भागवत प्रथम स्कन्ध, त्रयोदश अध्याय(हिन्दी अनुवाद)

Sooraj Krishna Shastri
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भागवत प्रथम स्कन्ध, त्रयोदश अध्याय(हिन्दी अनुवाद)

यह रहा धृतराष्ट्र, गांधारी और विदुर के हिमालय प्रस्थान का दृश्य। इसमें उनके त्याग और गंभीरता को दर्शाया गया है।



भागवत प्रथम स्कन्ध, त्रयोदश अध्याय(हिन्दी अनुवाद)

 नीचे भागवत प्रथम स्कन्ध, त्रयोदश अध्याय(हिन्दी अनुवाद) के हर श्लोक का अलग-अलग हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत किया गया है:


श्लोक 1

सूत उवाच
विदुरस्तीर्थयात्रायां मैत्रेयादात्मनो गतिम्।
ज्ञात्वागा हास्तिनपुरं तयावाप्तविवित्सितः॥

हिन्दी अनुवाद:
सूत जी बोले: विदुर ने तीर्थयात्रा के दौरान मैत्रेय मुनि से आत्मा की गति को जान लिया। इसके बाद, अपनी जिज्ञासा शांत कर, वे हस्तिनापुर लौट आए।


श्लोक 2

यावतः कृतवान् प्रश्नान् क्षत्ता कौषारवाग्रतः।
जातैकभक्तिः गोविन्दे तेभ्यश्चोपरराम ह॥

हिन्दी अनुवाद:
विदुर ने मैत्रेय मुनि के समक्ष अनेक प्रश्न किए थे। उनके उत्तर सुनने के बाद, उनका गोविंद (भगवान श्रीकृष्ण) में अखंड प्रेम हो गया और वे अन्य चिंताओं से मुक्त हो गए।


श्लोक 3

तं बन्धुमागतं दृष्ट्वा धर्मपुत्रः सहानुजः।
धृतराष्ट्रो युयुत्सुश्च सूतः शारद्वतः पृथा॥

हिन्दी अनुवाद:
जब धर्मराज युधिष्ठिर ने अपने प्रिय बंधु विदुर को आते देखा, तो वे अपने भाइयों के साथ उनके स्वागत के लिए गए। धृतराष्ट्र, युयुत्सु, संजय, कृपाचार्य और कुन्ती भी वहाँ उपस्थित थे।


श्लोक 4

गान्धारी द्रौपदी ब्रह्मन् सुभद्रा चोत्तरा कृपी।
अन्याश्च जामयः पाण्डोः ज्ञातयः ससुताः स्त्रियः॥

हिन्दी अनुवाद:
गांधारी, द्रौपदी, सुभद्रा, उत्तरा, कृपी और पांडवों की अन्य पत्नियाँ, उनके ज्ञातिगण और उनकी संतानों ने भी विदुर का स्वागत किया।


श्लोक 5

प्रत्युज्जग्मुः प्रहर्षेण प्राणं तन्व इवागतम्।
अभिसङ्‌गम्य विधिवत् परिष्वङ्‌गाभिवादनैः॥

हिन्दी अनुवाद:
वे सब हर्षित होकर विदुर का स्वागत करने दौड़े। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो उनका प्राण ही लौट आया हो। उन्होंने उन्हें विधिपूर्वक गले लगाया और अभिवादन किया।


श्लोक 6

मुमुचुः प्रेमबाष्पौघं विरहौत्कण्ठ्य कातराः।
राजा तमर्हयां चक्रे कृतासन परिग्रहम्॥

हिन्दी अनुवाद:
विरह और उत्कंठा से अभिभूत होकर, सभी ने प्रेमाश्रु बहाए। राजा युधिष्ठिर ने विदुर को सम्मानपूर्वक आसन दिया।


श्लोक 7

तं भुक्तवन्तं विश्रान्तं आसीनं सुखमासने।
प्रश्रयावनतो राजा प्राह तेषां च श्रृण्वताम्॥

हिन्दी अनुवाद:
विदुर के भोजन और विश्राम करने के बाद, जब वे सुखपूर्वक आसन पर बैठे, तो राजा युधिष्ठिर ने विनम्रता से उनके समक्ष प्रश्न किया।

श्लोक 8

युधिष्ठिर उवाच
अपि स्मरथ नो युष्मत् पक्षच्छायासमेधितान्।
विपद्‍गणाद् विषाग्न्यादेः मोचिता यत्समातृकाः॥

हिन्दी अनुवाद:
युधिष्ठिर ने कहा: क्या आप हमें याद करते हैं, जिनकी रक्षा आपकी कृपा और छत्रछाया में हुई थी, विष, अग्नि और अन्य विपत्तियों से हम और हमारी माता को आपने बचाया था?


