राम ब्रह्म ब्यापक जग जाना। परमानंद परेस पुराना॥

Sooraj Krishna Shastri
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राम ब्रह्म ब्यापक जग जाना। परमानंद परेस पुराना॥

हरष  बिषाद  ग्यान अग्याना। जीव धर्म अहमिति अभिमाना॥
राम ब्रह्म ब्यापक जग जाना। परमानंद      परेस       पुराना॥

अर्थात्, हर्ष, शोक, ज्ञान, अज्ञान, अहंता और अभिमान - ये सब जीव के धर्म हैं। राम तो व्यापक ब्रह्म, परमानंदस्वरूप, परात्पर प्रभु और पुराण पुरुष हैं। इस बात को सारा जगत जानता है।

हानि-लाभ, जय-पराजय, सुख-दुःख, मान-अपमान और अज्ञानजन्य अनेक द्वन्द यह सब मन की उपज हैं। अपने अविनाशी सनातन आत्म-स्वरूप के बोध की तत्परता जगाएँ। आत्म-निरीक्षण तथा विवेक द्वारा स्वयं के यथार्थ को अनुभूत करें।

यदृच्छलाभासन्तुष्टो   द्वन्द्वातीतो  विमत्सर: ।

  सम: सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते ।।

जो भी लाभ स्वतः प्राप्त हो, उससे संतुष्ट और ईर्ष्या से मुक्त होकर, वे जीवन के द्वन्द्वों से परे होते हैं। सफलता और असफलता में समभाव रखते हुए, वे सभी प्रकार के कर्म करते हुए भी अपने कर्मों से नहीं बँधते।

जैसे एक सिक्के के दो पहलू होते हैं, वैसे ही ईश्वर ने भी इस द्वंद्वों से भरी दुनिया बनाई है—दिन और रात, मीठा और खट्टा, गर्मी और सर्दी, बारिश और सूखा, आदि। एक ही गुलाब की झाड़ी में एक सुंदर फूल भी होता है और एक बदसूरत काँटा भी। जीवन भी अपने साथ द्वंद्व लेकर आता है सुख और दुख, जय और पराजय, यश और अपयश। भगवान राम ने स्वयं अपनी दिव्य लीलाओं में, अयोध्या के राजा के रूप में राज्याभिषेक से एक दिन पहले वनवास प्राप्त किया था।

राम ब्रह्म ब्यापक जग जाना। परमानंद परेस पुराना॥
राम ब्रह्म ब्यापक जग जाना। परमानंद परेस पुराना॥


इस संसार में रहते हुए, कोई भी द्वैत को निष्प्रभावी करके केवल सकारात्मक अनुभव प्राप्त करने की आशा नहीं कर सकता। फिर हम जीवन में आने वाले द्वैत से सफलतापूर्वक कैसे निपट सकते हैं? इसका समाधान है इन द्वैत को सहजता से स्वीकार करना, और सभी परिस्थितियों में संतुलन बनाए रखते हुए इनसे ऊपर उठना सीखना। यह तब होता है जब हम अपने कर्मों के फल के प्रति अनासक्ति विकसित कर लेते हैं, और फल की लालसा किए बिना केवल अपने कर्तव्य पालन में ही लगे रहते हैं। जब हम ईश्वर की प्रसन्नता के लिए कर्म करते हैं, तो हम उन कर्मों के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही फलों को ईश्वर की इच्छा मानते हैं, और दोनों को प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करते हैं।

एतां विभूतिं योगं च माम यो वेत्ति तत्त्वतः ।

 सोऽविकम्पेन  योगेन  युज्यते नात्र संशयः।।

जो मेरी महिमा और दिव्य शक्तियों को वास्तविक रूप से जान लेता है वह अविचल भक्तियोग के माध्यम से मुझमें एकीकृत हो जाता है। इसमें कोई संदेह नहीं है।

