यह नीति श्लोक बताता है कि जब भाग्य प्रतिकूल हो और सभी प्रयास निष्फल हों, तब विवेकी मनुष्य को आत्मचिन्तन के लिए एकांत का मार्ग चुनना चाहिए।
“अत्यन्तविमुखे दैवे व्यर्थे यत्ने च पौरुषे” श्लोक का हिन्दी अर्थ, शब्दार्थ, व्याकरण, नीति कथा और आधुनिक सन्दर्भ सहित विस्तृत विश्लेषण यहाँ पढ़ें।
अत्यन्तविमुखे दैवे व्यर्थे यत्ने च पौरुषे – Niti Shloka with Hindi Meaning and Life Lesson
🕉️ 1. श्लोक
✍️ 2. English Transliteration
🌿 3. हिन्दी अनुवाद
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अत्यन्तविमुखे दैवे व्यर्थे यत्ने च पौरुषे – Niti Shloka with Hindi Meaning and Life Lesson |
📘 4. शब्दार्थ
संस्कृत शब्द | अर्थ |
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अत्यन्तविमुखे | पूर्णतः प्रतिकूल होने पर |
दैवे | भाग्य में, विधाता में |
व्यर्थे | निष्फल, निरर्थक |
यत्ने | प्रयत्न में, पुरुषार्थ में |
च | और |
पौरुषे | पुरुषार्थ में, आत्मबल में |
मनस्विनः | आत्मसम्मानी, स्वाभिमानी व्यक्ति |
दरिद्रस्य | निर्धन के |
वनात् | वन से |
अन्यत् | अन्य, और |
कुतः | कहाँ |
सुखम् | सुख |
🪷 5. व्याकरणात्मक विश्लेषण
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अत्यन्तविमुखे (सप्तमी एकवचन) — विशेषण “विमुख” (विरोधी), उपसर्ग “अत्यन्त” (पूर्ण रूप से)।➤ अर्थ: जब दैव पूर्ण रूप से प्रतिकूल हो।
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दैवे (सप्तमी एकवचन) — “दैव” शब्द से, अर्थ: भाग्य में।
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व्यर्थे (सप्तमी एकवचन) — व्यर्थ होने की स्थिति दर्शाता है।
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यत्ने च पौरुषे (सप्तमी एकवचन) — “यत्न” और “पौरुष” दोनों में सप्तमी प्रयोग से एक ही भाव – निष्फल पुरुषार्थ।
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मनस्विनः (षष्ठी एकवचन) — मनस्वी पुरुष का, आत्मगौरव रखने वाले व्यक्ति का।
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दरिद्रस्य (षष्ठी एकवचन) — निर्धन व्यक्ति का।
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वनात् (पञ्चमी एकवचन) — वन से।
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कुतः (प्रश्नवाचक अव्यय) — कहाँ से, कैसे।
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सुखम् (नपुंसक लिंग, द्वितीया एकवचन) — सुख।
🌏 6. आधुनिक सन्दर्भ
यह श्लोक आज के जीवन में भी गहरी सीख देता है —
🎭 7. संवादात्मक नीति कथा (Moral Story in Dialogue Form)
स्थान: एक गुरुकुल में गुरु और शिष्य के बीच संवाद
शिष्य: गुरुदेव, जब भाग्य बार-बार असफल कर देता है, तब क्या करना चाहिए?
गुरु: वत्स, जब दैव प्रतिकूल हो और परिश्रम निष्फल, तब वन का मार्ग श्रेष्ठ है।
शिष्य: क्या भागकर वन में रहना समाधान है?
शिष्य: तब “वन” केवल वृक्षों का समूह नहीं, आत्मशक्ति का स्रोत है?
गुरु: बिल्कुल वत्स, यही इस श्लोक का रहस्य है — सुख बाह्य परिस्थितियों में नहीं, आंतरिक शांति में है।
🌺 8. निष्कर्ष (Conclusion)
यह नीति श्लोक हमें सिखाता है —
- जब दैव और पुरुषार्थ दोनों ही असफल दिखें, तब भी आत्मगौरव बनाए रखें।
- “वन” केवल भौतिक स्थान नहीं, बल्कि अंतरात्मा का आश्रय है।
- आत्मसम्मानित निर्धन व्यक्ति को संसार की अपमानजनक दौड़ में नहीं, अपने संयमित जीवन में सुख मिल सकता है।
🌿 नीति-सूत्र:“वन वह स्थान नहीं जहाँ वृक्ष हैं,वन वह अवस्था है जहाँ मन शांत है।”