शिक्षा में बाज़ारवाद और मूल्य शिक्षा | Education, Marketization & Moral Values

Sooraj Krishna Shastri
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शिक्षा में बाज़ारवाद और मूल्य शिक्षा | Education, Marketization & Moral Values

शिक्षा किसी भी राष्ट्र की आत्मा है, पर आज इसका स्वरूप बदलकर बाज़ारवाद से प्रभावित हो गया है। विद्यार्थी को ग्राहक और शिक्षक को विक्रेता मानने की प्रवृत्ति शिक्षा के मूल उद्देश्य को नुकसान पहुँचा रही है। इस लेख में शिक्षा में बाज़ारवाद की चुनौतियों, गुरु-शिष्य संबंध की मर्यादा, आधुनिक अपेक्षाओं और मूल्य शिक्षा की आवश्यकता पर विस्तार से विचार किया गया है। शिक्षा केवल रोजगार पाने का साधन नहीं, बल्कि चरित्र निर्माण, संस्कार और नैतिक मूल्यों का संवाहक है। यदि शिक्षा को केवल लेन-देन और प्रतिस्पर्धा का क्षेत्र बना दिया जाएगा, तो समाज दिशाहीन हो जाएगा। शिक्षा का दायित्व केवल शिक्षक का नहीं, बल्कि अभिभावक, समाज और शासन का भी है। सामूहिक प्रयास से ही शिक्षा को सही दिशा मिल सकती है। यह लेख दिखाता है कि बदलते युग में तकनीक और आधुनिकता को स्वीकारते हुए भी मूल्य शिक्षा को जीवित रखना कितना आवश्यक है। बाज़ारवाद और मूल्यों के बीच संतुलन ही शिक्षा को सार्थक बना सकता है।


निबन्ध: शिक्षा में बाज़ारवाद और मूल्य शिक्षा

प्रस्तावना

शिक्षा किसी भी राष्ट्र की आत्मा है। यह केवल रोजगार प्राप्त करने का साधन नहीं, बल्कि मानवीय मूल्यों और संस्कारों का संवाहक भी है। परंतु आधुनिक युग में शिक्षा पर बाज़ारवाद का गहरा प्रभाव दिखाई देता है। विद्यालय और विश्वविद्यालय अब ज्ञान-आश्रम कम, और व्यवसायिक प्रतिष्ठान अधिक प्रतीत होने लगे हैं। इस स्थिति में सबसे बड़ा प्रश्न है—क्या शिक्षा अपनी वास्तविक दिशा से भटक रही है?

शिक्षा में बाज़ारवाद और मूल्य शिक्षा | Education, Marketization & Moral Values
शिक्षा में बाज़ारवाद और मूल्य शिक्षा | Education, Marketization & Moral Values



1. शिक्षा और बाज़ारवाद

  • बाज़ारवाद का स्वरूप – शिक्षा को वस्तु बनाकर प्रस्तुत करना, जहाँ विद्यार्थी ‘ग्राहक’ और शिक्षक ‘विक्रेता’ की भूमिका में दिखाई देने लगते हैं।
  • परिणाम
    • शिक्षा का लक्ष्य रोजगार-केन्द्रित होकर रह गया है।
    • नैतिकता, संस्कार और मानवीय दृष्टिकोण पीछे छूटने लगे हैं।
    • विद्यालय/महाविद्यालय शुल्क और परिणामों के आँकड़ों में प्रतिस्पर्धा करने लगे हैं।

2. मूल्य शिक्षा की आवश्यकता

  • मूल्य शिक्षा ही वह आधार है, जो विद्यार्थी को केवल ज्ञानवान ही नहीं, बल्कि चरित्रवान और जिम्मेदार नागरिक भी बनाती है।
  • गुरु-शिष्य परंपरा का वास्तविक अर्थ केवल पाठ पढ़ाना नहीं, बल्कि जीवन जीने की कला सिखाना है।
  • यदि शिक्षा से मूल्य अलग हो जाएँ, तो समाज में भ्रष्टाचार, स्वार्थ, और अनैतिकता का बोलबाला बढ़ेगा।