श्लोक 9

कया वृत्त्या वर्तितं वः चरद्‌भिः क्षितिमण्डलम्।
तीर्थानि क्षेत्रमुख्यानि सेवितानीह भूतले॥

हिन्दी अनुवाद:
आपने पृथ्वी के विभिन्न तीर्थों और मुख्य क्षेत्रों में भ्रमण करते हुए किस प्रकार जीवन व्यतीत किया? कृपया हमें बताएं।


श्लोक 10

भवद्विधा भागवताः तीर्थभूताः स्वयं विभो।
तीर्थीकुर्वन्ति तीर्थानि स्वान्तःस्थेन गदाभृता॥

हिन्दी अनुवाद:
आप जैसे महान भक्त स्वयं तीर्थस्वरूप होते हैं। जब आप कहीं जाते हैं, तो अपने हृदय में स्थित भगवान श्रीकृष्ण के कारण वह स्थान पवित्र हो जाता है।


श्लोक 11

अपि नः सुहृदस्तात बान्धवाः कृष्णदेवताः।
दृष्टाः श्रुता वा यदवः स्वपुर्यां सुखमासते॥

हिन्दी अनुवाद:
हे तात! क्या आपने हमारे बंधु और भगवान श्रीकृष्ण को देखा या उनके बारे में सुना? क्या वे और यदुवंशी द्वारका में सुखपूर्वक हैं?


श्लोक 12

इत्युक्तो धर्मराजेन सर्वं तत् समवर्णयत्।
यथानुभूतं क्रमशो विना यदुकुलक्षयम्॥

हिन्दी अनुवाद:
युधिष्ठिर के इस प्रश्न पर, विदुर ने उन्हें अपनी तीर्थयात्रा के सभी अनुभव क्रमशः बताए, लेकिन यदुवंश के विनाश का उल्लेख नहीं किया।


श्लोक 13

नन्वप्रियं दुर्विषहं नृणां स्वयमुपस्थितम्।
नावेदयत् सकरुणो दुःखितान् द्रष्टुमक्षमः॥

हिन्दी अनुवाद:
यदुवंश के विनाश की घटना बहुत कष्टदायक थी। विदुर ने अपने करुण हृदय के कारण इसे नहीं बताया, क्योंकि वे दूसरों को दुखी देखना सहन नहीं कर सकते थे।


श्लोक 14

कञ्चित् कालमथ अवात्सीत् सत्कृतो देववत्सुखम्।
भ्रातुर्ज्येष्ठस्य श्रेयस्कृत् सर्वेषां सुखमावहन्॥

हिन्दी अनुवाद:
विदुर ने कुछ समय तक हस्तिनापुर में अपने ज्येष्ठ भ्राता धृतराष्ट्र के साथ रहकर उन्हें सुख दिया। वे सभी के लिए कल्याणकारी बन गए।


श्लोक 15

अबिभ्रदर्यमा दण्डं यथावत् अघकारिषु।
यावद् दधार शूद्रत्वं शापात् वर्षशतं यमः॥

हिन्दी अनुवाद:
यमराज ने अपने शाप के कारण शूद्र का रूप धारण करके विदुर के रूप में सेवा की। इस दौरान उन्होंने अधर्मियों पर दंड का पालन यथावत किया।


श्लोक 16

युधिष्ठिरो लब्धराज्यो दृष्ट्वा पौत्रं कुलन्धरम्।
भ्रातृभिर्लोकपालाभैः मुमुदे परया श्रिया॥

हिन्दी अनुवाद:
राज्य प्राप्त करने के बाद युधिष्ठिर ने अपने कुल के उत्तराधिकारी परीक्षित को देखकर भाइयों के साथ लोकपालों के समान परम ऐश्वर्य का आनंद लिया।


