चतुःश्लोकी भागवत (Chatushloki Bhagavat) – वे 4 श्लोक जिनसे श्रीमद्भागवत महापुराण (Shrimad Bhagavat Mahapuran) की रचना हुई
चतुःश्लोकी भागवत (Chatushloki Bhagavat) वे 4 दिव्य श्लोक हैं जिन्हें भगवान नारायण ने ब्रह्माजी को उपदेश स्वरूप दिया। इन्हीं चार श्लोकों का विस्तार करके अठारह हजार श्लोकों का श्रीमद्भागवत महापुराण (Shrimad Bhagavat Mahapuran) रचा गया। इन श्लोकों में ब्रह्म का स्वरूप, माया का रहस्य, जगत की वास्तविकता और परमात्मा की प्राप्ति का साधन स्पष्ट किया गया है। जानिए कैसे केवल चार श्लोकों में सम्पूर्ण वेदांत का सार समाया है और क्यों इन्हें प्रतिदिन पढ़ना साधक के लिए आवश्यक बताया गया है। यह लेख चतुःश्लोकी भागवत के प्रत्येक श्लोक का शाब्दिक अर्थ, भावार्थ, दार्शनिक सन्दर्भ और आधुनिक जीवन में महत्व समझाता है।
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| चतुःश्लोकी भागवत (Chatushloki Bhagavat) – वे 4 श्लोक जिनसे श्रीमद्भागवत महापुराण (Shrimad Bhagavat Mahapuran) की रचना हुई |
चतुःश्लोकी भागवत : विस्तृत शैक्षणिक विवेचन
१. ब्रह्म का स्वरूप
श्लोक 1
शाब्दिक अर्थ
- अहम् = मैं (परमात्मा)
- एव आसम् = केवल मैं ही था
- अग्रे = प्रारम्भ में, सृष्टि के पहले
- नान्यत् यत् = और कोई नहीं था
- सत्-असत्-परम् = न स्थूल (सत्), न सूक्ष्म (असत्), और न ही अव्यक्त
- पश्चात् अहम् = पश्चात् भी मैं ही हूँ
- यत् एतत् = जो कुछ यह दृश्य जगत है
- योऽवशिष्येत = जो शेष रहेगा (प्रलय के बाद)
- सः अस्मि अहम् = वही मैं हूँ।
व्याकरणिक विश्लेषण
- "अहम् एव आसम्" → अहम् (प्रथम पुरुष एकवचन) + एव (निश्चयार्थक अव्यय) + आसम् (लङ् लकार, प्रथम पुरुष एकवचन, धातु √अस् "होना")।
- "नान्यत् यत्" → न + अन्यत् (निषेध + सर्वनाम)।
- "योऽवशिष्येत" → यः (यद्-प्रत्यय, सम्बोधन) + अवशिष्येत (लोट् लकार, मध्यम पुरुष, √शिष् "शेष रहना")।
भावार्थ
सृष्टि से पूर्व केवल भगवान ही विद्यमान थे। न सूक्ष्म प्रकृति थी, न स्थूल जगत और न ही अव्यक्त। आज जगत में जो कुछ दिखाई दे रहा है, वह भी वही हैं और प्रलय के पश्चात् भी वही शेष रहेंगे।
दार्शनिक सन्दर्भ
- छान्दोग्य उपनिषद् (६.२.१) — "सद् एव सोम्येदमग्र आसीत्" : आरम्भ में केवल सत् (ब्रह्म) ही था।
- गीता (९.४) — "मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना" : यह सम्पूर्ण जगत मुझसे व्याप्त है।
आधुनिक सन्दर्भ
यह श्लोक हमें सिखाता है कि जीवन की क्षणभंगुरता में भी एक अपरिवर्तनशील सत्ता (आत्मा/ईश्वर) सदा विद्यमान रहती है। यही स्थिरता हमें मानसिक शांति और आत्मविश्वास प्रदान करती है।
२. माया का स्वरूप
श्लोक 2
शाब्दिक अर्थ
- ऋते अर्थम् = वस्तु के बिना
- यत् प्रतीयेत = जो प्रतीत हो
- न प्रतीयेत आत्मनि = आत्मा में वास्तव में न हो
- तत् विद्यात् = उसे जानना चाहिए
- आत्मनः मायाम् = परमात्मा की माया
- यथा आभासः = जैसे आभास (मृगतृष्णा)
