ज्ञान तभी सार्थक है जब वह आचरण बने | Shastrani Adhitya Api Bhavanti Moorkhah Meaning in Hindi

Sooraj Krishna Shastri
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यह संस्कृत श्लोक — “शास्त्राण्यधीत्यापि भवन्ति मूर्खाः, यस्तु क्रियावान् पुरुषः स विद्वान्” — जीवन में ज्ञान और आचरण के अंतर को दर्शाता है। केवल शास्त्र या पुस्तकों का अध्ययन कर लेना ही विद्वता नहीं है; सच्चा ज्ञानी वही है जो उस ज्ञान को अपने व्यवहार और कर्म में लाता है। जैसे किसी रोगी को दवा का नाम लेने मात्र से रोग नहीं मिटता, वैसे ही केवल ज्ञान का नाम जपने से जीवन में परिवर्तन नहीं आता। इस श्लोक का संदेश अत्यंत आधुनिक है — आज की शिक्षा, करियर और जीवन मूल्यों में यह प्रेरित करता है कि ज्ञान का उपयोग तभी सार्थक है जब वह कर्म में परिणत हो। यह नीति-वचन हर विद्यार्थी, शिक्षक और कर्मयोगी के लिए एक गूढ़ प्रेरणा है — “Do what you learn.” अध्ययन को आचरण में बदलना ही सच्ची विद्वता का प्रतीक है।

ज्ञान तभी सार्थक है जब वह आचरण बने | Shastrani Adhitya Api Bhavanti Moorkhah Meaning in Hindi

1. श्लोक (संस्कृत)

शास्त्राण्यधीत्यापि भवन्ति मूर्खाः
यस्तु क्रियावान् पुरुषः स विद्वान् ।
सुचिन्तितं औषधमातुराणां
न नाममात्रेण करोत्यरोगम् ॥


2. अंग्रेजी ट्रान्सलिटरेशन

IAST (वैज्ञानिक):
śāstrāṇy adhīty āpi bhavanti mūrkhāḥ
yastu kriyāvān puruṣaḥ sa vidvān।
sucintitaṃ auṣadham āturāṇāṃ
na nāma–mātreṇa karoty arogaṃ॥

सरल लैटिन (अधिक पठनीय):
shastrani adhitya api bhavanti moorkhah
yast kriyavaan purushah sa vidwan.
suchintitam aushadham aturanaam
na naammatrena karotya rogam.


3. हिन्दी अनुवाद (भावार्थ)

शास्त्रों को पढ़ लेने के बाद भी लोग मूर्ख बन सकते हैं। जो व्यक्ति कर्मशील है — अपने ज्ञान को व्यवहार में उतारता है — वही विद्वान कहलाता है। भली-भाँति विचार कर बनाई गई दवा भी केवल उसका नाम लेने से रोग नहीं ठीक करती; दवा का सेवन आवश्यक है।

(सरल) सिर्फ़ पढ़ना ज्ञान नहीं; ज्ञान का प्रयोग — आचरण में उतरना — असली बुद्धिमत्ता है।

ज्ञान तभी सार्थक है जब वह आचरण बने | Shastrani Adhitya Api Bhavanti Moorkhah Meaning in Hindi
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4. शब्दार्थ (पद-पद अर्थ)

  • शास्त्राणि — शास्त्र (पुस्तक/शिक्षा/सूत्र), बहुवचन (the scriptures/learned texts)
  • अधीत्य — अध्येत (पढ़ा हुआ / अध्ययन कर लिया) — कृदन्त रूप
  • अपि — भी
  • भवन्ति — होते हैं / बनते हैं
  • मूर्खाः — मूर्ख लोग (fools)
  • यः / यस्तु — जो / परन्तु जो
  • क्रियावान् — कृतकर्मी, जो क्रिया (action) करता है; कर्मशील
  • पुरुषः — मनुष्य / व्यक्ति
  • — वह
  • विद्वान् — ज्ञानी, बुद्धिमान
  • सुचिन्तितम् — अच्छी तरह चिन्तित / विचार किया हुआ
  • औषधम् — दवा, औषधि
  • आतुराणाम् — रोगियों का (आतुर = रोगी)
  • — नहीं
  • नाममात्रेण — केवल नाम द्वारा / केवल नाम लेने से
  • करोति — करता है
  • अरोगम् — रोगविमुक्ति / रोग का न होना (रोगम = रोग)

5. व्याकरणात्मक विवेचन (मुख्य बिंदु)

  1. वाक्य-रचना (syntax): प्रथम पंक्ति: शास्त्र (विषय) — अधीत्य(उपक्रम) अपि भवन्ति मूर्खाः — यहाँ क्रिया (भवन्ति) कर्म-हीन सा दिखती है: पढ़ा हुआ होते हुए भी मूर्ख बनना। द्वितीय पंक्ति में विरोध (contrast) — यस्तु क्रियावान् पुरुषः स विद्वान् — पढ़ने के साथ क्रिया का होना विद्वता घोषित करता है। तीसरी और चौथी पंक्ति एक उपमा (analogy) दे कर तर्क को सुदृढ़ करती हैं: दवा का नाम लेने से रोग नहीं जाता।
  2. समास/कृदन्त: शास्त्राणि-अधीत्य — अध्ययन कर लेने के बावजूद; क्रियावान् (कर्मसम्पन्न); नाममात्रेण — मात्रेन = केवल, नाम से ही।
  3. छन्द: श्लोक का लय साधारणतया अनुष्टुप्-समपार्श्विक लय से निकटता रखता है (चार पाद, सरल शास्त्रशैली)।
  4. क्रियाविशेष: ‘करोति’ सामान्यत: कर्माभिधेय सूचक है — यहाँ ‘न नाममात्रेण करोति रोगम्’ — नाम मात्र से दवा रोग को नहीं दूर करती — दवा के सेवन का अभाव रोग को नहीं मिटाता।