श्लोक 17

एवं गृहेषु सक्तानां प्रमत्तानां तदीहया।
अत्यक्रामत् अविज्ञातः कालः परमदुस्तरः॥

हिन्दी अनुवाद:
गृहस्थ जीवन में आसक्त और प्रमत्त लोगों पर समय का प्रभाव धीरे-धीरे और अज्ञात रूप से पड़ता है। यह काल परम कठिनाई से पार होने वाला है।

श्लोक 18

विदुरस्तत् अभिप्रेत्य धृतराष्ट्रं अभाषत।
राजन् निर्गम्यतां शीघ्रं पश्येदं भयमागतम्॥

हिन्दी अनुवाद:
विदुर ने धृतराष्ट्र को संबोधित किया: हे राजन! शीघ्र ही यहां से प्रस्थान कीजिए, क्योंकि समय का भयावह स्वरूप निकट आ चुका है।


श्लोक 19

प्रतिक्रिया न यस्येह कुतश्चित् कर्हिचित् प्रभो।
स एष भगवान् कालः सर्वेषां नः समागतः॥

हिन्दी अनुवाद:
यह भगवान का कालस्वरूप है, जिसके प्रभाव को यहां कोई भी रोक नहीं सकता। यह हम सभी के पास आया हुआ है।


श्लोक 20

येन चैवाभिपन्नोऽयं प्राणैः प्रियतमैरपि।
जनः सद्यो वियुज्येत किमुतान्यैः धनादिभिः॥

हिन्दी अनुवाद:
जिस काल के द्वारा प्रियतम प्राणों से भी तुरंत वियोग हो जाता है, उससे अन्य वस्तुएं जैसे धन आदि कैसे बच सकती हैं?


श्लोक 21

पितृभ्रातृसुहृत्पुत्रा हतास्ते विगतं वयः।
आत्मा च जरया ग्रस्तः परगेहमुपाससे॥

हिन्दी अनुवाद:
आपके पिता, भाई, मित्र और पुत्र सभी मर चुके हैं। आपकी आयु समाप्त हो रही है, और आप पराई संपत्ति पर निर्भर हैं।


श्लोक 22

अहो महीयसी जन्तोः जीविताशा यया भवान्।
भीमापवर्जितं पिण्डं आदत्ते गृहपालवत्॥

हिन्दी अनुवाद:
अहो! यह जीवन की आशा कितनी महान है कि आप भीम द्वारा अपमानित अन्न को घर के सेवक की तरह स्वीकार कर रहे हैं।


श्लोक 23

अग्निर्निसृष्टो दत्तश्च गरो दाराश्च दूषिताः।
हृतं क्षेत्रं धनं येषां तद्दत्तैरसुभिः कियत्॥

हिन्दी अनुवाद:
जिनका घर जलाया गया, विष दिया गया, जिनकी पत्नियां अपमानित हुईं, जिनकी भूमि और धन छीने गए, उनके प्रति आपकी यह सहनशीलता कितनी अधिक है!


श्लोक 24

तस्यापि तव देहोऽयं कृपणस्य जिजीविषोः।
परैत्यनिच्छतो जीर्णो जरया वाससी इव॥

हिन्दी अनुवाद:
आपका यह शरीर भी अब पुराना हो चुका है और जर्जर हो रहा है। यह इच्छा के विपरीत आपको छोड़ देगा, जैसे पुराने वस्त्र फेंक दिए जाते हैं।


श्लोक 25

गतस्वार्थमिमं देहं विरक्तो मुक्तबन्धनः।
अविज्ञातगतिः जह्यात् स वै धीर उदाहृतः॥

हिन्दी अनुवाद:
जो व्यक्ति अपने कार्य पूरे कर चुका है, वह इस शरीर को त्यागकर, आसक्तियों से मुक्त होकर, अनजानी गति को प्राप्त करता है। वही धीर पुरुष कहलाता है।


श्लोक 26

यः स्वकात्परतो वेह जातनिर्वेद आत्मवान्।
हृदि कृत्वा हरिं गेहात् प्रव्रजेत् स नरोत्तमः॥

हिन्दी अनुवाद:
जो स्वयं या दूसरों के अनुभव से संसार से वैराग्य प्राप्त करता है, और भगवान हरि को हृदय में धारण कर घर छोड़ देता है, वही उत्तम मनुष्य है।