- यथा तमः = जैसे अज्ञान का अन्धकार।
व्याकरणिक विश्लेषण
- "ऋते" → अव्यय, "विना" के अर्थ में।
- "प्रतीयेत" → √ई "जाना" का लोट् लकार, मध्यम पुरुष।
- "विद्यात्" → लोट् लकार, मध्यम पुरुष, धातु √विद् "जानना"।
भावार्थ
माया वही है, जो वास्तव में न होते हुए भी प्रतीत होती है। जैसे रस्सी में अज्ञानवश साँप का भ्रम। अज्ञान प्रत्यक्ष दिखाई नहीं देता, फिर भी उसी से भ्रांति उत्पन्न होती है।
दार्शनिक सन्दर्भ
- वेदान्त सूत्र (२.१.१४) — "अविद्योपादानत्वात्" : जगत अविद्या (माया) के कारण उत्पन्न प्रतीत होता है।
- गीता (७.१४) — "दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया" : यह मेरी माया है, जिसे पार करना कठिन है।
आधुनिक सन्दर्भ
माया का अर्थ है—भ्रम और मोह। आज के जीवन में जब हम बाह्य जगत की आभासी चमक-दमक में उलझ जाते हैं, तो सत्य का बोध नहीं होता। यह श्लोक हमें सचेत करता है कि हम स्थायी सत्य (ईश्वर/आत्मा) को पहचानें।
३. जगत का स्वरूप
श्लोक 3
शाब्दिक अर्थ
- यथा = जैसे
- महान्ति भूतानि = पंचमहाभूत
- भूतेषु = छोटे-छोटे पदार्थों में
- उच्च-अवचेषु अनु = बड़े-छोटे सभी रूपों में
- प्रविष्टानि अप्रविष्टानि = प्रवेश किए हुए भी और न भी किए हुए
- तथा = उसी प्रकार
- तेषु न तेषु अहम् = मैं जगत में भी हूँ और उसमें नहीं भी हूँ।
व्याकरणिक विश्लेषण
- "प्रविष्टानि" → क्त-प्रत्ययान्त, धातु √विश् "प्रवेश करना"।
- "अप्रविष्टानि" → निषेधपूर्वक वही धातु।
- "अहम्" → कर्ता, परमात्मा।
भावार्थ
जगत पंचमहाभूतों से बना है। जैसे मिट्टी घड़े में है परन्तु घड़ा केवल मिट्टी ही है, वैसे ही सम्पूर्ण जगत में भगवान ही हैं। वे जगत में प्रवेश किए हुए भी हैं और उससे परे भी हैं।
दार्शनिक सन्दर्भ
- गीता (९.५) — "न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम्" : सभी प्राणी मुझमें हैं, फिर भी वास्तव में मैं उनमें स्थित नहीं हूँ।
- तैत्तिरीय उपनिषद् (२.६.१) — "सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म" : जगत का आधार वही अनन्त ब्रह्म है।
आधुनिक सन्दर्भ
यह श्लोक हमें सिखाता है कि ब्रह्मांड में जो कुछ भी है, उसका वास्तविक स्वरूप ईश्वर ही है। इसलिए सभी में ईश्वर का दर्शन करके हम अहंकार, भेदभाव और द्वेष से मुक्त हो सकते हैं।
४. ब्रह्मप्राप्ति का साधन
श्लोक 4
शाब्दिक अर्थ
- एतावत् एव = इतना ही
- जिज्ञास्यम् = जानने योग्य
- तत्त्व-जिज्ञासुना आत्मनः = आत्मा का तत्त्व जानने वाले के लिए
- अन्वय-व्यतिरेकाभ्याम् = अन्वय (संबंध से) और व्यतिरेक (अभाव से) की विधि द्वारा
- यत् स्यात् सर्वत्र सर्वदा = जो सदा और सर्वत्र विद्यमान है।
व्याकरणिक विश्लेषण
- "जिज्ञास्यम्" → जिज्ञासु (इच्छा रखने वाला) से भावे प्रयोग।
- "अन्वय" = सम्बन्ध होना, "व्यतिरेक" = पृथकता होना।
भावार्थ
साधक को केवल परम तत्त्व की ही जिज्ञासा करनी चाहिए। उसे अन्वय और व्यतिरेक की पद्धति से जाना जा सकता है। जगत रहे या न रहे, पर आत्मा सदैव रहता है।
