शरीर से परे "मैं" का अस्तित्व | Atma aur Sharir ka Rahasya (Soul Beyond Body)

Sooraj Krishna Shastri
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शरीर से परे "मैं" का अस्तित्व | Atma aur Sharir ka Rahasya (Soul Beyond Body)

शरीर से परे "मैं" का अस्तित्व क्या है? क्या हम केवल यह नश्वर शरीर हैं या शाश्वत आत्मा (Soul) का अंश? इस लेख में गीता, उपनिषद और भारतीय दर्शन के आधार पर आत्मा और शरीर (Atma & Sharir) के रहस्य को विस्तार से समझाया गया है। बचपन, जवानी और बुढ़ापे की अवस्थाओं से गुजरता शरीर परिवर्तनशील है, पर आत्मा (Soul) न जन्म लेती है न मृत्यु। उपनिषद कहते हैं – "अहम् ब्रह्मास्मि" अर्थात् आत्मा ही परमात्मा का अंश है। गीता स्पष्ट करती है – "न जायते म्रियते वा कदाचित्", आत्मा शाश्वत और अमर है। यदि हम स्वयं को केवल शरीर मानें तो जीवन दुःख और मृत्यु तक सीमित प्रतीत होता है। पर जब हम आत्मा का बोध करते हैं तो जीवन का लक्ष्य मोक्ष, शांति और आनंद बन जाता है। यह लेख आपको बताएगा कि वास्तविक “मैं” कौन हूँ और जीवन का अंतिम सत्य क्या है।


✨ शरीर से परे मैं का अस्तित्व ✨

मैं क्या हूँ? मैं कौन हूँ? मैं क्यों हूँ? इस छोटे से प्रश्न का सही समाधान न कर सकने के कारण ‘मैं’ को कितनी विषम विडम्बनाओं में उलझना पड़ता है और विभीषिकाओं में संत्रस्त होना पड़ता है। यदि यह समय रहते समझा जा सके तो हम वह न रहें, जो आज हैं। वह न सोचें जो आज सोचते हैं। वह न करें जो आज करते हैं।

शरीर से परे "मैं" का अस्तित्व | Atma aur Sharir ka Rahasya (Soul Beyond Body)
शरीर से परे "मैं" का अस्तित्व | Atma aur Sharir ka Rahasya (Soul Beyond Body)



हम कितने बुद्धिमान हैं कि धरती आकाश का चप्पा-चप्पा छान डाला और प्रकृति के रहस्यों को प्रत्यक्ष करके सामने रख दिया। इस बुद्धिमत्ता की जितनी प्रशंसा की जाय उतनी कम, और अपने आपके बारे में जितनी उपेक्षा बरती गई उसकी जितनी निन्दा की जाय वह भी कम ही है।

उपनिषदों ने कहा –
“नेति-नेति” – अर्थात् “यह नहीं, यह नहीं।”
जो दिखाई देता है, जो बदलता है, वह "मैं" नहीं हूँ।


जिस काया को शरीर समझा जाता है क्या यही मैं हूँ? क्या कष्ट, चोट, भूख, शीत, आतप आदि से पग-पग पर व्याकुल होने वाला, अपनी सहायता के लिए दूसरों पर निर्भर रहने वाला ही मैं हूँ? दूसरों की सहायता के बिना जिसके लिए जीवन धारण कर सकना कठिन हो – जिसकी सारी हँसी-खुशी और प्रगति दूसरों की कृपा पर निर्भर हो, क्या वही असहाय, असमर्थ मैं हूँ? मेरी आत्मनिर्भरता क्या कुछ भी नहीं है? यदि शरीर ही मैं हूँ तो निस्सन्देह अपने को सर्वथा पराश्रित और दीन, दुर्बल ही माना जाना चाहिए।

गीता (२.१६):

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।
असत्य का अस्तित्व नहीं है, और सत्य का कभी अभाव नहीं होता।


परसों पैदा हुआ, खेल-कूद, पढ़ने-लिखने में बचपन चला गया। कल जवानी आई थी। नशीले उन्माद की तरह आँखों में, दिमाग में छाई रही। चञ्चलता और अतृप्ति से बेचैन बनाये रही। आज ढलती उम्र आ गई। शरीर ढलने गलने लगा। इन्द्रियाँ जवाब देने लगीं। सत्ता बेटे-पोतों के हाथ चली गई। लगता है एक उपेक्षित और निरर्थक जैसी अपनी स्थिति है।

गीता (२.१३):

देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति॥
जैसे शरीर में बाल्य, यौवन और जरा आती हैं, वैसे ही मृत्यु के बाद आत्मा नया शरीर धारण करती है।


