संस्कृत श्लोक: "तृणानि भूमिरुदकं वाक् चतुर्थी च सूनृता" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद, सुभाषितानि सुविचार संस्कृत श्लोक भागवत दर्शन सूरज कृष्ण शास्त्री।
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संस्कृत श्लोक: "तृणानि भूमिरुदकं वाक् चतुर्थी च सूनृता" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद |
संस्कृत श्लोक: "तृणानि भूमिरुदकं वाक् चतुर्थी च सूनृता" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद
श्लोकः
तृणानि भूमिरुदकं वाक् चतुर्थी च सूनृता।
एतान्यपि सतां गेहे नोच्छिद्यन्ते कदाचन॥
हिन्दी अनुवादः
बैठने के लिए घास (आसन), भूमि (निवास स्थान), जल (पेय), और चौथी—मधुर एवं सत्यवादी वाणी— ये चार चीजें सज्जनों के घर में कभी भी नष्ट नहीं होतीं। अर्थात्, सज्जन व्यक्ति अपने अतिथियों और आगंतुकों का सत्कार कम से कम इन चार चीजों द्वारा अवश्य ही करते हैं।
शाब्दिक विश्लेषण
- तृणानि – घास, जिसका प्रयोग प्राचीन काल में आसन के रूप में होता था।
- भूमिः – निवास स्थान या बैठने के लिए भूमि।
- उदकम् – जल, जो जीवन के लिए आवश्यक है।
- वाक् – वाणी, जो किसी भी सत्कार का महत्त्वपूर्ण अंग होती है।
- चतुर्थी – चौथी चीज (यहाँ 'सूनृता' यानी मधुर वाणी की ओर संकेत करता है)।
- सूनृता – सौम्य और प्रिय वचन, अर्थात् मधुर वाणी।
- एतानि – ये सभी (चारों वस्तुएं)।
- अपि – भी।
- सतां – सज्जनों के, धर्मनिष्ठ लोगों के।
- गेहे – घर में।
- नोच्छिद्यन्ते – कभी समाप्त नहीं होते, नष्ट नहीं होते।
- कदाचन – कभी भी।
आधुनिक सन्दर्भ
यह श्लोक भारतीय संस्कृति की अतिथि-सत्कार परंपरा को दर्शाता है। प्राचीन समय में राजा हो या ऋषि, सभी के यहाँ आने वाले अतिथियों का स्वागत कम से कम इन चार चीजों से किया जाता था। यह विचार आज भी प्रासंगिक है—
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संपन्नता से अधिक संस्कार मायने रखते हैंआज के युग में धन-सम्पत्ति को ही आतिथ्य का मापदंड मान लिया गया है, जबकि यह श्लोक हमें सिखाता है कि अतिथि-सत्कार के लिए केवल साधन संपन्न होना आवश्यक नहीं है। मन में विनम्रता और सेवा-भावना हो तो सीमित संसाधनों के बावजूद भी किसी का यथायोग्य सम्मान किया जा सकता है।
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मधुर वाणी का महत्वभौतिक संसाधनों से अधिक महत्वपूर्ण है हमारी वाणी। कोई व्यक्ति कितना भी समृद्ध क्यों न हो, यदि उसकी वाणी कठोर है तो वह सम्मान खो सकता है। इसके विपरीत, मधुर एवं सत्य वचन से एक साधारण व्यक्ति भी दूसरों के मन में स्थान बना सकता है।
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पर्यावरण एवं जीवनशैलीआधुनिक जीवनशैली में भूमि, जल, और शुद्ध वातावरण दुर्लभ होते जा रहे हैं। इस श्लोक का संदेश यह भी हो सकता है कि सज्जन पुरुष अपने घर में इन मूलभूत आवश्यकताओं को सहेज कर रखते हैं— वे प्रकृति का सम्मान करते हैं, जल-संरक्षण करते हैं, और समरसता की भावना से रहते हैं।
निष्कर्ष:
यह श्लोक हमें यह सिखाता है कि वास्तविक समृद्धि धन से नहीं, बल्कि उदारता, आतिथ्य, और विनम्रता से होती है। यदि हमारे पास सीमित संसाधन भी हैं, तो भी हमें दूसरों के प्रति सद्भाव और सत्कार बनाए रखना चाहिए।
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