90s Ki Bahuriya Ka Jeevan: नब्बे के दशक की बहू की आत्मकथा और Vidai Rasam
नब्बे के दशक की बहुरिया की आत्मकथा
मेरा बियाह तो हो गया था, पर गौना साल–दो साल बाद होना था। उस जमाने में यही रिवाज था। आजकल तो सब लड़कियों की विदाई विवाह के समय ही हो जाती है, पर मेरे समय में ऐसा नहीं था।
जैसे–जैसे मेरे गौने की घड़ी नजदीक आती गई, मेरे माता–पिता के चेहरे की रौनक उतरने लगी। पंद्रह दिन पहले से ही उन्हें नींद नहीं आती थी। मां–बाबूजी हरदम चिंता में डूबे रहते। मैं भी अपने मन की व्यथा छुप–छुप कर रो लेती थी। अब तो खाने–पीने का मन भी कम हो गया था।
गांव–गांव से मेरी मामी, बुआ, चाची, दीदी सब घर आ गईं। वे रसोई संभाल लेतीं और मुझे आराम करने देतीं। कभी भाभी चुपके से उबटन लगा देतीं, कभी हल्दी–बेसन रगड़ देतीं कि मेरी रंगत निखर जाए। नंदोई का नाम लेकर छेड़तीं तो मैं कभी हंस पड़ती, कभी शर्मा जाती और कभी रोकर सबको रुला देती।
गौने के दिन करीब आते ही घर का हर व्यक्ति जैसे भूख–प्यास भूल गया था। जो मुझे खिलाने बैठता, वह खुद रोने लगता।
बिदाई का दिन आया। अंगना में नाइन भाभी ने मेरे पैर में आलता लगाया, बिछिया पहनाई और कान में धीरे से कहा—
“धीरे–धीरे चलना, छोटे–छोटे कदम उठाना, सबके पैर छूना और मुंह दिखाई के समय आंखें बंद रखना।”
तभी बाबूजी घर छोड़कर बाहर निकल गए। मां का तो कोछा पूजते ही रोना फूट पड़ा। मुझे बड़ी मुश्किल से डोली में बैठाया गया। मैं घर से अलग हो गई।
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90s Ki Bahuriya Ka Jeevan: नब्बे के दशक की बहू की आत्मकथा और Vidai Rasam |
ससुराल में सब ओर खुशियां थीं। गांव के लोग बहू भोज खा रहे थे और मैं एक कमरे में गठरी बनी, सिर झुकाए, मुंह छुपाए बैठी थी। औरतें झांक–झांक कर देखतीं और बच्चे तो जैसे किसी खेल में लगे थे—बस दुल्हन का मुंह देखने का।
मेरी जेठानी आईं और कान में बोलीं—
“जब तक गठबंधन नहीं हो रहा है, थोड़ी देर लेट जाओ, आराम कर लो।”
पर मैं कैसे मान लेती? डर था कि कहीं कुछ उल्टा–सीधा न हो जाए। घंटों जस की तस बैठी रही। कमर अकड़ गई थी, गर्दन टूटने लगी थी।
आखिरकार गठबंधन हुआ। मेरी ननद ने जबरदस्ती अपनी कसम देकर एक पूड़ी खिला दी।
अगले दिन से मुंह दिखाई का सिलसिला शुरू हुआ। सासू मां घूंघट हटाकर मेरा चेहरा दिखातीं और बैइना–बतासा देकर सबको विदा करतीं। एक झुंड गया ही था कि सासू मां की आवाज आई—
“बड़की दुलहिन, छोटका का लय आवो।”
थकी–मांदी मैं फिर उठ खड़ी हुई। भाभी की सीख याद रही कि धीरे–धीरे चलना है, वरना औरतें कहेंगी—
“दुल्हनिया बड़ी हलबलही बाय।”
और हां, अच्छा हुआ कि भाभी ने आंखें बंद रखने को कहा था। नहीं तो मुंह दिखाई में हंसी छूट जाती और सासू मां डांट देतीं—
“घरवालों ने कुछ सिखाया ही नहीं।”
नब्बे के दशक की बहुरिया का जीवन और उनकी विदाई रस्में एक भावुक आत्मकथा के रूप में। इस लेख में 90s की दुल्हन की विदाई, गौना, मुंह दिखाई और ससुराल में पहली रात के अनुभव को आत्मीयता से प्रस्तुत किया गया है। जानिए कैसे उस दौर की बहुएं हंसी, आंसू और परंपराओं के बीच अपनी नई जिंदगी की शुरुआत करती थीं। यह लेख आपको उस समय की सामाजिक और पारिवारिक भावनाओं से जोड़ देगा।"