अत्यासन्नः विनाशाय — Sanskrit Niti Shloka Meaning in Hindi | Raja, Agni, Guru aur Stri ke Saath Madhyam Marg
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| अत्यासन्नः विनाशाय — Sanskrit Niti Shloka Meaning in Hindi | Raja, Agni, Guru aur Stri ke Saath Madhyam Marg |
श्लोक (देवनागरी):
श्लोक (IAST / scholarly transliteration):
श्लोक (सरल अंग्रेजी ट्रान्सलिटरेशन):
हिन्दी अनुवाद:
शब्दार्थ (एक—एक शब्द का सरल हिन्दी अर्थ)
- अत्यासन्नः (atya-āsannaḥ) — अति निकट/बहुत समीप होना; ‘अत्यंत घनिष्ठता’।
- विनाशाय (vināśāya) — विनाश के लिए / विनाश को प्रेरित करनेवाला (for destruction).
- दूरस्था (dūrasthā) — दूर रहने वाला / बहुत दूर स्थित; यहाँ अर्थ — अलगाव / परित्याग।
- न (na) — नहीं।
- फलप्रदाः (phalapradhāḥ) — फल देने वाले / लाभकारी नहीं (यदि न के साथ तो “फलप्रद नहीं”)।
- सेव्या (sevyā) — सेवा या संपर्क योग्य; ‘सेवा की जानी चाहिए’ (gerundive/लज्जनार्थक भाव — “जिसकी सेवा की जानी चाहिए/जिसके साथ व्यवहार किया जाए”)।
- मध्यमभावेन (madhyamabhāvena) — मध्यम-भाव से, संतुलित दृष्टि/मध्यम मार्ग से, न अत्यधिक न कम — सावधानीपूर्वक/सम्यक् दृष्टि से।
- राजा (rājā) — राजा; यहाँ आद्य रूप से ‘शक्ति’/अधिकारियों का प्रतिनिधित्व भी।
- वह्नि (vahni) — अग्नि (fire) — जोखिम/विनाशक शक्ति का प्रतीक।
- गुरुः (guruḥ) — गुरु, शिक्षक; बड़ी प्रभावशाली स्थिति रखने वाला व्यक्ति।
- स्त्रियः (striyaḥ) — स्त्रियाँ; संबंधों/इमोशन्स/लालसा/सह-नियोजकता की संकेतक।
व्याकरणिक (ग्रामर) विश्लेषण — पंक्ति दर पंक्ति
पहली पंक्ति: अत्यासन्नः विनाशाय दूरस्था न फलप्रदाः।
- अत्यासन्नः — पिण्ड (पाठ्य के अनुसार) — संज्ञा/विशेषण-दृष्टि से: masculine nominative singular रूप में भी पढ़ा जा सकता है, पर यहाँ सन्दर्भ तात्त्विक है: “अत्याधिक समीपता/अत्याधिक समीपवाला।” साहित्यिक शैली में यह एक सामान्य शब्द-रूप है जिसका अर्थ ‘अत्यन्त समीप होना’।
- विनाशाय — तत्पुरुषकृत्-प्रयोग या लकारपूरक अर्थ: dative/goal-like सूचक — “विनाश के लिए/विनाश हेतु” (—अर्थ: अतिसमीपता विनाश की ओर ले जाती है)।
- दूरस्था — संज्ञा/विशेषण — “दूर रहने वाला” या ‘दूरस्थता’। यहाँ यह बताता है कि “दूरस्थ होना” भी…
- न — नकार।
- फलप्रदाः — बहुवचन/एकवचन संदर्भ में ‘फलप्रद’ = लाभप्रद; पर यहाँ न के साथ ‘फलप्रदाः’ का भाव “फलप्रद नहीं” — यानी दूरस्थता भी लाभकारी नहीं।
- समग्र वाक्य-रचना (व्यवस्था): पहला खण्ड कहता है — “अत्यासन्न (अत्यधिक निकटता) विनाशाय” — यानी अत्यधिक निकटता विनाश को बुलाती है; दूसरा कथ्य कहता है — “दूरस्था न फलप्रदाः” — पर पूरी तरह अलग-थलग होना (दूरी बनाए रखना) भी फलदायी नहीं। ⇒ अतः बीच का मध्यम मार्ग उपयुक्त है।
दूसरी पंक्ति: सेव्या मध्यमभावेन राजावह्निर्गुरुः स्त्रियः।
- सेव्या — कर्तव्यत्व/लज्जा-प्रत्यय जैसा भाव — “जिनकी सेवा की जानी चाहिए / जिनके साथ व्यवहार किया जाना चाहिए” — passive-obligative nuance. (समानार्थक शब्द: “सेवनीयाः”)
- मध्यमभावेन — Instrumental singular — “मध्यम-भाव द्वारा/मध्यम भावना से” (सतर्कता और संतुलन के साथ)।
- राजा वह्निः गुरुः स्त्रियः — ये चार संज्ञा शब्द हैं; ग्रन्थ-शैली में इन्हें एक पंक्ति में रखकर सूचीबद्ध किया गया है — “राजा, अग्नि, गुरु, स्त्रियाँ” — जिनके साथ ‘मध्यम भाव से’ व्यवहार/सेवा करनी चाहिए।
- वाक्य अर्थ संरचना: “(राजा, अग्नि, गुरु, स्त्रियाँ) सेव्या मध्यमभावेन” — अर्थात् ये सभी सेव्या (संबंध/व्यवहार हेतु) हैं परन्तु ‘मध्यमभावेन’ यानी समान्यतः संतुलन, सम्मान-सीमा और विवेक के साथ।