3. गुरु-शिष्य संबंध की पवित्रता

  • परंपरागत शिक्षा में गुरु और शिष्य का संबंध व्यापारिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक माना गया।
  • आधुनिक परिप्रेक्ष्य में भी, यदि शिक्षक और विद्यार्थी का संबंध सम्मान, विश्वास और मर्यादा पर आधारित हो, तो शिक्षा की गुणवत्ता स्वतः बढ़ेगी।
  • कवयित्री डॉ. निशा कान्त द्विवेदी की कविता में यही संदेश मिलता है कि गुरु-शिष्य को केवल गुरु-शिष्य ही रहने दिया जाए, न कि विक्रेता-क्रेता।

4. शिक्षा का सामूहिक उत्तरदायित्व

  • शिक्षा की सफलता के लिए केवल शिक्षक ही उत्तरदायी नहीं है।
  • अभिभावक, समाज और शासन की भी समान जिम्मेदारी है।
  • यदि सब मिलकर कार्य करें, तो ही शिक्षा में सार्थक और स्थायी सुधार संभव है।

5. समाधान – शिक्षा में संतुलन

  • आधुनिक युग की आवश्यकताओं को स्वीकार करते हुए शिक्षा में तकनीक और नवाचार को स्थान देना होगा।
  • परंतु साथ ही नैतिक मूल्यों और सांस्कृतिक परंपराओं को भी जीवित रखना होगा।
  • पाठ्यक्रम में मूल्य शिक्षा, जीवन कौशल, और सामाजिक उत्तरदायित्व को प्रमुखता दी जानी चाहिए।
  • शिक्षक को केवल पढ़ाने वाला नहीं, बल्कि मार्गदर्शक और आदर्श के रूप में स्थापित करना होगा।

उपसंहार

बाज़ारवाद की आँधी में शिक्षा को बचाने का एकमात्र उपाय है—मूल्यों को जीवित रखना।
यदि शिक्षा केवल व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा बनकर रह जाएगी तो समाज दिशाहीन हो जाएगा। परंतु यदि शिक्षा में गुरु-शिष्य की मर्यादा, संस्कार और नैतिकता का प्रकाश जीवित रहेगा, तो हर नई चुनौती का समाधान संभव होगा।

इस संदर्भ में डॉ. निशा कान्त द्विवेदी की पंक्तियाँ हमें स्मरण कराती हैं—

“पर मूल्यों को ताक पर रखकर शिक्षा आगे कहाँ बढ़ेगी?
गुरु-शिष्य की मर्यादा को दरकिनार कर कहाँ रहेगी?”

यही संदेश हमें शिक्षा के सही पथ की ओर अग्रसर करता है।


"शिक्षक पर ठीकरा फोड़कर कब तक कन्नी काट सकेंगे" पूरी कविता 

शिक्षक पर ठीकरा फोड़कर कब तक कन्नी काट सकेंगे

जिम्मेदारी एक दूजे पर कब तक यूँ ही टाल सकेंगे?


जिसे आज हम छात्र कह रहे वे पहले से बहुत अलग हैं,

उन्हें संभालने वाले सबके पंख कटे, वे अलग-थलग हैं।


एक बार मिल बैठ के सोचें युग प्रभाव को भी स्वीकारें,

शिक्षक अधिकारी समाज मिल सार्थक हल का पक्ष विचारें।


हम शिक्षक तैयार सदा हैं कर्त्तव्यों से नहीं हटेंगे ,

देश और समाज के खातिर कदम हमारे सदा बढ़ेंगे।


पर मूल्यों को ताक पर रखकर शिक्षा आगे कहाँ बढ़ेगी..

गुरु शिष्य की मर्यादा को दरकिनार कर कहाँ रहेगी..?


कब तक विक्रेता क्रेता कह हम गुरु-शिष्य को बतलाएंगे,

गुरु- शिष्य को गुरु- शिष्य ही रखकर राह दिखा पाएंगे।


बदला युग और नई अपेक्षा नई चुनौती दिखलाएगा,

मूल्यों को जीवित रखने से समाधान भी मिल पाएगा।

   ✍️ डॉ निशा कान्त द्विवेदी 🙏

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