अपाहिज और अपंग की तरह कटने वाली जिन्दगी कितनी भारी पड़ेगी। यह सोचने को जी नहीं चाहता। वह डरावना और घिनौना दृश्य एक क्षण के लिए भी आँखों के सामने आ खड़ा होता है, रोम-रोम काँपने लगता है। पर उस अवश्यंभावी भवितव्यता से बचा जाना सम्भव नहीं। जीवित रहना है तो इसी दुर्दशाग्रस्त स्थिति में पिसना पड़ेगा। बच निकलने का कोई रास्ता नहीं। क्या यही मैं हूँ? क्या इसी निरर्थक विडम्बना के कोल्हू के चक्कर काटने के लिए ही ‘मैं’ जन्मा? क्या जीवन का यही स्वरूप है? मेरा अस्तित्व क्या इतना ही तुच्छ है?


आत्मचिन्तन कहेगा – नहीं-नहीं-नहीं। आत्मा इतना हेय और हीन नहीं हो सकता। वह इतना अपंग और असमर्थ-पराश्रित और दुर्बल कैसे होगा? यह तो प्रकृति के पराधीन पेड़-पौधों जैसा, मक्खी-मच्छरों जैसा जीवन हुआ। क्या इसी को लेकर – मात्र जीने के लिए मैं जन्मा? सो भी जीना ऐसा जिसमें न चैन, न खुशी, न शान्ति, न आनन्द, न सन्तोष। यदि आत्मा सचमुच परमात्मा का अंश है तो वह ऐसी हेय स्थिति में पड़ा रहने वाला हो ही नहीं सकता।

छांदोग्य उपनिषद् (६.८.७):

तत्त्वमसि श्वेतकेतो॥
हे श्वेतकेतु! तू वही ब्रह्म है।


नास्तिकों के प्रतिपादन के अनुसार या तो पाँच तत्वों के प्रवाह में एक ‘भँवर’ जैसी, ‘बबूले’ जैसी क्षणिक काया लेकर उपज पड़ा हूँ और अगले ही क्षण विस्मृति गर्त में समा जाने वाला हूँ। या फिर कुछ हूँ तो इतना तुच्छ और अपंग हूँ जिसमें उल्लास और सन्तोष जैसा – गर्व और गौरव जैसा – कोई तत्व नहीं है। यदि मैं शरीर हूँ तो – हेय हूँ। अपने लिए और इस धरती के लिए भारभूत हूँ।

परन्तु कठोपनिषद् (२.१८):

न जायते म्रियते वा विपश्चिन्
नायं कुतश्चिन्न बभूव कश्चित्।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो
न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥
ज्ञानी आत्मा न जन्म लेता है, न मरता है। वह अजन्मा, नित्य और शाश्वत है। शरीर के नष्ट होने पर भी आत्मा का नाश नहीं होता।


मैं यदि शरीर हूँ तो उसका अन्त क्या है? लक्ष्य क्या है? परिणाम क्या है? मृत्यु – मृत्यु – मृत्यु।
कल नहीं तो परसों वह दिन तेजी से आँधी-तूफ़ान की तरह उड़ता उमड़ता चला आ रहा है, जिसमें आज की मेरी यह सुन्दर सी काया – जिसे मैंने अत्यधिक प्यार किया, जिसमें मैं पूरी तरह समर्पित हो गया – अब वह मुझसे विलग हो जाएगी, अस्तित्व भी गँवा बैठेगी।

गीता (२.२७):

जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
जन्म लेने वाले की मृत्यु निश्चित है, और मृतक का पुनर्जन्म भी निश्चित है।


काया में घुला हुआ ‘मैं’ – मौत के एक ही थपेड़े में कितना कुरूप, कितना विकृत, कितना निरर्थक, कितना घृणित हो जाएगा कि उसे प्रिय परिजन तक – कुछ समय और उसी घर में रखने के लिए सहमत न होंगे, जिसे मैंने ही कितने अरमानों से बनाया था। कल वाला ही तो मैं हूँ, फिर आज वह देह सबको असह्य क्यों है?

बृहदारण्यक उपनिषद् (१.४.१०):

अहम् ब्रह्मास्मि॥
मैं ब्रह्म हूँ।
यह सत्य बताता है कि आत्मा शरीर नहीं, बल्कि स्वयं परम सत्य का अंश है।


उपसंहार

अतः निष्कर्ष यही है कि –
👉 "मैं" शरीर नहीं हूँ।
👉 "मैं" आत्मा हूँ – शुद्ध, बुद्ध, नित्य और मुक्त।
👉 मृत्यु केवल शरीर का त्याग है, आत्मा का अंत नहीं।

गीता (१५.७):

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।
जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश है।

इसलिए मेरा वास्तविक अस्तित्व परमात्मा से जुड़ा है। वही मेरा मूल है, वही मेरा लक्ष्य है।

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