विभूति' शब्द ब्रह्माण्ड में प्रकट भगवान की परम शक्तियों से संबंधित है। 'योगम्' शब्द इन अद्भुत शक्तियों के साथ भगवान के संबंध का उल्लेख करता है। श्रीकृष्ण इस श्लोक में स्पष्ट करते हैं कि जब हम परमात्मा के वैभव से परिचित होकर उनकी दिव्य एवं अनुपम महिमा को स्वीकार कर लेते हैं तब हम वास्तव में उनकी भक्ति में लीन होने में रुचि लेते हैं। भगवान की महानता का ज्ञान होने से भक्तों का प्रेम पोषित होता है और उनकी श्रद्धाभक्ति बढ़ती है। प्रेम और ज्ञान में परस्पर सीधा संबंध होता है जैसा कि निम्न उदाहरण से प्रकट होता है-

'यदि आपका मित्र आपको चमकते काले पत्थर की गोली दिखाता है तब तुम्हें इसके महत्त्व की जानकारी नहीं होती और इसलिए आपके भीतर उस काले पत्थर के प्रति किसी प्रकार का लगाव उत्पन्न नहीं होता। लेकिन जब आपका मित्र आपको बताता है कि यह 'शालीग्राम' है तथा इसे किसी सिद्ध संत ने उसे उपहार के रूप में दिया है। 'शालीग्राम' एक विशेष प्रकार का प्राचीन पत्थर है जो भगवान विष्णु का प्रतिरूप है जब आपको उस काले पत्थर की विशेषता का ज्ञान हो जाता है तब आपके लिए उस काले पत्थर का महत्त्व बढ़ जाता है। यदि फिर आपका मित्र आपको यह कहता है कि क्या आप जानते हैं कि पांच सौ वर्ष पूर्व महान संत स्वामी रामानन्द इस पत्थर का प्रयोग उपासना के लिए करते थे? जैसे ही आपको यह विशेष जानकारी प्राप्त होती है तब आपका उस काले पत्थर के प्रति श्रद्धा भाव और अधिक बढ़ जाता है। प्रत्येक समय पत्थर के संबंध में प्राप्त हो रही जानकारी से आपके भीतर उस काले पत्थर के प्रति श्रद्धा में निरन्तर वृद्धि होती रहती है। इसी प्रकार से भगवान का वास्तविक ज्ञान उनके प्रति हमारी श्रद्धा भक्ति बढ़ाता है। इस प्रकार भगवान की अनन्त ब्रह्माण्डों में व्याप्त अद्भुत शक्तियों का वर्णन करने के पश्चात श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे भक्त और पुण्य आत्माएँ जो इस ज्ञान में स्थित हो जाती हैं, वे आत्माएँ वास्तव में अविचल भक्ति के माध्यम से भगवान में एकनिष्ठ हो जाते हैं।'

कई लोग दैनिक जीवन में घटती रहने वाली छोटी−छोटी बातों को बहुत अधिक महत्व देने लगते हैं और राई को पर्वत मानकर क्षुब्ध बनें रहते हैं। यह मन की दुर्बलता ही है। जीवन एक खेल की तरह खेले जाने पर ही आनन्दमय बन सकता है खिलाड़ी लोग क्षण-क्षण में हारते-जीतते हैं। दोनों ही परिस्थितियों में वे अपना मानसिक संतुलन ठीक बनाये रहते हैं। कोई खिलाड़ी यदि हर हार पर सिर धुनने लगे और हर जीत पर हर्षोन्मत हो जाय तो यह उसकी एक मूर्खता ही मानी जायगी। संसार एक नाट्यशाला है। जीवन एक नाटक है। जिसमें हमें अनेक तरह के रूप बनाकर अभिनय करना होता है। 