नोट (व्याकरणिक अस्पष्टता): श्लोक में कुछ रूपाणि लचीलापन दिखाते हैं — जैसे ‘अत्यासन्नः’ को निरूपित करना कि यह कर्ता है या विषय का सामान्य नाम—पर पारंपरिक व्याख्या में यह नीतिगत सूक्ति है (नैतिक-प्रशासकीय) — अतः अर्थपरक व्याख्या अधिक प्राथमिक है।
भाषिक-व्याकरण (विस्तार): पदविच्छेद (word-by-word parsing)
- अत्य + आसन्नः → अत्य आसन्नः = अति-समीप/अत्यन्त निकट।
- विनाशाय → विनाश (root) + -आय (dative/लाभ-सूचक) = विनाश के लिये।
- दूरस्था → दूर +स्था = दूर रहने वाला / अलगाव।
- न फलप्रदाः → न (नकार) + फलप्रदाः (फल देने वाले/लाभकारी)।
- सेव्या → सेवा योग्य/सेवनीय (gerundive/obligational nuance)।
- मध्यमभावेन → मध्यम + भावेन (instrumental) = संतुलित मनोभाव से।
- राजा वह्नि गुरुः स्त्रियः → चार संज्ञाएँ (subject/objects of सेवा)।
भावात्मक-नैतिक अर्थ (short):
श्लोक सावधानी और संतुलन का उपदेश देता है — अत्यधिक लगाव विनाश कर सकता है (किसी भी अधिकार, शक्ति, संबंध या जोखिमपूर्ण वस्तु से) पर पूर्ण तटस्थता व कटु अलगाव भी लाभकारी नहीं। सबसे उत्तम नीति मध्यम मार्ग अपनाना है।
आधुनिक संदर्भ — कहाँ लागू होता है? (Practical modern applications)
- राजनीति/शासन: किसी शक्तिशाली नेता/अधिकारी के अत्यधिक नज़दीक होना (अनुचित अनुग्रह, अंधभक्ति) भ्रष्टि या करियर-विनाश का कारण बन सकता है; पर बिल्कुल दूरी बनाकर नज़रअंदाज़ करना भी अवसरों और प्रभाव के नुकसान में बदल सकता है। वर्चस्व के साथ विवेकपूर्वक सम्बन्ध रखें — सम्मान दें, पर अंधानुश्रवण न करें।
- आग (वह्नि) — जोखिम/प्रौद्योगिकी/वित्तीय जोखिम: नई तकनीक/जोखिम-पूर्ण निवेश/संभावित संकटों से अति निकटता (अति-आशावाद) विनाशकारी हो सकती है; पर पूरी तरह डर कर भाग जाना भी प्रगति रोक सकता है। मिड-व्यू / रिस्क-मैनेजमेंट जरूरी।
- गुरु/शिक्षक: गुरु के प्रति अंधविश्वास जीवन में भ्रम ला सकता है; पर गुरु के सम्पर्क को पूरी तरह तिरस्कृत करना भी ज्ञान से वंचित करता है। आदर के साथ परख और विवेक अपनाएँ।
- स्त्रियाँ / व्यक्तिगत संबंध: यहाँ श्लोक का संदेश किसी लिंग-समूह के प्रति सादा नीति नहीं है—बल्कि संबंधों में अतिआसक्ति नुकसानदेह और आधुनिक स्थिति में सीमाओं का अभाव जोखिम पैदा कर सकता है; पर पूर्ण अलगाव भी मानवीय सम्बन्धों और सहयोग के अवसर छीन लेता है। नीतिगत/नैतिक व्यवहार और परस्पर सम्मान जरूरी।
- आधुनिक कार्यस्थल: बॉस (राजा), खतरनाक संसाधन (aggressive projects), मेंटर (गुरु), और साझेदार (व्यक्तिगत/व्यवसायिक) — चारों के साथ सीमाएँ और स्पष्ट अपेक्षाएँ रखें; न तो अन्धरूप से झुकें, न पूर्ण तिरस्कार करें।
संवादात्मक नीति-कथा (एक संक्षिप्त संवाद/नैतिक कहानी — Dialogic Policy Story)
पात्र: विभीषण (अध्यक्ष), मीरा (कर्मचारी), आचार्य (मेंटर), सिद्धांत (सहयोगी)।
नैतिक बिंदु: जीवन में न तो अंधानुशासन (अत्यासन्न) चाहिए और न ही कटु अलगाव; विवेकपूर्वक मध्यम मार्ग सबसे सुरक्षित और परिणामकर है।
नैतिक-निष्कर्ष (Conclusion & Practical Takeaways)
- माध्यम मार्ग अपनाएँ: किसी भी शक्ति, जोखिम, गुरु या निकट संबंध के साथ संतुलित व्यवहार सबसे अधिक फलदायी होता है।
- सीमाएँ स्पष्ट रखें: सम्मान और दूरी — दोनों का संतुलन आवश्यक। सीमाएँ आपको अति-आसक्ति से बचाती हैं और पूरी दूरी से होने वाले अवसर-नुकसान से भी रोकती हैं।
- परख और विवेक का प्रयोग करें: किसी भी नज़दीकियों में आत्म-परख रखें — भावनात्मक और विवेकशील निर्णय साथ रखें।
- रिस्क मैनेजमेंट: ‘वह्नि’ जैसे जोखिमों के साथ सतर्कता; ‘गुरु’ के साथ आदर परख; ‘शक्ति’ के साथ नीति-नियम; सम्बन्धों में पारस्पर सम्मान — ये व्यवहारिक नियम हैं।
- समय-समय पर समीक्षा: सम्बन्ध और नीतियाँ बदलती हैं — अतः समय-समय पर अपने मत और व्यवहार की समीक्षा करें कि कहीं आप अति निकट हो तो न हो रहे हों, और न ही पूर्णतः अलग।
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