एक घड़ी आधी घड़ी, आधी की पुनि आध ।
तुलसी संगत साधु की ,काटे कोटि अपराध॥
साधु जीवन में कितना ज़रूरी है इस बात को समझने के लिए हमें संत, भक्तों के वचनों पर ध्यान देना होगा।
संत अर्थात् सत। परम सत्य ब्रह्म समान।
बाबा तुलसीदास कहते है -
एक घड़ी आधी घड़ी ,आधी की पुनि आध ,
तुलसी संगत साधु की ,काटे कोटि अपराध।
एक घड़ी अर्थात चौबीस मिनट,आधी घड़ी अर्थात बारह मिनट और फिर बाबा कहते है उसमे भी आधा अर्थात छह मिनट।इतना ही काफ़ी है साधु संग का जन्म जन्म के पाप काटने के लिए।
मुझे कबीर जी के जीवन की एक घटना याद आती है इस संदर्भ में -
कबीरदास का जब आख़िरी वक्त आया तो वो रोने लगे।उनके शिष्यों को बड़ा अचंभा हुआ कि जो व्यक्ति जीवन प्रयन्त संसार को दुख का कारण और भक्ति को सुख का कारण बताता रहा वो अपने आख़िरी घड़ी में संसार के आसक्ति से रो रहा है।
किसी एक जिज्ञासु शिष्य ने पूछ ही लिया - "बाबा,आप तो अंतर्यामी है,आप तो श्रीधाम पधराएंगे, आपकी आंखों में आंसू वो भी संसार छोड़ते वक्त क्यों?"
कबीर बोले:-
राम बुलावा भेजिया, दिया कबीरा रोय ।
जो सुख साधू संग में, सो बैकुंठ न होय।।
राम का बुलावा देख कबीर रो रहा क्युकी जो सुख साधु संग में है,सज्जनों के संगति में है वो मुझे बैकुंठ में भी नहीं मिलेगा।
सोचिए कहां बैकुंठ के भांति भांति के सुख और कहा साधु संग।संसारी व्यक्ति तुरंत बैकुंठ सुख को श्रेष्ठ समझेंगे उसकी कामना करेगा।लेकिन जो भक्त है वो तो साधु संग ही चाहेगा।वो उन्माद वो मस्ती वो आनन्द बैकुंठ में भी नहीं है जो मात्र साधु संग से सहज ही प्राप्त हो जाता है।
मानस में मेरे राम जी नवधा भक्ति में माता सबरी को कहते है:-
प्रथम भगति संतन कर संगा ।
दूसरि रति मम कथा प्रसंगा ॥
अर्थात् प्रथम भक्ति तो साधु संत का संग है। दूसरी भक्ति मेरे कथा श्रवण है। देखा जाएं तो दोनों भक्ति सदैव संत से प्राप्त होता है। संत ही तो भगवत कथा सुनाता है।
आगे इसी बात को और गहराई में जा कर भगवान ने कहा -
साँतव सम मोहि मय जग देखा ।
मोते संत अधिक करि लेखा ॥
सातवी भक्ति ये है कि भक्त हर जगह सिर्फ़ मुझे देखे और मुझसे अधिक संत को माने,संत की सेवा करें।
सोचिए कितनी बड़ी बात कहते है और संत के महत्व को भगवान कितने गहराई में जा कर प्रतिपादित करते है कि मुझसे भी अधिक संत को मानो,जानो।
जीव का कल्याण एक मात्र संत से संभव है।ईश्वर प्राप्ति जब भी किसी को हुई तो उसके मूल में संत रहा है,सदगुरु रहा है।
मीरा बाई जब विवाह के बाद ससुराल आई तो यहां ठाकुर सेवा तो वो करती लेकिन यहां मायके के जैसे संत दर्शन,साधु संग नहीं मिल पाता।वो हमेशा अधीर रहती,बैचेन सी रहती,उनके पति भोज महराज ने जब इसका कारण पूछा तो मीरा कहती है -
सत्संग बिना म्हारा प्राण तीसे
अर्थात् सत्संग बिना तो मेरे प्राण निकलने को है।बिना सत्संग के मुझे कुछ नहीं भाता।यहां सब कुछ है लेकिन साधु संग नहीं है,सत्संग नहीं है।आप किसी तरह सत्संग और साधु संग का प्रबंध कर दे हुकुम आपका बड़ा अहसान होगा।
भोज महराज ने उसके बाद राज महल में साधु प्रवेश का प्रबंध किया।जिससे कि मीरा को साधु संग सहज ही सुलभ हो।
दादू महराज कहते है -
सद्गुरु मिले तो पाइए भगतिमुक्ति भंडार,
दादू सहज देखिए साहिब का दीदार।।
सद्गुरु मिल गया,संत मिल गया तो भक्ति और मुक्ति सहज ही प्राप्त हो जाएगा।संत तुम्हें साहिब से मिला देगा।साहिब अर्थात ईश्वर।
मीरा बाई कहती है -
अजामेलि से पतित आदि से जन के संकट टारे।
जन 'मीराँ वाही के सरणैं, भगती न बिरद लजारे॥