श्लोक 27

अथोदीचीं दिशं यातु स्वैरज्ञात गतिर्भवान्।
इतोऽर्वाक् प्रायशः कालः पुंसां गुणविकर्षणः॥

हिन्दी अनुवाद:
आप हिमालय की ओर उत्तर दिशा में जाएं। यहां काल पुरुष की शक्ति प्रबल है, जो गुणों को क्षीण करता है।


श्लोक 28

एवं राजा विदुरेणानुजेन
प्रज्ञाचक्षुर्बोधित आजमीढः।
छित्त्वा स्वेषु स्नेहपाशान्द्रढिम्नो
निश्चक्राम भ्रातृसन्दर्शिताध्वा॥

हिन्दी अनुवाद:
इस प्रकार विदुर ने अपने बड़े भाई धृतराष्ट्र को ज्ञान की दृष्टि दी। उन्होंने अपने मजबूत स्नेहपाशों को काटकर विदुर के दिखाए मार्ग पर चलने का निश्चय किया।

श्लोक 29

पतिं प्रयान्तं सुबलस्य पुत्री
पतिव्रता चानुजगाम साध्वी।
हिमालयं न्यस्तदण्डप्रहर्षं
मनस्विनामिव सत्सम्प्रहारः॥

हिन्दी अनुवाद:
जब धृतराष्ट्र ने विदुर के साथ हिमालय की ओर प्रस्थान किया, तो उनकी पतिव्रता पत्नी गांधारी भी उनके साथ गईं। यह दृढ़ और साहसी लोगों की तपस्या जैसी लग रही थी।


श्लोक 30

अजातशत्रुः कृतमैत्रो हुताग्निः
विप्रान् नत्वा तिलगोभूमिरुक्मैः।
गृहं प्रविष्टो गुरुवन्दनाय
न चापश्यत् पितरौ सौबलीं च॥

हिन्दी अनुवाद:
युधिष्ठिर ने अपने कर्तव्य पूरे कर, अग्नि में हवन किया और ब्राह्मणों को भूमि और सोना दान दिया। जब वे अपने गुरु को प्रणाम करने घर लौटे, तो उन्होंने अपने पिता, धृतराष्ट्र, और गांधारी को वहाँ नहीं पाया।


श्लोक 31

तत्र सञ्जयमासीनं पप्रच्छोद्विग्नमानसः।
गावल्गणे क्व नस्तातो वृद्धो हीनश्च नेत्रयोः॥

हिन्दी अनुवाद:
उन्हें वहाँ केवल संजय मिले। तब युधिष्ठिर ने व्याकुल होकर पूछा, "हे गावल्गण (संजय), हमारे वृद्ध पिता धृतराष्ट्र, जो नेत्रहीन हैं, कहाँ चले गए?"


श्लोक 32

अम्बा च हतपुत्राऽऽर्ता पितृव्यः क्व गतः सुहृत्।
अपि मय्यकृतप्रज्ञे हतबन्धुः स भार्यया।
आशंसमानः शमलं गङ्‌गायां दुःखितोऽपतत्॥

हिन्दी अनुवाद:
"मेरी माता गांधारी, जो अपने पुत्रों के वियोग से दुखी हैं, और विदुर जैसे मेरे हितैषी कहाँ गए? कहीं ऐसा तो नहीं कि वे मुझसे निराश होकर, दुःखी होकर गंगा में जलसमाधि लेने चले गए?"


श्लोक 33

पितर्युपरते पाण्डौ सर्वान्नः सुहृदः शिशून्।
अरक्षतां व्यसनतः पितृव्यौ क्व गतावितः॥

हिन्दी अनुवाद:
"जब पिताजी पांडु का देहावसान हुआ, तब धृतराष्ट्र और विदुर ने हमें और हमारे बच्चों को विपत्तियों से बचाया। वे दोनों रक्षक अब कहाँ गए?"


