अत्यासन्नः विनाशाय — Sanskrit Niti Shloka Meaning in Hindi | Raja, Agni, Guru aur Stri ke Saath Madhyam Marg

Sooraj Krishna Shastri
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यह संस्कृत नीति श्लोक — “अत्यासन्नः विनाशाय दूरस्था न फलप्रदाः। सेव्या मध्यमभावेन राजावह्निर्गुरुः स्त्रियः॥” — जीवन के संतुलन और विवेक की शिक्षा देता है।
इसका अर्थ है कि राजा, अग्नि, गुरु और स्त्री — इन चारों से अत्यधिक घनिष्ठता विनाशकारी हो सकती है, पर पूर्ण दूरी भी लाभदायक नहीं।
अतः इनसे मध्यम भाव यानी संतुलित, मर्यादित और विवेकपूर्ण संबंध रखना ही श्रेष्ठ नीति है।
यह श्लोक आधुनिक जीवन, कार्यस्थल, संबंधों और नेतृत्व में सीमाएँ तय करने की व्यावहारिक सीख देता है।
यह नीति-शास्त्र का अनमोल उपदेश है जो बताता है कि जीवन में संतुलन ही सुरक्षा और सफलता की कुंजी है।

अत्यासन्नः विनाशाय — Sanskrit Niti Shloka Meaning in Hindi | Raja, Agni, Guru aur Stri ke Saath Madhyam Marg

अत्यासन्नः विनाशाय — Sanskrit Niti Shloka Meaning in Hindi | Raja, Agni, Guru aur Stri ke Saath Madhyam Marg
अत्यासन्नः विनाशाय — Sanskrit Niti Shloka Meaning in Hindi | Raja, Agni, Guru aur Stri ke Saath Madhyam Marg

श्लोक (देवनागरी):

अत्यासन्नः विनाशाय दूरस्था न फलप्रदाः।
सेव्या मध्यमभावेन राजावह्निर्गुरुः स्त्रियः॥

श्लोक (IAST / scholarly transliteration):

atyāsannaḥ vināśāya dūrasthā na phalapradhāḥ ।
sevyā madhyamabhāvena rājā-vahni-guruḥ-striyḥ ।

श्लोक (सरल अंग्रेजी ट्रान्सलिटरेशन):

atyaasannah vinaashaaya doorasthaa na phalapradaah ।
sevyaa madhyamabhaavena raajaa-vahni-guruh-striyah ॥

हिन्दी अनुवाद:

राजा, अग्नि, गुरु तथा स्त्रियों से अत्यन्त घनिष्ठता विनाशकारी हो सकती है; परन्तु उनसे पूरी तरह दूरी बनाए रखना भी फलप्रद नहीं होता। अतः इन व्यक्तियों/वस्तुओं के साथ मध्यम भाव (सावधानी और संतुलन) से ही व्यवहार करना चाहिए।


शब्दार्थ (एक—एक शब्द का सरल हिन्दी अर्थ)

  1. अत्यासन्नः (atya-āsannaḥ) — अति निकट/बहुत समीप होना; ‘अत्यंत घनिष्ठता’।
  2. विनाशाय (vināśāya) — विनाश के लिए / विनाश को प्रेरित करनेवाला (for destruction).
  3. दूरस्था (dūrasthā) — दूर रहने वाला / बहुत दूर स्थित; यहाँ अर्थ — अलगाव / परित्याग।
  4. न (na) — नहीं।
  5. फलप्रदाः (phalapradhāḥ) — फल देने वाले / लाभकारी नहीं (यदि न के साथ तो “फलप्रद नहीं”)।
  6. सेव्या (sevyā) — सेवा या संपर्क योग्य; ‘सेवा की जानी चाहिए’ (gerundive/लज्जनार्थक भाव — “जिसकी सेवा की जानी चाहिए/जिसके साथ व्यवहार किया जाए”)।
  7. मध्यमभावेन (madhyamabhāvena) — मध्यम-भाव से, संतुलित दृष्टि/मध्यम मार्ग से, न अत्यधिक न कम — सावधानीपूर्वक/सम्यक् दृष्टि से।
  8. राजा (rājā) — राजा; यहाँ आद्य रूप से ‘शक्ति’/अधिकारियों का प्रतिनिधित्व भी।
  9. वह्नि (vahni) — अग्नि (fire) — जोखिम/विनाशक शक्ति का प्रतीक।
  10. गुरुः (guruḥ) — गुरु, शिक्षक; बड़ी प्रभावशाली स्थिति रखने वाला व्यक्ति।
  11. स्त्रियः (striyaḥ) — स्त्रियाँ; संबंधों/इमोशन्स/लालसा/सह-नियोजकता की संकेतक।