कभी राजा, कभी बन्दी, कभी योद्धा कभी भिश्ती बनकर पार्ट अदा करते हैं। नट अर्थात अभिनेता केवल इतना ही ध्यान रखता है कि हर अभिनय को वह पूरी तन्मयता के साथ पूरा करें। दर्शक, राजा या भिश्ती बनने के कारण नहीं अभिनेता की इसलिए प्रशंसा करते हैं कि जो भी काम सौंपा गया था उसने उसे पूरी खूबी और दिलचस्पी से किया। हमें सफलता का ही नहीं असफलता का भी अभिनय करने को विवश होना पड़ता है। इन परिस्थितियों में हम अपना मानसिक सन्तुलन क्यों खोते। हर पार्ट को पूरी दिलचस्पी और हँसी−खुशी से पूरा क्यों न करें? जो असफलता और परेशानी के अभिनय को ठीक तरह खेल सकता है वस्तुतः वही प्रशंसनीय खिलाड़ी है। हमें जीवन नाटक को खेलना ही चाहिए, पर अन्तस्तल तक उसकी कोई ऐसी प्रतिक्रिया न पहुँचने देनी चाहिए जो दुखद हो। हमें भविष्य की बड़ी से बड़ी आशा करनी चाहिए किन्तु बुरी से बुरी परिस्थिति का मुकाबला करने के लिए तैयार करना चाहिए।

आत्मौपम्येन  सर्वत्र  समं पश्यति योऽर्जुन ।

  सुखं वा यदि वा दु:खं स योगी परमो मतः ।।

जो योगी सभी प्राणियों में खुद को देखता है और उनके सुख-दुख को भी अपने सुख-दुख के समान मानता है, वही परम योगी है। ऐसे योगी सभी जीवों के कल्याण के लिए प्रयत्नशील रहते हैं, क्योंकि वे दूसरों की पीड़ा को अपनी पीड़ा की तरह महसूस करते हैं।

कृष्णभावना भावित व्यक्ति पूर्ण योगी होता है । वह अपने व्यक्तिगत अनुभव से प्रत्येक प्राणी के सुख तथा दुःख से अवगत होता है । जीव के दुख का कारण ईश्र्वर से अपने सम्बन्ध का विस्मरण होना है । सुख का करण कृष्ण को मनुष्यों के समस्त कार्यों का परम भोक्ता, समस्त भूमि तथा लोकों का स्वामी एवं समस्त जीवों का परम हितैषी मित्र समझना है । पूर्ण योगी यह जानता है कि भौतिक प्रकृति के गुणों से प्रभावित बद्धजीव कृष्ण से अपने सम्बन्ध को भूल जाने के करण तीन प्रकार के तापों(दुखों) को भोगता है; और चूँकि कृष्णभावनाभावित व्यक्ति सुखी होता है इसीलिए वह कृष्णज्ञान को सर्वत्र वितरित कर देना चाहता है।  चूँकि पूर्णयोगी कृष्णभावनाभावित बनने के महत्त्व को घोषित करता चलता है; अतः वह विश्र्व का सर्वश्रेष्ठ उपकारी एवं भगवान् का प्रियतम सेवक है ।

न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तम: ।

भविता न च मे तस्मादन्य: प्रियतरो भुवि ।।

दूसरे शब्दों में, भगवद्भक्त सदैव जीवों के कल्याण को देखता है और इस तरह वह प्रत्येक प्राणी का सखा होता है । वह सर्वश्रेष्ठ योगी है क्योंकि वह स्वान्तःसुखाय सिद्धि नहीं चाहता, अपितु अन्यों के लिए भी चाहता है । वह अपने मित्र जीवों से द्वेष नहीं करता । यही है वह अन्तर जो एक भगवद्भक्त तथा आत्मोन्नति में ही रूचि वाले योगी में होता है । जो योगी पूर्णरूप से ध्यान धरने के लिए एकान्त स्थान में चला जाता है, वह उतना पूर्ण नहीं होता जितना कि वह भक्त जो प्रत्येक व्यक्ति को कृष्णभावना भावित बनाने का प्रयास करता रहता है ।

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