अत्यन्तविमुखे दैवे व्यर्थे यत्ने च पौरुषे – Niti Shloka with Hindi Meaning and Life Lesson

Sooraj Krishna Shastri
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यह नीति श्लोक बताता है कि जब भाग्य प्रतिकूल हो और सभी प्रयास निष्फल हों, तब विवेकी मनुष्य को आत्मचिन्तन के लिए एकांत का मार्ग चुनना चाहिए।

“अत्यन्तविमुखे दैवे व्यर्थे यत्ने च पौरुषे” श्लोक का हिन्दी अर्थ, शब्दार्थ, व्याकरण, नीति कथा और आधुनिक सन्दर्भ सहित विस्तृत विश्लेषण यहाँ पढ़ें।

अत्यन्तविमुखे दैवे व्यर्थे यत्ने च पौरुषे – Niti Shloka with Hindi Meaning and Life Lesson


🕉️ 1. श्लोक

अत्यन्तविमुखे दैवे व्यर्थे यत्ने च पौरुषे ।
मनस्विनो दरिद्रस्य वनादन्यत् कुतः सुखम् ॥


✍️ 2. English Transliteration

Atyantavimukhe daive vyarthe yatne cha pauruṣe,
Manasvino daridrasya vanād anyat kutaḥ sukham.


🌿 3. हिन्दी अनुवाद

जब विधाता (दैव) पूर्णतः प्रतिकूल हो, और मनुष्य का पुरुषार्थ (परिश्रम) भी व्यर्थ सिद्ध हो जाए,
तो मनस्वी (आत्मसम्मानी) निर्धन मनुष्य के लिए वन को छोड़कर और कहाँ सुख मिल सकता है?
अर्थात् उसे ऐसे वातावरण से दूर होकर शांत, निर्लिप्त जीवन में शरण लेनी चाहिए।

अत्यन्तविमुखे दैवे व्यर्थे यत्ने च पौरुषे – Niti Shloka with Hindi Meaning and Life Lesson
अत्यन्तविमुखे दैवे व्यर्थे यत्ने च पौरुषे – Niti Shloka with Hindi Meaning and Life Lesson


📘 4. शब्दार्थ

संस्कृत शब्द अर्थ
अत्यन्तविमुखे पूर्णतः प्रतिकूल होने पर
दैवे भाग्य में, विधाता में
व्यर्थे निष्फल, निरर्थक
यत्ने प्रयत्न में, पुरुषार्थ में
और
पौरुषे पुरुषार्थ में, आत्मबल में
मनस्विनः आत्मसम्मानी, स्वाभिमानी व्यक्ति
दरिद्रस्य निर्धन के
वनात् वन से
अन्यत् अन्य, और
कुतः कहाँ
सुखम् सुख

🪷 5. व्याकरणात्मक विश्लेषण

  1. अत्यन्तविमुखे (सप्तमी एकवचन) — विशेषण “विमुख” (विरोधी), उपसर्ग “अत्यन्त” (पूर्ण रूप से)।
    ➤ अर्थ: जब दैव पूर्ण रूप से प्रतिकूल हो।

  2. दैवे (सप्तमी एकवचन) — “दैव” शब्द से, अर्थ: भाग्य में।

  3. व्यर्थे (सप्तमी एकवचन) — व्यर्थ होने की स्थिति दर्शाता है।

  4. यत्ने च पौरुषे (सप्तमी एकवचन) — “यत्न” और “पौरुष” दोनों में सप्तमी प्रयोग से एक ही भाव – निष्फल पुरुषार्थ।

  5. मनस्विनः (षष्ठी एकवचन) — मनस्वी पुरुष का, आत्मगौरव रखने वाले व्यक्ति का।

  6. दरिद्रस्य (षष्ठी एकवचन) — निर्धन व्यक्ति का।

  7. वनात् (पञ्चमी एकवचन) — वन से।

  8. कुतः (प्रश्नवाचक अव्यय) — कहाँ से, कैसे।

  9. सुखम् (नपुंसक लिंग, द्वितीया एकवचन) — सुख।


🌏 6. आधुनिक सन्दर्भ

यह श्लोक आज के जीवन में भी गहरी सीख देता है —

➡️ जब जीवन में सब प्रयास असफल होते हैं, जब भाग्य और पुरुषार्थ दोनों साथ न दें,
तो विवेकी व्यक्ति भाग्य को दोष देने में समय न गँवाए, बल्कि परिस्थिति से अलग होकर स्वयं को पुनः संयोजित करे।

➡️ “वन” यहाँ प्रतीक है — एकांत, आत्मचिन्तन, और पुनर्स्थापन का।
यह किसी भौतिक वन की नहीं, बल्कि अंतर्मन के वन की यात्रा है — जहाँ मनुष्य आत्मबल पुनः अर्जित करता है।

➡️ यह श्लोक यह भी बताता है कि स्वाभिमानी निर्धन व्यक्ति के लिए दूसरों पर निर्भर जीवन से अच्छा है —
सादगीपूर्ण, स्वतंत्र और आत्मसम्मानयुक्त जीवन।


🎭 7. संवादात्मक नीति कथा (Moral Story in Dialogue Form)

स्थान: एक गुरुकुल में गुरु और शिष्य के बीच संवाद

शिष्य: गुरुदेव, जब भाग्य बार-बार असफल कर देता है, तब क्या करना चाहिए?

गुरु: वत्स, जब दैव प्रतिकूल हो और परिश्रम निष्फल, तब वन का मार्ग श्रेष्ठ है।

शिष्य: क्या भागकर वन में रहना समाधान है?

गुरु: नहीं वत्स, वन का अर्थ पलायन नहीं — आत्मचिन्तन का अवसर है।
जब समाज में अपमान, असफलता और अभाव मिलें, तब एकांत में जाकर मन को स्थिर करो,
नवीन संकल्प से फिर जीवन में लौटो।

शिष्य: तब “वन” केवल वृक्षों का समूह नहीं, आत्मशक्ति का स्रोत है?

गुरु: बिल्कुल वत्स, यही इस श्लोक का रहस्य है — सुख बाह्य परिस्थितियों में नहीं, आंतरिक शांति में है।


🌺 8. निष्कर्ष (Conclusion)

यह नीति श्लोक हमें सिखाता है —

  • जब दैव और पुरुषार्थ दोनों ही असफल दिखें, तब भी आत्मगौरव बनाए रखें।
  • “वन” केवल भौतिक स्थान नहीं, बल्कि अंतरात्मा का आश्रय है।
  • आत्मसम्मानित निर्धन व्यक्ति को संसार की अपमानजनक दौड़ में नहीं, अपने संयमित जीवन में सुख मिल सकता है।

🌿 नीति-सूत्र:
“वन वह स्थान नहीं जहाँ वृक्ष हैं,
वन वह अवस्था है जहाँ मन शांत है।”



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