श्लोक 34

सूत उवाच
कृपया स्नेहवैक्लव्यात् सूतो विरहकर्शितः।
आत्मेश्वरमचक्षाणो न प्रत्याहातिपीडितः॥

हिन्दी अनुवाद:
सूत जी बोले: संजय स्नेह और करुणा से अत्यंत व्याकुल हो गए थे। वे धृतराष्ट्र के अचानक चले जाने से दुखी थे और भगवान के विधान को समझ नहीं पा रहे थे। वे उत्तर देने में असमर्थ थे।


श्लोक 35

विमृज्याश्रूणि पाणिभ्यां विष्टभ्यात्मानमात्मना।
अजातशत्रुं प्रत्यूचे प्रभोः पादावनुस्मरन्॥

हिन्दी अनुवाद:
संजय ने अपने आँसू पोंछे और मन को स्थिर किया। भगवान के चरणों का स्मरण करते हुए, उन्होंने युधिष्ठिर को उत्तर दिया।


श्लोक 36

सञ्जय उवाच
नाहं वेद व्यवसितं पित्रोर्वः कुलनन्दन।
गान्धार्या वा महाबाहो मुषितोऽस्मि महात्मभिः॥

हिन्दी अनुवाद:
संजय बोले: हे कुलनन्दन युधिष्ठिर! मैं आपके पिता धृतराष्ट्र और माता गांधारी की स्थिति के बारे में कुछ नहीं जानता। वे महात्मा मुझे बिना बताए चले गए हैं।


श्लोक 37

अथाजगाम भगवान् नारदः सहतुम्बुरुः।
प्रत्युत्थायाभिवाद्याह सानुजोऽभ्यर्चयन् मुनिम्॥

हिन्दी अनुवाद:
उसी समय, देवर्षि नारद अपने पार्षद तुम्बुरु के साथ वहाँ आए। युधिष्ठिर और उनके भाइयों ने उठकर उन्हें प्रणाम किया और उनकी पूजा की।


श्लोक 38

युधिष्ठिर उवाच
नाहं वेद गतिं पित्रोः भगवन् क्व गतावितः।
अम्बा वा हतपुत्रार्ता क्व गता च तपस्विनी॥

हिन्दी अनुवाद:
युधिष्ठिर ने नारद मुनि से पूछा: हे भगवन्! मैं नहीं जानता कि मेरे पिता और माता कहाँ गए। मेरी माता गांधारी, जो अपने पुत्रों के वियोग से दुखी हैं, वे तपस्या करने कहाँ चली गईं?


श्लोक 39

कर्णधार इवापारे भगवान् पारदर्शकः।
अथाबभाषे भगवान् नारदो मुनिसत्तमः॥

हिन्दी अनुवाद:
जैसे एक जहाज का कर्णधार मार्गदर्शन करता है, वैसे ही नारद मुनि ने अपनी दिव्य दृष्टि से स्थिति को समझते हुए बोलना प्रारंभ किया।


श्लोक 40

नारद उवाच
मा कञ्चन शुचो राजन् यदीश्वरवशं जगत्।
लोकाः सपाला यस्येमे वहन्ति बलिमीशितुः॥

हिन्दी अनुवाद:
नारद ने कहा: हे राजन! शोक मत करो, क्योंकि यह सम्पूर्ण जगत भगवान की इच्छा के अधीन है। यहां तक कि लोकपाल भी भगवान के अधीन होकर उनकी आज्ञा का पालन करते हैं।


श्लोक 41

स संयुनक्ति भूतानि स एव वियुनक्ति च।
यथा गावो नसि प्रोताः तन्त्यां बद्धाः स्वदामभिः॥

हिन्दी अनुवाद:
भगवान ही जीवों को जोड़ते हैं और वही उन्हें अलग करते हैं। जैसे गायें रस्सी से बंधी होती हैं, वैसे ही जीव भगवान की माया से बंधे होते हैं।


श्लोक 42

यथा क्रीडोपस्कराणां संयोगविगमाविह।
इच्छया क्रीडितुः स्यातां तथैवेशेच्छया नृणाम्॥

हिन्दी अनुवाद:
जैसे खेल के उपकरण खेलने वाले की इच्छा से जुड़े और अलग होते हैं, वैसे ही भगवान की इच्छा से जीवों का संयोग और वियोग होता है।


श्लोक 43

यन्मन्यसे ध्रुवं लोकं अध्रुवं वा न चोभयम्।
सर्वथा न हि शोच्यास्ते स्नेहात् अन्यत्र मोहजात्॥

हिन्दी अनुवाद:
जिसे तुम स्थायी, अस्थायी या कुछ भी नहीं मानते, वह मोहजनित स्नेह से उत्पन्न है। इसलिए उन पर शोक करना उचित नहीं है।