जिसने अजामिल जैसे पाप आत्मा को भी भक्त बना दिया मीरा तो उन्ही के शरण में है। जो सदैव भक्त की रक्षा करते है।
संत से होत न अकारज हानि।
संत से कोई हानि नहीं है,लाभ ही लाभ है। संत वही जो अजातशत्रु हो। जिसका कोई भी शत्रु न हो।वो सबका मित्र हो।
माता सबरी के जीवन को देखिए तो संत कृपा सहज दिखता है।कोई भी तो साधन नहीं किया उसने बस एक मात्र सदगुरु संत के वचन पर सालों साल इंतजार करती रही।यौवन से लेकर वृद्धा अवस्था तक एक मात्र संत वचन पर भरोसा कर के वो रोज़ पग बुहारती और राह निहारती की कब मेरे राम आयेंगे।उसका दृढ़ विश्वास था कि गुरुदेव ने, संत ने कहा है कि राम स्वयं चल के आयेंगे तेरे पास तो राम आयेंगे शरीर छूटने से पहले आयेंगे जरूर।
सबरी के जीवनकाल में न जाने कितने लोग मिले जो उसका उपहास करते,पागल कहते उसे,कहते कि कोई नहीं आएगा ऐसे रोज़ इंतजार मत किया कर।मत तोड़ा कर रोज़ बेर मत बिछाया कर राह में फूल।
मैं उस भक्ति उस विश्वास को नमन करती हूं जिसका विश्वास इतना अडिग था कि उस राह से वो किसी को न जाने देती जहां वो फूल बिछाई रहती,उसका दृढ़ विश्वास था कि राम कभी भी आ सकते है। गुरुदेव ने न कोई समय बताया है न कोई दिन। तो वो कभी भी आ सकते है इसलिए उनके सेवा में कोई त्रुटि न हो।
धन्य है मैया आप।ऐसे भक्ति हो ,ऐसा विश्वास हो अपने गुरु वचन पर तो राम को आना ही होगा और राम आएं भी।संत कृपा ने ही मीरा,सूरदास,कबीर, रहीम न जाने कितने भक्तों को उस परम पिता परमेश्वर से मिलाया है।
अंगुलिमाल
सभी लोग जानते हैं अंगुलिमाल एक डाकू था। लोगों की उंगलियां काटकर गले में माला बनाकर पहनता था ताकि उसका दहशत फैले। लोग डरे। डर से अपनी संपत्ति जायदाद उसे दे दे।
एक दिन संयोगवश नारद मुनि जंगल में उसी रास्ते गुजर रहे थे जहां रत्नाकर रहते थे। डाकू रत्नाकर ने नारद मुनि को पकड़ लिया। इस घटना के बाद डाकू रत्नाकर के जीवन में ऐसा बदलाव आया कि वह डाकू से महर्षि बन गए। दरअसल जब वाल्मीकि ने नारद मुनि को बंदी बनाया तो नारद मुनि ने कहा कि, तुम जो यह पाप कर्म करके परिवार का पालन कर रहे हो क्या उसके भागीदार तुम्हारे परिवार के लोग बनेंगे, जरा उनसे पूछ लो।
वाल्मीकि को विश्वास था कि सभी उनके साथ पाप में बराबर के भागीदार बनेंगे, लेकिन जब सभी ने कहा कि नहीं, अपने पाप के भागीदार तो केवल तुम ही बनोगे तो वाल्मीकि का संसार से मोह भंग हो गया। और उनके अंदर महर्षि प्रचेता के गुण और रक्त ने जोर मारना शुरू कर दिया और उन्होंने नारद मुनि से मुक्ति का उपाय पूछा।
नारद मुनि ने रत्नाकर को राम नाम का मंत्र दिया। जीवन भर मारो काटो कहने वाले रत्नाकर के मुंह से राम नाम निकल ही नहीं रहा था। नारद मुनि ने कहा तुम मरा-मरा बोलो इसी से तुम्हें राम मिल जाएंगे। इस मंत्र को बोलते-बोलते रत्नाकर राम में ऐसे रमे कि तपस्या में कब लीन हो गए और उनके शरीर पर कब दीमकों ने बांबी बना ली उन्हें पता ही नहीं चला। इनकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने दर्शन दिए और इनके शरीर पर लगे बांबी को देखा तो रत्नाकर को वाल्मीकि नाम दिया और यह इस नाम से प्रसिद्ध हुए। ब्रह्माजी ने इन्हें रामायण की रचना करने की प्रेरणा दी।
सोचिए विचार कीजिए एक इतने बड़े डाकू को संत दर्शन से ऐसा लाभ हुआ कि लोग कहने लगे -
"वाल्मिकि भये ब्राह्म समाना"
अर्थात् वाल्मीकि जी भगवान के समान हो गए और इसके पीछे निम्मित कौन बना....संत।
तो भाई -
संतन से लाग रे तेरी बनत बनत बन जाइए।
thanks for a lovly feedback