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कहानी: अतृप्त लोभ और संतोष का अमृत |
कहानी: अतृप्त लोभ और संतोष का अमृत
स्वर्ग के देवता इंद्र के पास एक व्यक्ति भिक्षा मांगने आया। इंद्र ने धन के स्वामी कुबेर को आदेश दिया—
"यह व्यक्ति अत्यंत गरीब है, इसे भरपूर धन देकर संतुष्ट करो और तभी इसे वापस भेजना।"
कुबेर ने भिखारी से कहा—
"हे भाग्यवान, जो भी तुम्हारी इच्छा हो, मांग लो।"
भिखारी ने अपनी झोली में से एक पात्र निकाला और कुबेर के सामने करते हुए कहा—
"हे धनपति! आप कृपा करके इसी छोटे से पात्र को अपनी बहुमूल्य संपत्तियों से भर दीजिए।"
कुबेर ने मन ही मन सोचा—
"इतना छोटा-सा पात्र! इसमें दान देना मेरे सम्मान के अनुकूल नहीं है।"
उन्होंने भिखारी से कहा—
"तुम कोई बड़ा पात्र ले आओ, यह तो बहुत छोटा है।"
लेकिन भिखारी ने उत्तर दिया—
"मुझे केवल इतनी ही संपत्ति चाहिए, इससे अधिक की आवश्यकता नहीं।"
कुबेर का आश्चर्य
कुबेर ने उस पात्र को भरना आरंभ किया, किंतु आश्चर्यचकित रह गए! स्वर्ग की अपार संपत्ति उसमें डालने के बाद भी वह पात्र भरता ही नहीं था। जब कुबेर असफल हो गए, तो वे देवेंद्र इंद्र के पास पहुंचे और पूरी घटना सुनाई।
इंद्र भी यह सुनकर चकित रह गए और दोनों ने मिलकर भिखारी से पूछा—
"हे सज्जन, यह पात्र किस पदार्थ से बना हुआ है? कृपया हमें बताइए।"
भिखारी मुस्कुराया और बोला—
"हे स्वर्ग के स्वामी, यह पात्र मनुष्य की खोपड़ी से बना हुआ है। इस खोपड़ी में चाहे जितनी भी संपत्ति भर दो, यह कभी तृप्त नहीं होती। यह लोभ, तृष्णा और अंतहीन इच्छाओं से भरी रहती है। इन आकांक्षाओं को समाप्त करना अत्यंत कठिन है।"
लोभ की अग्नि और संतोष का मूल्य
इंद्र और कुबेर ने उससे क्षमा मांगते हुए कहा—
"हम आपके इस पात्र को भरने में असमर्थ हैं, हमें क्षमा करें।"
तब इंद्र ने गहरी सांस लेते हुए कहा—
"यदि एक मनुष्य की तृष्णा इतनी असीमित है, तो समस्त मानवता की तृष्णा को शांत करना तो असंभव है। इसलिए, हमें संतोष को ही अपनाना चाहिए।"
मनुष्य सदैव अधिक पाने की लालसा में रहता है। लालच, कषाय (आंतरिक अशुद्धियों) से उत्पन्न होता है और यह हमारे आध्यात्मिक गुणों को क्षति पहुंचाता है। लोभ से तृष्णा जन्म लेती है, जो अग्नि के समान है। जैसे अग्नि में ईंधन डालने पर वह और भड़कती है, वैसे ही लोभी व्यक्ति की इच्छाएँ कभी समाप्त नहीं होतीं।
एक कहावत है—
"लोभ सभी पापों का जनक है।"
लोभी व्यक्ति न केवल स्वयं अशांत रहता है, बल्कि अपने चारों ओर भी अशांति फैला देता है।
संतोष—सच्चा धन
किन्तु संतोष ही शाश्वत धन है। इसके आगे समस्त सांसारिक संपत्तियाँ तुच्छ प्रतीत होती हैं। संतोषी व्यक्ति सदैव सुखी रहता है।
मनुष्य की खोपड़ी चिकनी और उलटी होती है—
- सीधी खोपड़ी पर कुछ डालो तो वह फिसलकर गिर जाता है।
- उलटी खोपड़ी में कुछ डालो तो वह खाली ही रह जाती है।
अतः, सच्चे पुरुषों को संतोष रूपी धन को ही धारण करना चाहिए, क्योंकि इससे बड़ा कोई धन नहीं है।