते हुए अपनी बात समाप्त करते हैं।
काम-चरित: शब्द अत्यंत महत्वपूर्ण है। जो व्यक्ति जानबूझकर नियमों का उल्लंघन करता है, वह काम-वासना में लीन होकर कार्य करता है। वह जानता है कि ऐसा करना वर्जित है, फिर भी वह ऐसा करता है। इसे मनमौजीपन कहते हैं। वह जानता है कि ऐसा करना चाहिए, फिर भी वह ऐसा नहीं करता; इसलिए वह मनमौजी कहलाता है। ऐसे व्यक्ति परमेश्र्वर द्वारा दण्डित होने के लिए नियत हैं। ऐसे व्यक्ति मानव जीवन के लिए निर्धारित पूर्णता प्राप्त नहीं कर सकते। मानव जीवन विशेष रूप से अपने अस्तित्व को शुद्ध करने के लिए है, और जो व्यक्ति नियमों का पालन नहीं करता, वह न तो स्वयं को शुद्ध कर सकता है और न ही वह सुख की वास्तविक अवस्था को प्राप्त कर सकता है
काल धर्म नहिं ब्यापहिं ताही।
रघुपति चरन प्रीति अति जाही॥
नट कृत बिकट कपट खगराया।
नट सेवकहि न ब्यापइ माया॥
जिसका श्री रघुनाथ जी के चरणों में अत्यंत प्रेम है, उसको कालधर्म (युगधर्म) नहीं व्यापते। हे पक्षीराज! नट (बाजीगर) का किया हुआ कपट चरित्र (इंद्रजाल) देखने वालों के लिए बड़ा विकट (दुर्गम) होता है, पर नट के सेवक (जंभूरे) को उसकी माया नहीं व्यापती॥
हरि माया कृत दोष गुन बिनु हरि भजन न जाहिं!
भजिअ राम तजि काम सब अस बिचारि मन माहिं॥
प्रभु श्री हरि की माया के द्वारा रचे हुए दोष और गुण श्री हरि के भजन बिना नहीं जाते। मन में ऐसा विचार कर, सब कामनाओं को छोड़कर (निष्काम भाव से) श्री राम जी का भजन करना चाहिए॥
उसी प्रकार से इस जन्म के जो वर्ष बीत चुके हैं क्या वो सपना नहीं हो गया?
कल जो बीत गया आज वो सपना हो गया है आज जो बीत जायेगा कल सपना हो जायेगा। इसी तरह ये सारे जीवन की कार्यवाही सपना हो जाती है।
कहाँ गई चिन्ताएँ जिनके लिए हम रात भर सोए नहीं थे?
कहां गये वे सुख जिनके लिये हमने आकाँक्षायें की थीं? एक सपना ही मालूम पड़ेगा, आया और गया।
भगवान शिव जी कहते हैं कि -
उमा कहहुँ मैं अनुभव अपना।
सत हरि भजन जगत सब सपना।।