अस अभिमान जाइ जनि भोरे। मैं सेवक रघुपति पति मोरे ।।
सदैव बताया गया है की अभिमान एक बुरी वस्तु है पर सुतीक्ष्ण मुनि कहते हैं की उन्हें एक अभिमान है और उस अभिमान का उन्हें अभिमान है और वे उस अभिमान को छोड़ना भी नहीं चाहते है।
क्या है सुतीक्ष्ण का वह अभिमान ?
वह अभिमान है, राम की भक्ति । अत: आपलोग भी सब अभिमान छोड़ दीजिए पर अपने इष्ट की भक्ति का अभिमान कभी भी मत छोड़िए । राम मेरे प्रभु हैं और पूरे जीवन मैं उनका सेवक बना रहूँ । सुतीक्ष्ण की बात सुनकर –
सुनि मुनि बचन राम मन भाए।
बहुरि हरषि मुनिबर उर लाए ॥
परम प्रसन्न जानु मुनि मोही।
जो बर मागहु देउ सो तोही ॥
जब राम, सुतीक्ष्ण के मुँह से शुद्ध उपासना और भक्ति की परिभाषा सुनते हैं तो प्रसन्न होकर उसे अपने हृदय से लगा लेते हैं। और बोलते हैं की हे सुतीक्ष्ण, माँग जो भी तू माँगना चाहता है। तब सुतीक्ष्ण बोलते हैं –
मुनि कह मै बर कबहुँ न जाचा।
समुझिन पर झूठ का साचा॥
तुम्हहि नीक लागै रघुराई ।
सो मोहि देहु दास सुखदाई ॥
सुतीक्ष्ण मुनि पहली बात तो यह बोले की आज तक अपने जीवन में उन्होंने कुछ माँगा ही नही तो अब क्या माँगेंगे।
अब यहाँ एक बात ध्यान से देखिए, जो संत होता है, ऋषि होता है, मुनि होता है वह सब कुछ ईश्वर पर छोड़ देता है परन्तु दैत्य अपने लिए शक्ति और भोग माँगता है।
तन बोहत मन काग है, लक्ष योजन उड़ जाय ।
कबहु के धर्म अगम दयी, कबहुँ गगन समाय ।।
मनुष्य का शरीर विमान के समान है और मन काग के समान है कि कभी तो नदी में गोते मारता है और कभी आकाश में जाकर उड़ता है।
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अस अभिमान जाइ जनि भोरे। मैं सेवक रघुपति पति मोरे ।। |
दूसरी बात इंद्रिय ज्ञान से तत्व का ज्ञान तो हो नहीं सकता जैसे की आप एक पीत्सा या बर्गर मँगाकर खाँए पर इसकी कोई गारंटी नहीं है कि आपका पेट उससे ख़राब नहीं होगा। इसीलिए, सुतिक्ष्ण ने राम के उपर यह सब छोड़ दिया।
सुमिरन सों मन लाइए, जैसे दीप पतंग।
प्राण तजे छिन एक में, जरत न मोरै अंग॥
मन को सुमिरन में ऐसे लगाएँ जैसे दीपक से पतंगा लगाता है। वह निडर होकर क्षण भर में जल मरता है, लेकिन पीछे नहीं हटता। और भगवान ने क्या दे दिया, या यह सोचिए क्या नही दे दिया।
अबिरल भगति बिरति बिग्याना।
होहु सकल गुन ग्यान निधाना ॥
भगवान ने अविरल भक्ति, वैराग्य, संसार के विषयों का ज्ञान तथा ब्रह्मज्ञान सब कुछ दे दिया । इसके बाद चतुर सुतीक्ष्ण जी क्या बोलते हैं ?
प्रभु जो दीन्ह सो बरु मैं पावा
अब सो देहु मोहि जो भावा ॥
हे प्रभु जो आपने दिया वह सब मुझे मिल गया । भक्ति ज्ञान और उपासना सब कुछ मिल गया। अब जो मुझे चाहिए वह दो क्योकि हे भगवान, आपके द्वारा ब्रह्मज्ञान देने से मेरे अंदर अब माँगने की क्षमता आ गई है और मै अब कुछ माँगना चाहता हूँ ।
सुतीक्ष्ण बोलते हैं की हे राम, इस ज्ञान वैराग्य भक्ति की मुझे कोई आवश्यकता नही है और मुझे चाहिए तो केवल एक वस्तु और वह वस्तु तो तुम हो ।
अनुज जानकी सहित प्रभु चाप बान धर राम।
और मैं चाहता हूँ की तुम, सीता और अनुज के साथ, धनुष वाण के साथ मेरे हृदय में रहो। और लेकिन किस रूप में रूप में रहो, चंद्रमा के रूप में ।
मम हिय गगन इंदु इव बसहु सदा निकाम ॥
सूक्ष्म दृष्टि से आपको सोचना पड़ेगा। तुलसीदास क्या कह रहे हैं।तुलसीदास कह रहे है वह ऐसा चंद्रमा नही चाहते है जो धरती से दिखता है । क्योकि धरती पर वह चंद्रमा तो शुक्ल पक्ष मे बड़ा हो जाता है और कृष्ण पक्ष में छोटा हो जाता है और आमवस्या में दिखाई ही नहीं पड़ता । अतः मुझे वह चंद्रमा चाहिये जो उपर से दिखता है, पूरा और सदैव पूरा रहता है।
इस एक छोटी सी पंक्ति ने यह सिद्ध कर दिया की हमारे ऋषियों को चंद्रमा की छोटाई बड़ाई का विज्ञान पूरी तरह से ज्ञात था जब युरोप चपटी धरती पर घूम रहा था। तो "बसहु सदा" पर ध्यान रखिएगा ।
एवमस्तु करि रमानिवासा।
हरषि चले कुभंज रिषि पासा।।
बहुत दिवस गुर दरसन पाएँ ।
भए मोहि एहिं आश्रम आएँ ।।
इसके पीछे एक प्रसंग है। जब सुतिक्ष्ण जी का शिक्षा पूरी हो गई तो उन्होंने अगत्स्य मुनि से गुरू दक्षिणा माँगने का अनुरोध किया, पर अगस्त्य मुनि को पता था की इसके पास कुछ भी नहीं देने को इसलिए वह बात टालना चाह रहे थे। पर सुतिक्ष्ण ज़िद पर अड़ गया की अगस्त्य जी उससे कुछ न कुछ अवशय लें ।
अब देखिए, अगस्त्य जी को क्रोध तो आया फिर भी शिष्य के कल्याण की भावना बनी रही और बोला की ठीक है जाओ और ईश्वर को लेकर आओ ।
और सुतीक्ष्ण वही कहते है राम से की एक बार आप और लक्ष्मण जी और सीता जी उनके साथ उनके गुरू के आश्रम चले चलें । भगवान श्री कृष्ण जी गीता में कहते हैं कि –
ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्परा: ।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासने ।।
लेकिन जो अपने सभी कर्मों को मुझे समर्पित करते हैं और मुझे परम लक्ष्य समझकर मेरी आराधना करते हैं और अनन्य भक्ति भाव से मेरा ध्यान करते हैं,
तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्।
भवामि नचिरात्पार्थ मयावेशिचेतसाम्।।
मन को मुझमें स्थिर कर अपनी चेतना को मेरे साथ एकीकृत कर देते हैं। हे पार्थ! मैं उन्हें शीघ्र जन्म-मृत्यु के सागर से पार कर उनका उद्धार करता हूँ।