Surdas Ji Bhakti Pad & Self-Realization: मो सम कौन कुटिल खल कामी – सूरदास जी की आत्मस्वीकृति

Sooraj Krishna Shastri
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सूरदास जी का पद "मो सम कौन कुटिल खल कामी" गहन आत्मस्वीकार और भक्ति की विनम्रता का प्रतीक है। इस लेख में भावार्थ, गीता श्लोकों से संदर्भ, जीवन के लिए सिद्धांत और व्यवहारिक साधना विस्तार से समझें।


Surdas Ji Bhakti Pad & Self-Realization: मो सम कौन कुटिल खल कामी – सूरदास जी की आत्मस्वीकृति 

पद्यांश

मो सम कौन कुटिल खल कामी।
जेहिं तनु दियौ ताहिं बिसरायौ, ऐसौ नमकहरामी॥

भरि भरि उदर विषय कों धावौं, जैसे सूकर ग्रामी।
हरिजन छांड़ि हरी-विमुखन की निसदिन करत गुलामी॥

पापी कौन बड़ो है मोतें, सब पतितन में नामी।
सूर, पतित कों ठौर कहां है, सुनिए श्रीपति स्वामी॥


भावार्थ

जय श्री राम प्रभु भक्तों

सूरदास जी यहां अपने मन की बुराइयों को उजागर कर रहे हैं और साथ ही उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण से कृपा करने की प्रार्थना भी कर रहे है।

सूरदास जी कहते हैं कि इस दुनिया में मेरे जैसा पापी दूसरा कोई नहीं है। मैंने मोह माया के बंधन में फंसे हुए इस शरीर को ही सच्चा सुख समझ लिया है। मैं नमक हराम हूं, जो इस धरती पर लाने वाले को ही भूल गया हूं।

मैं गंदगी में रहने वाले सूअर की तरह अपनी बुरी आदतों में फंसा हुआ हूं। मैं बहुत ही पापी हूं। मैं सज्जनों की संगति में नहीं बैठा। हमेशा झूठे और मक्कारो की गुलामी की। इस प्रकार सूरदास जी अपनी बुराइयों को श्रीकृष्ण के सामने व्यक्त करते हुए उनसे आश्रय की प्रार्थना करते हैं।

Surdas Ji Bhakti Pad & Self-Realization: मो सम कौन कुटिल खल कामी – सूरदास जी की आत्मस्वीकृति
Surdas Ji Bhakti Pad & Self-Realization: मो सम कौन कुटिल खल कामी – सूरदास जी की आत्मस्वीकृति



साधना का सिद्धांत

एक सिद्धांत और समझे रहना चाहिये। हम जितने क्षण मन को भगवान में रखते हैं बस, उतने क्षण ही हमारे सही हैं। शेष सब समय पाप ही तो करेंगे।

इस प्रकार 24 घण्टे में कितनी देर हमारा मन भगवान में रहता है, सोचो। बार बार सोचना है कि मेरे पूर्व जन्मों के अनन्त पाप संचित कर्म के रूप में मेरे साथ हैं। पुन: इस जन्म के भी अनन्त पाप साथ हैं फिर भी हम भगवान के आगे आँसू बहा कर क्षमा नहीं माँगते।

धिक्कार है, मेरी बुद्धि को। बार-बार प्रतिज्ञा करना है कि अब पुन: किसी के सदोष कहने पर बुरा नहीं मानेंगे। अभ्यास से ही सफलता मिलेगी।

प्रतिदिन सोते समय सोचो- आज हमने कितनी बार ऐसे अपराध किये। दूसरे दिन सावधान होकर अपराध से बचो। ऐसे ही अभ्यास करते-करते बुरा मानना बन्द हो जाएगा।


शास्त्रीय सन्दर्भ

श्रीकृष्ण हृदय में स्थित हैं

सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्त: स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च ।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ।।

भगवान श्री कृष्ण जी कहते हैं कि मैं समस्त जीवों के हृदय में निवास करता हूँ और मुझसे ही स्मृति, ज्ञान और विस्मृति होती है। केवल मैं ही सभी वेदों द्वारा जानने योग्य हूँ, मैं वेदांत का रचयिता और वेदों का अर्थ जानने वाला हूँ।


उद्धव संहिता

त्वत्तो ज्ञानं हि जीवानां प्रमोषस्तेऽत्र शक्तित: ।
त्वमेव ह्यात्ममायाया गतिं वेत्थ न चापर: ॥

यहां उद्धव जी भगवान श्री कृष्ण जी से कहते हैं कि केवल आपसे जीवों में ज्ञान का उदय होता है और आपकी ही शक्ति से ज्ञान विलुप्त हो जाता है।


अर्जुन संवाद

अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूतहृदये स्थितः
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च"

भगवान श्री कृष्ण कहते हैं, "हे अर्जुन! मैं सभी प्राणियों के हृदय में स्थित आत्मा हूँ, और मैं ही सभी जीवों का आदि, मध्य और अंत हूँ"।


साधना का अभ्यास

यह भी सोचो कि श्रीकृष्ण हृदय में बैठकर हमारे आइडियाज़ नोट करते हैं। यदि हम फ़ील करेंगे तो वे कृपा कैसे करेंगे।

सदा सर्वत्र यह महसूस करने से दोष कम होंगे और इष्टदेव का बार-बार चिन्तन भी होता रहेगा।

निन्दनीय के प्रति भी दुर्भावना न होने पाये क्योंकि उसके हृदय में भी तो श्रीकृष्ण हैं। निन्दनीय से उदासीन भाव रहे, दुर्भावना न हो। यह प्रार्थना बार-बार करो।


