Sukhia Malin Story: फल बेचने वाली और Shri Krishna Bhakti का अद्भुत रहस्य
(सुखिया मालिन और श्रीकृष्ण की कथा)
सत्कर्म और फल की दो प्रवृत्तियाँ
मनुष्य जब अपने सत्कर्मों का फल केवल धन, सम्पत्ति, पुत्र, पौत्र आदि सांसारिक भोगों तक सीमित कर देता है, तब यह फल का बेचना कहलाता है।
परन्तु वही सत्कर्म जब ‘श्रीकृष्णार्पण भाव’ से किए जाते हैं, तब वे मोक्ष और भगवत्प्राप्ति का साधन बनते हैं।
सुखिया मालिन का जीवन इसका उदाहरण है। उसने साधारण लौकिक फल देकर भी फलों का श्रेष्ठतम फल – श्रीकृष्ण का दिव्य प्रेम प्राप्त किया। कृष्ण-प्रेम में निमग्न होकर वह अंततः गोलोकधाम में उनकी सखी रूप में नित्य-सेवा का अधिकार पा गयी।
फल-विक्रयिणी प्रसंग (सूरदास एवं परवर्ती ग्रन्थों से)
व्रज में काछनी बेचन आई।
आन उतारी नंदगृह आंगन ओडी फलन सुहाई।।
ले दौरे हरिफैट अंजुली शुभकर कुंवर कन्हाई।
डारत ही मुक्ताफल ह्वे गये यशुमति मन मुसकाई।।
जे हरि चार पदारथ दाता फल वांछित न अघाई।
परमानंद याको भाग बड़ो है विधि सों कहा वस्याई।।
अर्थात्, जब कन्हैया ने अपनी अंजलि से कुछ दाने टोकरी में डाले, तो वे सब अनमोल रत्नों में बदल गए।
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Sukhia Malin Story: फल बेचने वाली और Shri Krishna Bhakti का अद्भुत रहस्य |
गोपियों से सुनकर मालिन का अनुराग
सुखिया मालिन मथुरा से गोकुल फल-सब्ज़ी व फूल बेचने आती थी।
वह जब गोपियों से मिलती, तो उनसे नन्हें श्यामसुन्दर की छवियों और लीलाओं का वर्णन सुनती।
गोपियां कहतीं –
आँगन स्याम नचावहीं जसुमति नँदरानी।
तारी दै दै गावहीं मधुरी मृदु बानी।।
नन्दबाला की शोभा सुनकर, धीरे-धीरे मालिन के हृदय में कृष्ण-प्रेम अंकुरित हुआ।
अब वह गोकुल केवल व्यापार के लिए नहीं, बल्कि कन्हैया के दर्शनों की लालसा लिए आने लगी।
कृष्ण-दर्शन की तड़प और नियम
मालिन नित्य नंदभवन के द्वार पर प्रतीक्षा करती पर कन्हैया दर्शन नहीं देते।
कभी-कभी वे खेल में बाहर आकर भी उसे अनदेखा कर चले जाते।
यह उपेक्षा उसके प्रेम को और प्रगाढ़ करती गयी।
गोपियों ने उपाय बताया –
“मालिन, यदि सच में दर्शन चाहिए तो प्रतिदिन नंदभवन की 108 प्रदक्षिणा करो और भावपूर्वक प्रार्थना करो।”
मालिन ने यह नियम अपनाया। धीरे-धीरे उसका मन शुद्ध हुआ, सांसारिक वासनाएं मिट गयीं और दर्शनाभिलाषा कृष्ण-प्रेम में बदल गयी।
मालिन की पुकार (श्रीललितकिशोरीजी)
तूँ छलिया छिप छिप बैठ्यो अँखियाँ मटकावै रे।
बाला मैं थारे बिनु दु:खी फिरूँ तूँ मौज उड़ावै रे।।
दिन नहीं चैन रात नहीं निदियाँ,
जरा कह दो साँवरिये से आया करे।
मोर मुकुट मकराकृत कुंडल पीताम्बर झलकाया करे।।
उसकी प्रार्थना हृदय से निकली थी, और ऐसी सच्ची पुकार भगवान को आकृष्ट करती ही है।
कृष्ण का दर्शन और मिलन
एक दिन वह पुकारती है – “फल ले लो री फल…!”
यह सुनकर स्वयं नटखट नंदलाल घर से दौड़कर बाहर आए।
पीताम्बर, मकराकृति कुण्डल, मोरपंख मुकुट, वंशी और लाल कोमल हथेली – उनकी शोभा अनुपम थी।
छोटी-सी अंजलि में अनाज लेकर कन्हैया हाँफते हुए दौड़े।
रास्ते में दाने झरते रहे, पर जो थोड़े-से बचे उन्हें उन्होंने मालिन की टोकरी में डाल दिया।
मालिन के भाव को देखकर कृष्ण स्वयं उसकी गोद में जा बैठे और उसे ‘माँ’ कहकर संबोधित किया।
वह भाव-विभोर हो गयी और अपने फलों से कृष्ण के करकमलों को भर दिया।
टोकरी का रत्नों से भर जाना
घर लौटकर जब उसने टोकरी देखी तो उसमें फल नहीं, अपितु हीरे-मोती-रत्न चमक रहे थे।
फलविक्रयिणी तस्य च्युतधान्यकरद्वयम्।
फलैरपूरयद्रत्नै: फलभाण्डमपूरि च।।
उस रत्न-ज्योति में उसे चारों ओर केवल श्रीकृष्ण ही दीख रहे थे –
“आगे श्रीकृष्ण, पीछे श्रीकृष्ण, भीतर-बाहर श्रीकृष्ण।”
तात्त्विक रहस्य
- मालिन ने सामान्य लौकिक फल देकर परम फल – कृष्ण-प्रेम पाया।
- उसकी बुद्धि रूपी टोकरी अब भक्ति-रत्नों से भर गयी।
- यही शिक्षा है कि जब कर्म भगवदर्पण भाव से होते हैं तो वे आत्मा को मुक्त करते हैं, और जब सकाम भाव से होते हैं तो बन्धन देते हैं।
फल-विक्रयिणी प्रसंग का सार
- सकाम कर्म → केवल स्वर्ग, पुत्र-पौत्र, धन आदि की प्राप्ति।
- निष्काम कर्म (श्रीकृष्णार्पण भाव से) → भक्ति रूपी रत्न और मुक्ति।
- जैसे भी हो, मन कृष्ण में लगाना ही परम पुरुषार्थ है।
येन केन प्रकारेण मन: कृष्णे निवेशयेत्।
निष्कर्ष
सुखिया मालिन का जीवन इस सत्य का प्रमाण है कि –
जो कृष्ण में अपने मन को समर्पित कर देता है, वही सफल जीवन पाता है।
उसने लौकिक फल बेचकर फलों का भी फल – कृष्ण का दिव्य प्रेम पाया।
और अंततः वह गोलोक में श्रीकृष्ण की सखी रूप में नित्य सेवा को प्राप्त हुई।