श्लोक 44

तस्माज्जह्यङ्‌ग वैक्लव्यं अज्ञानकृतमात्मनः।
कथं त्वनाथाः कृपणा वर्तेरंस्ते च मां विना॥

हिन्दी अनुवाद:
इसलिए, अपने अज्ञान से उत्पन्न वैक्लव्य (दुःख) को त्याग दो। जो भगवान के अधीन हैं, वे अनाथ नहीं हो सकते, भले ही मैं उनके साथ न रहूं।


श्लोक 45

कालकर्म गुणाधीनो देहोऽयं पाञ्चभौतिकः।
कथमन्यांस्तु गोपायेत् सर्पग्रस्तो यथा परम्॥

हिन्दी अनुवाद:
यह पंचभौतिक शरीर काल, कर्म और गुणों के अधीन है। जैसे साँप से ग्रस्त व्यक्ति दूसरों की रक्षा नहीं कर सकता, वैसे ही कोई इस शरीर से दूसरों की रक्षा नहीं कर सकता।


श्लोक 46

अहस्तानि सहस्तानां अपदानि चतुष्पदाम्।
फल्गूनि तत्र महतां जीवो जीवस्य जीवनम्॥

हिन्दी अनुवाद:
हाथ रहित जीव सशस्त्र जीवों का आहार बनते हैं, और छोटे बड़े जीवों का। यहाँ प्रकृति का नियम है कि एक जीव दूसरे के जीवन का आधार है।


श्लोक 47

तदिदं भगवान् राजन् एक आत्मात्मनां स्वदृक्।
अन्तरोऽनन्तरो भाति पश्य तं माययोरुधा॥

हिन्दी अनुवाद:
हे राजन! वह भगवान, जो सभी आत्माओं के भीतर और बाहर विद्यमान हैं, अपनी माया से अनेक रूपों में प्रकट होते हैं। उन्हें देखो और समझो।


श्लोक 48

सोऽयमद्य महाराज भगवान् भूतभावनः।
कालरूपोऽवतीर्णोऽस्यां अभावाय सुरद्विषाम्॥

हिन्दी अनुवाद:
हे महाराज! यह भगवान, जो समस्त जीवों के रक्षक हैं, कालरूप में अधर्मियों के विनाश और धर्म की स्थापना के लिए प्रकट हुए हैं।


श्लोक 49

निष्पादितं देवकृत्यं अवशेषं प्रतीक्षते।
तावद् यूयं अवेक्षध्वं भवेद् यावदिहेश्वरः॥

हिन्दी अनुवाद:
भगवान ने देवताओं का कार्य पूरा कर दिया है और अब शेष कार्य के लिए प्रतीक्षा कर रहे हैं। जब तक भगवान यहाँ हैं, आप उन्हें समझने का प्रयास करें।


श्लोक 50

धृतराष्ट्रः सह भ्रात्रा गान्धार्या च स्वभार्यया।
दक्षिणेन हिमवत ऋषीणां आश्रमं गतः॥

हिन्दी अनुवाद:
धृतराष्ट्र, अपने भाई विदुर और पत्नी गांधारी के साथ हिमालय के दक्षिण में स्थित ऋषियों के आश्रम में चले गए।


श्लोक 51

स्रोतोभिः सप्तभिर्या वै स्वर्धुनी सप्तधा व्यधात्।
सप्तानां प्रीतये नाना सप्तस्रोतः प्रचक्षते॥

हिन्दी अनुवाद:
वह स्थान गंगा के सात धाराओं में विभाजित होने के लिए प्रसिद्ध है। इन सात धाराओं को विभिन्न स्थानों पर अलग-अलग नामों से जाना जाता है।


श्लोक 52

स्नात्वानुसवनं तस्मिन् हुत्वा चाग्नीन्यथाविधि।
अब्भक्ष उपशान्तात्मा स आस्ते विगतैषणः॥

हिन्दी अनुवाद:
धृतराष्ट्र ने वहाँ स्नान किया, यथाविधि अग्निहोत्र किया और केवल जल का आहार करते हुए सभी इच्छाओं को त्यागकर शांतचित्त हो गए।