व्याकरणिक (ग्रामर) विश्लेषण — पंक्ति दर पंक्ति

पहली पंक्ति: अत्यासन्नः विनाशाय दूरस्था न फलप्रदाः।

  • अत्यासन्नः — पिण्ड (पाठ्य के अनुसार) — संज्ञा/विशेषण-दृष्टि से: masculine nominative singular रूप में भी पढ़ा जा सकता है, पर यहाँ सन्दर्भ तात्त्विक है: “अत्याधिक समीपता/अत्याधिक समीपवाला।” साहित्यिक शैली में यह एक सामान्य शब्द-रूप है जिसका अर्थ ‘अत्यन्त समीप होना’।
  • विनाशाय — तत्पुरुषकृत्-प्रयोग या लकारपूरक अर्थ: dative/goal-like सूचक — “विनाश के लिए/विनाश हेतु” (—अर्थ: अतिसमीपता विनाश की ओर ले जाती है)।
  • दूरस्था — संज्ञा/विशेषण — “दूर रहने वाला” या ‘दूरस्थता’। यहाँ यह बताता है कि “दूरस्थ होना” भी…
  • — नकार।
  • फलप्रदाः — बहुवचन/एकवचन संदर्भ में ‘फलप्रद’ = लाभप्रद; पर यहाँ न के साथ ‘फलप्रदाः’ का भाव “फलप्रद नहीं” — यानी दूरस्थता भी लाभकारी नहीं।
  • समग्र वाक्य-रचना (व्यवस्था): पहला खण्ड कहता है — “अत्यासन्न (अत्यधिक निकटता) विनाशाय” — यानी अत्यधिक निकटता विनाश को बुलाती है; दूसरा कथ्य कहता है — “दूरस्था न फलप्रदाः” — पर पूरी तरह अलग-थलग होना (दूरी बनाए रखना) भी फलदायी नहीं। ⇒ अतः बीच का मध्यम मार्ग उपयुक्त है।

दूसरी पंक्ति: सेव्या मध्यमभावेन राजावह्निर्गुरुः स्त्रियः।

  • सेव्या — कर्तव्यत्व/लज्जा-प्रत्यय जैसा भाव — “जिनकी सेवा की जानी चाहिए / जिनके साथ व्यवहार किया जाना चाहिए” — passive-obligative nuance. (समानार्थक शब्द: “सेवनीयाः”)
  • मध्यमभावेन — Instrumental singular — “मध्यम-भाव द्वारा/मध्यम भावना से” (सतर्कता और संतुलन के साथ)।
  • राजा वह्निः गुरुः स्त्रियः — ये चार संज्ञा शब्द हैं; ग्रन्थ-शैली में इन्हें एक पंक्ति में रखकर सूचीबद्ध किया गया है — “राजा, अग्नि, गुरु, स्त्रियाँ” — जिनके साथ ‘मध्यम भाव से’ व्यवहार/सेवा करनी चाहिए।
  • वाक्य अर्थ संरचना: “(राजा, अग्नि, गुरु, स्त्रियाँ) सेव्या मध्यमभावेन” — अर्थात् ये सभी सेव्या (संबंध/व्यवहार हेतु) हैं परन्तु ‘मध्यमभावेन’ यानी समान्यतः संतुलन, सम्मान-सीमा और विवेक के साथ।

नोट (व्याकरणिक अस्पष्टता): श्लोक में कुछ रूपाणि लचीलापन दिखाते हैं — जैसे ‘अत्यासन्नः’ को निरूपित करना कि यह कर्ता है या विषय का सामान्य नाम—पर पारंपरिक व्याख्या में यह नीतिगत सूक्ति है (नैतिक-प्रशासकीय) — अतः अर्थपरक व्याख्या अधिक प्राथमिक है।


भाषिक-व्याकरण (विस्तार): पदविच्छेद (word-by-word parsing)

  • अत्य + आसन्नः → अत्य आसन्नः = अति-समीप/अत्यन्त निकट।
  • विनाशाय → विनाश (root) + -आय (dative/लाभ-सूचक) = विनाश के लिये।
  • दूरस्था → दूर +स्था = दूर रहने वाला / अलगाव।
  • न फलप्रदाः → न (नकार) + फलप्रदाः (फल देने वाले/लाभकारी)।
  • सेव्या → सेवा योग्य/सेवनीय (gerundive/obligational nuance)।
  • मध्यमभावेन → मध्यम + भावेन (instrumental) = संतुलित मनोभाव से।
  • राजा वह्नि गुरुः स्त्रियः → चार संज्ञाएँ (subject/objects of सेवा)।

भावात्मक-नैतिक अर्थ (short):

श्लोक सावधानी और संतुलन का उपदेश देता है — अत्यधिक लगाव विनाश कर सकता है (किसी भी अधिकार, शक्ति, संबंध या जोखिमपूर्ण वस्तु से) पर पूर्ण तटस्थता व कटु अलगाव भी लाभकारी नहीं। सबसे उत्तम नीति मध्यम मार्ग अपनाना है।


आधुनिक संदर्भ — कहाँ लागू होता है? (Practical modern applications)