6. भाव-विश्लेषण (गूढ़ अर्थ)

  • श्लोक दो महत्त्वपूर्ण वाक्यों से बना है: (A) ज्ञान-सम्पादन (study) अकेला अपर्याप्त है — कभी-कभी वह दिखाकर भी मूर्खता रहती है; (B) क्रिया/आचरण वह तत्व है जो ज्ञान को जीवन योग्य बनाता है।
  • उपमा से यह स्पष्ट होता है कि ज्ञान का नाम मात्र होना वैसा ही है जैसे दवा का नाम मात्र लेने से रोग न जाना — असल प्रभाव तब है जब ज्ञान का आचरण हो, जैसे दवा का सेवन।
  • श्लोक ज्ञान–कर्म संबंध (jñāna–kriyā) का सशक्त समर्थक है: ज्ञान + अभ्यास = विद्वता

7. आधुनिक सन्दर्भ (प्रासंगिकता)

  1. शिक्षा और कौशल: आज की शिक्षा-व्यवस्था में ‘पढ़ाई’ और ‘प्रयोग’ के बीच बड़ा फर्क दिखाई देता है — डिग्री होना पर्याप्त नहीं; उसे व्यावहारिक कौशल और नैतिक आचरण से जोड़ना ज़रूरी है।
  2. कैरियर व नेतृत्व: नेतृत्व में ‘जानना’ और ‘कर दिखाना’ दोनों चाहिए — नीति-निर्माता, शिक्षक या चिकित्सक — जो अपने ज्ञान को लागू कर सके वही प्रभावशाली बनता है।
  3. स्वास्थ्य-संदर्भ: चिकित्सा क्षेत्र की उपमा आज भी सटीक — रोगी को दवा का नाम बताने से लाभ नहीं; दवा देना, इलाज करना आवश्यक है — इसी तरह ज्ञान का नाम बता देना, केवल दिखावा करना समाज/व्यक्ति के लिए उपयोगी नहीं।
  4. डिजिटल युग: सोशल मीडिया पर ‘ज्ञान का प्रदर्शन’ बहुत है — पर वास्तविक परिवर्तन तब होता है जब वही ज्ञान व्यवहार में उतरता है।

8. संवादात्मक नीति-कथा (गुरु — शिष्य रूप में)

पात्र: गुरु (श्रीरामानंद), शिष्य (अर्जुन)

अर्जुन: गुरुजी, मैंने कई ग्रन्थ पढ़ लिए — पर लोग कहते हैं मैं बस पढ़ा-लिखा दिखता हूँ।
गुरु: अर्जुन, क्या पढ़ने से ज्ञान बनता है? हाँ — पर जो पढ़ता है और जो करता है, दोनों में फर्क है।
अर्जुन: पर मैं प्रयास कर रहा हूँ — कहाँ कमी रह जाती है?
गुरु: सोचो — एक चिकित्सक अगर दवा का नाम ही जानकर रोगी से कहे “तुम ठीक हो जाओगे” और दवा न दे, क्या रोग ठीक होगा? नहीं। उसी तरह ज्ञान का ‘नाम’ जपने से कुछ नहीं बदलता; उसे प्रयोग में लाना होता है।
अर्जुन: तो विद्वान कौन?
गुरु: वह जो पढ़े और फिर अपने जीवन में उसे उतारे — वह विद्वान, और वही समाज का असली हितैषी है।

नीति: पढ़ो, पर उस ज्ञान को करो; दिखावे का ज्ञान मूर्खता है, अभ्यास से जन्मी बुद्धि सच्ची विद्वता।


9. निष्कर्ष — व्यवहारिक निर्देश (Actionable takeaways)

  1. ज्ञान को प्रयोग में उतारें: पढ़ने के साथ छोटे-छोटे प्रयोग आजमाइए — जो सीखा उसे दिनचर्या में लागू करें।
  2. प्रयोग-आधारित लर्निंग: theoretical → practical: हर अध्ययन के बाद ‘मैं इसे कैसे करूँगा?’ पूछें।
  3. नियमित अभ्यास: जैसे औषधि का सेवन नियमपूर्वक चाहिए, वैसे ज्ञान का नियमित अभ्यास चरित्र बनाता है।
  4. नैतिकता व सेवा: विद्वता का प्रमाण केवल ज्ञान नहीं — चरित्र, परोपकार, और समाजोपयोगी कर्म हैं।
  5. स्व-निरीक्षण: समय-समय पर स्वयं से पूछें — क्या मेरा ज्ञान मुझे बदल रहा है या सिर्फ़ दिखावा बना रह गया है?

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