दीनभाव की प्रार्थना

यदि दैन्यं त्वत्कृपाहेतुर्न तदस्ति ममाण्वपि।
तां कृपां कुरु राधेश ययाते दैन्य माप्नुयाम्॥

अर्थात् "हे श्री कृष्ण! यदि दीनता से ही तुम कृपा करते हो तो वह तो मेरे पास थोड़ी भी नहीं है। अत: पहले ऐसी कृपा करो कि दीन भाव युक्त बनूँ।"

ऐसा कह कर आंसू बहाओ। यह करना पड़ेगा। मानवदेह क्षणिक है। जल्दी करो, पता नहीं कब टिकट कट जाय।


माया का प्रभाव

ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति |
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया ||

ईश्वर सभी प्राणियों के हृदय में स्थित है और अपनी माया से उन्हें इस प्रकार भ्रमण कराता है, मानो वे किसी यंत्र पर सवार हों।

एक सिद्धांत सदा समझ लेना चाहिए, जब तक हमको भगवत् प्राप्ति नहीं हो जाती, तब तक हम पर माया का अधिकार रहेगा।


दोष और पाप

काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ।
सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि संत॥

तब तक काम, क्रोध,लोभ,मोह, अहंकार आदि सब दोष रहेंगे। इसके अतिरिक्त पिछले अनन्त जन्मों के पाप भी रहेंगे क्योंकि भगवत् प्राप्ति पर ही समस्त पाप भस्म होते हैं।


शरणागति

सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥

अब सोचो- यदि कोई मुझे कामी, क्रोधी, लोभी, पतित, नीच, अनाचारी, दुराचारी, पापाचारी कहता है तो गलत क्या है - सच को सहर्ष मानकर उस दोष को ठीक करना चाहिये।


निंदक का महत्व

निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाय
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय

वह निंदक तो हमारा हितैषी है। किसी के शरीर पर साँप, बिच्छू चढ़ रहा है और कोई बता दे तो वह तो हमारा हितैषी है।

जब हम खूद की कमियां तराशेंगे तभी तो बेहतर इंसान बन पाएँगे। तो सदैव उन लोगों को पास रखने मे ही समझदारी है जो हमे बेहतर बनने में मदद करे।


कृपा से मिलने वाला ज्ञान

तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् ।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ।।

हमारी बुद्धि की उड़ान भगवान के दिव्य ज्ञान को नहीं पा सकती। यह महत्वपूर्ण नहीं है कि हमारा तंत्र कितना शक्तिशाली है। हमें यह स्वीकार करना होगा कि हमारी बुद्धि माया शक्ति से निर्मित है।

इसलिए हमारे विचार, ज्ञान और विवेक भौतिक जगत तक ही सीमित है। भगवान और उनका दिव्य संसार हमारी लौकिक बुद्धि की परिधि से पूर्णरूप से परे है।


वेदों का कथन

यस्यामतं तस्य मतं मतं यस्य न वेद सः।
अविज्ञातं विजानतां विज्ञातमविजानताम्।

वे जो यह सोचते हैं कि वे भगवान को अपनी बुद्धि से समझ सकते हैं उन्हें भगवान का ज्ञान नहीं हो सकता। वे जो यह सोचते हैं कि वह उनकी समझ से परे है, केवल वही वास्तव में भगवान को जान पाते हैं।

स एष नेति नेत्यात्मागृह्योः।

कोई भगवान को अपनी बुद्धि के अनुसार अपने स्वयं के प्रयत्नों द्वारा कभी नहीं समझ सकता।


भगवान राम अतर्क्य 

राम अतर्क्य बुद्धि मन बानी।
मत हमार अस सुनहु सयानी ।।

भगवान राम हमारी बुद्धि, मन और वाणी की परिधि से परे हैं।


निष्कर्ष

अब भगवान को जानने के विषय के संबंध में ये कथन स्पष्ट रूप से घोषित करते हैं कि भगवान को जानना संभव नही है, तब फिर कोई भगवान को कैसे जान सकता है?

श्रीकृष्ण यहाँ यह प्रकट करते हैं कि भगवान का ज्ञान कैसे प्राप्त किया जा सकता है। वे कहते हैं कि भगवान अपनी कृपा से जीवात्मा को अपना ज्ञान करवाते हैं और भाग्यशाली आत्माएँ उनकी कृपा से उन्हें जानने में समर्थ हो सकती हैं।

तस्य नो रास्व तस्य नो धेहि।

भगवान के चरण कमलों से प्रवाहित अमृत जल में स्नान किए बिना कोई भी उन्हें कैसे जान सकता है।

इस प्रकार भगवान का सच्चा ज्ञान बौद्धिक व्यायाम के फलस्वरूप प्राप्त नहीं होता अपितु यह भगवान की दिव्य कृपा के परिणामस्वरूप मिलता है।

श्रीकृष्ण ने यह भी उल्लेख किया है कि वे उनकी कृपा प्राप्त करने के पात्र मनुष्य का चयन मनचाहे ढंग से नही करते अपितु जो अपने मन को उनकी भक्ति में एकनिष्ठ रखता है, श्रीकृष्ण ऐसे भक्त पर कृपा बरसाते हैं।

आगे वे उनकी दिव्य कृपा के परिणामस्वरूप होने वाली प्रतिक्रियाएँ व्यक्त करेंगे।

तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं           तम: ।
 नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ।।



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