  1. राजनीति/शासन: किसी शक्तिशाली नेता/अधिकारी के अत्यधिक नज़दीक होना (अनुचित अनुग्रह, अंधभक्ति) भ्रष्टि या करियर-विनाश का कारण बन सकता है; पर बिल्कुल दूरी बनाकर नज़रअंदाज़ करना भी अवसरों और प्रभाव के नुकसान में बदल सकता है। वर्चस्व के साथ विवेकपूर्वक सम्बन्ध रखें — सम्मान दें, पर अंधानुश्रवण न करें।
  2. आग (वह्नि) — जोखिम/प्रौद्योगिकी/वित्तीय जोखिम: नई तकनीक/जोखिम-पूर्ण निवेश/संभावित संकटों से अति निकटता (अति-आशावाद) विनाशकारी हो सकती है; पर पूरी तरह डर कर भाग जाना भी प्रगति रोक सकता है। मिड-व्यू / रिस्क-मैनेजमेंट जरूरी।
  3. गुरु/शिक्षक: गुरु के प्रति अंधविश्वास जीवन में भ्रम ला सकता है; पर गुरु के सम्पर्क को पूरी तरह तिरस्कृत करना भी ज्ञान से वंचित करता है। आदर के साथ परख और विवेक अपनाएँ।
  4. स्त्रियाँ / व्यक्तिगत संबंध: यहाँ श्लोक का संदेश किसी लिंग-समूह के प्रति सादा नीति नहीं है—बल्कि संबंधों में अतिआसक्ति नुकसानदेह और आधुनिक स्थिति में सीमाओं का अभाव जोखिम पैदा कर सकता है; पर पूर्ण अलगाव भी मानवीय सम्बन्धों और सहयोग के अवसर छीन लेता है। नीतिगत/नैतिक व्यवहार और परस्पर सम्मान जरूरी।
  5. आधुनिक कार्यस्थल: बॉस (राजा), खतरनाक संसाधन (aggressive projects), मेंटर (गुरु), और साझेदार (व्यक्तिगत/व्यवसायिक) — चारों के साथ सीमाएँ और स्पष्ट अपेक्षाएँ रखें; न तो अन्धरूप से झुकें, न पूर्ण तिरस्कार करें।

संवादात्मक नीति-कथा (एक संक्षिप्त संवाद/नैतिक कहानी — Dialogic Policy Story)

पात्र: विभीषण (अध्यक्ष), मीरा (कर्मचारी), आचार्य (मेंटर), सिद्धांत (सहयोगी)।

मेंटर (आचार्य): “मीरा, तुम ऑफिस के नए CEO के बहुत नज़दीक चली गई हो — हर छोटी-छोटी मांग पर ‘हाँ’ कहना ठीक नहीं।”
मीरा: “पर सर, उनसे दूरी बनाकर रखूँ तो वो मुझे नज़रअंदाज़ कर देंगे — पर मैं अवसर खोना नहीं चाहती।”
आचार्य: “श्लोक कहता है — राजा (शक्ति) से अत्याधिक घनिष्ठता विनाश ला सकती है; पर पूरी दूरी भी लाभदायी नहीं। मतलब — संबंध में स्पष्ट सीमा और परिश्रम के साथ पेश आओ। जहाँ जोखिम है (वह्नि), सावधानी रखो; जहाँ गुरु/मेंटर तुम्हें मार्ग दे रहे हैं, आदर और परख दोनों रखो; संबंधों (स्त्री/सहकर्मी) में सम्मान व पारस्परिक सीमाएँ बनाओ।”
मीरा: “तो मैं कैसे चलूँ?”
आचार्य: “मध्यमभावेन — स्पष्ट लक्ष्य, पारदर्शिता, और अपना आत्म-सम्मान रखें; अवसर लें पर नीति-नियमों का उल्लंघन न करें। ऐसा संतुलन अपनाओ कि न तो तुम स्वयं जलो, न अवसरों से हमेशा दूर रह जाओ।”

नैतिक बिंदु: जीवन में न तो अंधानुशासन (अत्यासन्न) चाहिए और न ही कटु अलगाव; विवेकपूर्वक मध्यम मार्ग सबसे सुरक्षित और परिणामकर है।


नैतिक-निष्कर्ष (Conclusion & Practical Takeaways)

  1. माध्यम मार्ग अपनाएँ: किसी भी शक्ति, जोखिम, गुरु या निकट संबंध के साथ संतुलित व्यवहार सबसे अधिक फलदायी होता है।
  2. सीमाएँ स्पष्ट रखें: सम्मान और दूरी — दोनों का संतुलन आवश्यक। सीमाएँ आपको अति-आसक्ति से बचाती हैं और पूरी दूरी से होने वाले अवसर-नुकसान से भी रोकती हैं।
  3. परख और विवेक का प्रयोग करें: किसी भी नज़दीकियों में आत्म-परख रखें — भावनात्मक और विवेकशील निर्णय साथ रखें।
  4. रिस्क मैनेजमेंट: ‘वह्नि’ जैसे जोखिमों के साथ सतर्कता; ‘गुरु’ के साथ आदर परख; ‘शक्ति’ के साथ नीति-नियम; सम्बन्धों में पारस्पर सम्मान — ये व्यवहारिक नियम हैं।
  5. समय-समय पर समीक्षा: सम्बन्ध और नीतियाँ बदलती हैं — अतः समय-समय पर अपने मत और व्यवहार की समीक्षा करें कि कहीं आप अति निकट हो तो न हो रहे हों, और न ही पूर्णतः अलग।

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