दार्शनिक सन्दर्भ
- गीता (२.१६) — "नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः" : असत् का अस्तित्व नहीं और सत् का कभी अभाव नहीं।
- बृहदारण्यक उपनिषद् (४.४.५) — "आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यः मन्तव्यः निदिध्यासितव्यः" : आत्मा को देखना, सुनना, विचारना और ध्यान करना चाहिए।
आधुनिक सन्दर्भ
यह श्लोक हमें बताता है कि जीवन का उद्देश्य केवल परम सत्य की खोज होना चाहिए। भौतिक वस्तुएँ आती-जाती रहती हैं, परन्तु आत्मा और ईश्वर सदा स्थिर हैं। यही ज्ञान शांति और मोक्ष का मार्ग है।
समापन
चतुःश्लोकी भागवत सम्पूर्ण वेदान्त और भागवत दर्शन का सार है।
- पहला श्लोक ब्रह्म को बताता है।
- दूसरा श्लोक माया का रहस्य खोलता है।
- तीसरा श्लोक जगत का स्वरूप प्रकट करता है।
- चौथा श्लोक ब्रह्मज्ञान की साधना का उपाय देता है।
यही कारण है कि अठारह हजार श्लोकों वाली भागवत महापुराण का मूल आधार यही चार श्लोक हैं।
✅ FAQs on Chatushloki Bhagavat
1. चतुःश्लोकी भागवत (Chatushloki Bhagavat) क्या है?
👉 यह श्रीमद्भागवत महापुराण का सार है, जिसमें भगवान नारायण ने ब्रह्माजी को केवल चार श्लोकों में सम्पूर्ण वेदांत का ज्ञान दिया।
2. चतुःश्लोकी भागवत के श्लोक कहाँ मिलते हैं?
👉 यह श्लोक श्रीमद्भागवत महापुराण, द्वितीय स्कंध, नवम अध्याय (2.9.33–36) में मिलते हैं।
3. इन चार श्लोकों में कौन-कौन से विषय समझाए गए हैं?
👉 (1) ब्रह्म का स्वरूप, (2) माया का स्वरूप, (3) जगत का स्वरूप, और (4) ब्रह्मप्राप्ति का साधन।
4. चतुःश्लोकी भागवत किसे सुनाई गई थी?
👉 भगवान नारायण ने यह ज्ञान ब्रह्माजी को दिया।
5. श्रीमद्भागवत महापुराण में अठारह हजार श्लोक क्यों हैं, जबकि मूल तो केवल चार श्लोक हैं?
👉 क्योंकि इन चार श्लोकों का विस्तार करते-करते नारद, व्यास और शुकदेव जी ने इसे 18,000 श्लोकों में समझाया।
6. चतुःश्लोकी भागवत का प्रथम श्लोक किस विषय पर है?
👉 प्रथम श्लोक ब्रह्म के स्वरूप का वर्णन करता है – सृष्टि से पहले, दौरान और प्रलय के बाद भी केवल भगवान ही विद्यमान हैं।
7. दूसरा श्लोक किस विषय को स्पष्ट करता है?
👉 दूसरा श्लोक माया के स्वरूप को बताता है – जो वास्तव में नहीं होती, पर प्रतीत होती है, जैसे रस्सी में साँप का भ्रम।
8. तीसरे श्लोक का क्या संदेश है?
👉 तीसरे श्लोक में जगत का स्वरूप बताया गया है – जगत पंचमहाभूतों से बना है, लेकिन उसका आधार परमात्मा ही हैं।
9. चौथा श्लोक साधक को क्या सिखाता है?
👉 चौथा श्लोक ब्रह्मज्ञान प्राप्ति का उपाय बताता है – अन्वय और व्यतिरेक की पद्धति से परमात्मा को समझना चाहिए।
10. क्या चतुःश्लोकी भागवत का प्रतिदिन पाठ करना आवश्यक है?
👉 हाँ, शुकदेव जी ने कहा है कि यदि सम्पूर्ण भागवत न भी पढ़ें, तो इन चार श्लोकों का प्रतिदिन स्मरण अवश्य करना चाहिए, क्योंकि इनमें सम्पूर्ण वेदान्त का सार है।