श्लोक 53

जितासनो जितश्वासः प्रत्याहृतषडिन्द्रियः।
हरिभावनया ध्वस्तः अजःसत्त्वतमोमलः॥

हिन्दी अनुवाद:
उन्होंने आसन में स्थिरता, श्वासों पर नियंत्रण और इंद्रियों को संयमित कर लिया। भगवान श्रीहरि का ध्यान करते हुए उन्होंने रज, सत्त्व और तमोगुण के दोषों का नाश कर दिया।


श्लोक 54

विज्ञानात्मनि संयोज्य क्षेत्रज्ञे प्रविलाप्य तम्।
ब्रह्मण्यात्मानमाधारे घटाम्बरमिवाम्बरे॥

हिन्दी अनुवाद:
उन्होंने अपने मन को ज्ञान में स्थिर कर, क्षेत्रज्ञ (आत्मा) में लीन कर दिया और आत्मा को ब्रह्म में विलीन कर दिया, जैसे घड़े का स्थान आकाश में लीन हो जाता है।


श्लोक 55

ध्वस्तमायागुणोदर्को निरुद्धकरणाशयः।
निवर्तिताखिलाहार आस्ते स्थाणुरिवाचलः।
तस्यान्तरायो मैवाभूः सन्न्यस्ताखिलकर्मणः॥

हिन्दी अनुवाद:
उन्होंने माया और गुणों के प्रभाव को समाप्त कर दिया, सभी इंद्रियों और मन को नियंत्रित कर लिया और भोजन का त्याग कर स्थिर हो गए, जैसे कोई अचल स्तंभ हो। उनके इस मार्ग में कोई बाधा न हो, क्योंकि उन्होंने सभी कर्मों को त्याग दिया था।


श्लोक 56

स वा अद्यतनाद् राजन् परतः पञ्चमेऽहनि।
कलेवरं हास्यति स्वं तच्च भस्मीभविष्यति॥

हिन्दी अनुवाद:
हे राजन! आज से पाँचवें दिन, धृतराष्ट्र अपने शरीर को त्याग देंगे, और वह शरीर अग्नि के द्वारा भस्म हो जाएगा।


श्लोक 57

दह्यमानेऽग्निभिर्देहे पत्युः पत्‍नी सहोटजे।
बहिः स्थिता पतिं साध्वी तमग्निमनु वेक्ष्यति॥

हिन्दी अनुवाद:
जब धृतराष्ट्र का शरीर अग्नि में जल रहा होगा, तब गांधारी, उनकी पतिव्रता पत्नी, बाहर खड़ी होकर अग्नि को देखती रहेंगी।


श्लोक 58

विदुरस्तु तदाश्चर्यं निशाम्य कुरुनन्दन।
हर्षशोकयुतस्तस्माद् गन्ता तीर्थनिषेवकः॥

हिन्दी अनुवाद:
कुरुनंदन! विदुर इस अद्भुत घटना को देखकर हर्ष और शोक से युक्त हो जाएंगे और फिर तीर्थों की यात्रा पर निकल जाएंगे।


श्लोक 59

इत्युक्त्वाथारुहत् स्वर्गं नारदः सहतुम्बुरुः।
युधिष्ठिरो वचस्तस्य हृदि कृत्वाजहाच्छुचः॥

हिन्दी अनुवाद:
यह कहकर नारद मुनि तुम्बुरु के साथ स्वर्ग को लौट गए। युधिष्ठिर ने उनके वचनों को हृदय में धारण किया और शोक का त्याग कर दिया।


इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां प्रथमस्कन्धे नैमिषीयोपाख्याने त्रयोदशोऽध्यायः॥

इस प्रकार श्रीमद्भागवत महापुराण के प्रथम स्कंध में "नैमिषीयोपाख्यान" में तेरहवां अध्याय समाप्त हुआ।


भागवत प्रथम स्कन्ध, त्रयोदश अध्याय(हिन्दी अनुवाद)। यहाँ भागवत प्रथम स्कन्ध, त्रयोदश अध्याय(हिन्दी अनुवाद) के हर श्लोक का अलग-अलग हिन्दी अनुवाद दिया गया। यह भागवत प्रथम स्कन्ध, त्रयोदश अध्याय(हिन्दी अनुवाद) का पूरा अनुवाद है। यदि भागवत प्रथम स्कन्ध, त्रयोदश अध्याय(हिन्दी अनुवाद) के बारे में और जानकारी या सहायता चाहिए, तो कृपया कमेंट में बताएं।

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