True Peace: संस्कृत श्लोक "अत्यन्तविमुखे दैवे व्यर्थे यत्ने च पौरुषे" का हिन्दी अनुवाद और विश्लेषण

Sooraj Krishna Shastri
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True Peace: संस्कृत श्लोक "अत्यन्तविमुखे दैवे व्यर्थे यत्ने च पौरुषे" का हिन्दी अनुवाद और विश्लेषण 

"यह श्लोक सिखाता है कि जब भाग्य प्रतिकूल हो और सारे प्रयास व साहस व्यर्थ हो जाएँ, तब मनस्वी और निर्धन व्यक्ति के लिए वन ही सबसे बड़ा आश्रय और सुख का स्थान है। यह शिक्षा बताती है कि जीवन में जब परिश्रम और पुरुषार्थ भी निष्फल हो जाते हैं, तो आत्मचिंतन, एकांत और प्रकृति की शांति ही सच्चा सुख देती है। आधुनिक जीवन में इसका अर्थ है कि असफलताओं और तनाव के बीच retreat लेना, मानसिक शांति पाना और आत्मबल को पुनः जाग्रत करना। यह श्लोक मानवता को सिखाता है कि सच्चा सुख केवल बाहरी उपलब्धियों में नहीं, बल्कि भीतर के वन—ध्यान, साधना और आत्मसंयम—में निहित है।"

📜 मूल श्लोक (Devanagari)

अत्यन्तविमुखे दैवे व्यर्थे यत्ने च पौरुषे।
मनस्विनो दरिद्रस्य वनादन्यत्कुतः सुखम्॥


🔤 अंग्रेज़ी ट्रान्सलिटरेशन (IAST)

atyanta-vimukhe daive vyarthe yatne ca pauruṣe।
manasvino daridrasya vanād anyat kutaḥ sukham॥


🇮🇳 हिन्दी अनुवाद

"जब दैव (भाग्य) अत्यन्त प्रतिकूल हो, जब सारे यत्न और पुरुषार्थ व्यर्थ हो जाएँ, तब मनस्वी (स्वाभिमानी) निर्धन के लिए वन के अतिरिक्त और कहाँ सुख हो सकता है?"

True Peace: संस्कृत श्लोक "अत्यन्तविमुखे दैवे व्यर्थे यत्ने च पौरुषे" का हिन्दी अनुवाद और विश्लेषण
True Peace: संस्कृत श्लोक "अत्यन्तविमुखे दैवे व्यर्थे यत्ने च पौरुषे" का हिन्दी अनुवाद और विश्लेषण 



🪔 शब्दार्थ

  • अत्यन्तविमुखे दैवे — जब भाग्य बिल्कुल प्रतिकूल हो
  • व्यर्थे यत्ने — प्रयत्न निष्फल हो जाए
  • पौरुषे — पुरुषार्थ (साहस, शक्ति) में भी
  • मनस्विनः — स्वाभिमानी, आत्मसम्मानी व्यक्ति
  • दरिद्रस्य — निर्धन का
  • वनात् — वन में (वैराग्य, एकांत का आश्रय)
  • अन्यत् कुतः सुखम् — अन्यत्र कहाँ सुख हो सकता है?

📖 व्याकरणात्मक विश्लेषण

  1. अत्यन्तविमुखे दैवे — "दैव" (भाग्य) का सप्तमी एकवचन = "जब दैव विपरीत हो"।
  2. व्यर्थे यत्ने च पौरुषे — द्वन्द्व समास, "यत्न और पुरुषार्थ दोनों व्यर्थ होने पर"।
  3. मनस्विनो दरिद्रस्य — षष्ठी तत्पुरुष समास = "मनस्वी निर्धन का"।
  4. वनात् अन्यत् कुतः सुखम् — अपादान कारक "वन से अलग और कहाँ सुख?" → प्रश्नसूचक वाक्य।

➡ व्याकरण से स्पष्ट है कि यहाँ प्रश्नवाचक शैली का प्रयोग हुआ है, जिसका उद्देश्य "वन ही एकमात्र आश्रय है" यह संदेश देना है।


🌍 आधुनिक सन्दर्भ

  • जब प्रयास, योजना और परिश्रम भी असफल हों, और परिस्थितियाँ प्रतिकूल बन जाएँ, तो शांति और आत्मबल पाने के लिए प्रकृति, एकांत, साधना या आंतरिक जीवन का सहारा लेना पड़ता है।
  • आज की भागदौड़ और तनावपूर्ण जीवन में भी यही संदेश है कि जब समाज में अपमान, असफलता और संघर्ष बढ़ें, तो "वन" यानी एकांत, आत्मचिंतन और मानसिक शांति का वातावरण ही वास्तविक सुख देता है।
  • यह श्लोक हमें "Escape नहीं, बल्कि Reset" का मार्ग दिखाता है — यानी परिस्थिति से हटकर आत्मबल को पुनः जाग्रत करना।

🗣 संवादात्मक नीति कथा

दृश्य:
एक निर्धन, स्वाभिमानी युवक अपने गुरु से कहता है—

युवक: "गुरुदेव, मैंने प्रयास किए, साहस किया, पर सब विफल हुआ। समाज भी मेरा अपमान करता है। मुझे अब शांति कहाँ मिलेगी?"

गुरु: "वत्स, जब भाग्य प्रतिकूल हो और यत्न व्यर्थ हो जाएँ, तब आत्मा का आश्रय वन में मिलता है। वहाँ न अपमान है, न दिखावा—सिर्फ प्रकृति और आत्मशांति है।"

युवक: "तो क्या वन ही अंतिम मार्ग है?"

गुरु: "वन केवल प्रतीक है। जब बाहरी जीवन भारी हो जाए, तो भीतर का वन—ध्यान, साधना और आत्मसंयम—ही सच्चा सुख देता है।"


✅ निष्कर्ष

  • यह श्लोक बताता है कि जीवन में भाग्य और पुरुषार्थ दोनों कभी असफल हो सकते हैं
  • ऐसे समय आत्मसम्मानी व्यक्ति के लिए प्रकृति, साधना और एकांत ही शरणस्थान और सुख का कारण बनते हैं।
  • संदेश यह है कि कभी-कभी हार से भागना नहीं, बल्कि संसार से कुछ दूरी बनाना ही समाधान होता है।

👉 सार: “जब बाहरी जगत प्रतिकूल हो, तो भीतर का वन ही सबसे बड़ा आश्रय है।”



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