Abhigyan-shakuntalam: चतुर्थ अंक के आरम्भ से श्लोक 1(विचिन्तयन्ती यमनन्यमानसा)तक, भागवत दर्शन, सूरज कृष्ण शास्त्री।
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Abhigyan-shakuntalam: चतुर्थ अंक के आरम्भ से श्लोक 1(विचिन्तयन्ती यमनन्यमानसा)तक |
Abhigyan-shakuntalam: चतुर्थ अंक के आरम्भ से श्लोक 1(विचिन्तयन्ती यमनन्यमानसा)तक
प्रवेश दृश्य
व्याकरण एवं शब्दार्थ
अनसूया का भावप्रद कथन
व्याकरण एवं शब्दार्थ
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गान्धर्वेणं विवाहेन – द्रष्टव्य – तृ० अं० के श्लो २० की टिप्पणी।
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निर्वृत्तकल्याणा – निर्वृत्तं (निर+वृत्+क्त) निष्पन्नं कल्याणं मङ्गलं (मनोरथ-सिद्धिः) यस्या सा (ब०त्री०) = सम्पन्न हो गया है विवाहरूप मङ्गल (मनोरथ-सिद्धि) जिसका, ऐसी। यह पद ‘शकुन्तला’ इस पद का विशेषण है।
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अनुरूपभर्तृगामिनी – अनुरूपं योग्यं पतिं गच्छति (या) सा (अनुरूप+भर्तृ+गम्+णिनि+ङीप्) = अपने अनुरूप (योग्य) पति को पाने वाली।
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संवृत्ता – सम्+वृत्+क्त+टाप् = हो गयी है।
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निर्वृत – निर्+वृ+क्त = आनन्दित (प्रसन्न) (है)।
भावार्थ
अनसूया – सखी प्रियंवदा! गान्धर्व (विवाह) विधि से सम्पन्न (विवाहरूप) कल्याण (मङ्गल कार्य) वाली शकुन्तला यद्यपि अपने योग्य पति से सङ्गत हो गयी है (अर्थात् अपने योग्य पति को पा गयी है), इसलिये मेरा हदय आनन्दित (प्रसन्न) है, तथापि इतनी सी बात विचारणीय है।
प्रियंवदा की जिज्ञासा
अनसूया का उत्तर
व्याकरण एवं शब्दार्थ
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राजर्षिरिष्टिम् = राजर्षिः+इष्टिम् (यज्+क्तिन्) = यज्ञ को।
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परिसमाप्य – परि+सम्+आप्+क्त्वा+ल्यप् = समाप्त (सम्पन्न) कर।
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विसर्जितः – वि+सृज्+क्त – (राजधानी गमनाय) अनुज्ञातः = (राजधानी जाने के लिये ऋषियों द्वारा) छोड़ा गया (बिदा किया गया)।
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प्रविश्य – प्र+विश्+क्त्वा – प्रवेश कर।
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इतो गतम् – यहाँ घटित (यहाँ के विवाहादि)।
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वृत्तान्तम् – बात को।
अनसूया की शंका एवं प्रियंवदा का उत्तर
अनसूया का कथन
प्रियंवदा का उत्तर
व्याकरण एवं शब्दार्थ
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विखबव्धा = वि+खम्भ्+क्त+टाप् = विश्वस्ता, निःशङ्का।
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आकृतिविरोषाः = आकृतीनां विशेषाः = सुंदर आकृति वाले।
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गुणविरोधिनः = गुणों के विरुद्ध, निर्गुण।
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प्रतिपत्स्यते = प्रति+पद् (लट्, प्र०पु०, ए०व०) = करेगा (सोचेगा)।
विशेष टिप्पणियाँ
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"यत्राकृतिस्तत्र गुणा वसन्ति" – बृहत्संहिता का कथन: जहाँ सुंदर रूप होता है, वहाँ गुण भी होते हैं।
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"यत्राकारस्ततो गुणाः" – अग्निपुराण का वचन।
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मृच्छकटिक – "न ह्याकृतिः सुसदृशं विजहाति वृत्तम्।" – सुंदर आकृति वाले व्यक्ति सद्गुणों से वंचित नहीं होते।
भावार्थ
प्रियंवदा – विश्वस्त (निश्चिन्त) रहो। उस प्रकार की विशिष्ट (सुंदर) आकृतियाँ गुणों से रहित नहीं होती हैं। पिता (कण्व) इस समाचार को सुनकर क्या करेंगे – यह कहना कठिन है (अनुमोदन करेंगे या नहीं, यह विचारणीय है।)
संयोग-संधियाँ (विशेष टिप्पणी)
अनसूया का सकारात्मक अनुमान
भावार्थ
अनसूया – जैसा मैं समझती हूँ, वैसा ही यह (गान्धर्व विवाह) उन्हें (कण्व मुनि को) स्वीकार्य होगा।
प्रियंवदा की जिज्ञासा
भावार्थ
कैसे?
अनसूया का तर्क
व्याकरण एवं शब्दार्थ
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गुणवते – गुणवान् को (गुण+मतुप्, च०ए०व०)।
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प्रतिपादनीया – प्रति+पद्+णिच्+अनीयर+टाप् = देनी चाहिये।
भावार्थ
अनसूया – गुणवान् व्यक्ति को कन्या देनी चाहिए – यह माता-पिता का प्रथम संकल्प होता है। यदि वही संयोग दैव द्वारा स्वतः सम्पन्न हो गया हो, तो गुरुजन बिना प्रयास के ही कृतार्थ हो जाते हैं।
प्रियंवदा का पुष्प निरीक्षण
भावार्थ
प्रियंवदा – सखि, बलिकर्म के लिए पर्याप्त पुष्प चुन लिए गये हैं।
प्रियंवदा (पुष्पपात्रं दृष्ट्वा):
"सखे, बलिकर्मणि योग्याणि पुष्पाणि संचितानि।"(प्राकृत: णं सहिए, बलिकम्मणि जोग्गाणि फुस्साणि संचिअाणि।)
अनसूया:
"ननु सख्याः शकुन्तलायाः सौभाग्यदेवताऽर्चनीया।"(प्राकृत: णं सहिए सउन्दलाए सोहग्गदेवआ अच्चणीआ।)
प्रियंवदा:
"युज्यते।"(प्राकृत: जुज्जदि।)(इति तदेव कर्माभिनयतः।)
(नेपथ्ये)
"अयमहम् भोः!"
अनसूया (कर्णं दत्त्वा):
"सखि, अतिथीनामिव निवेदितम्।"(प्राकृत: सहि, अदिधीणं विअ णिवेदिदं।)
प्रियंवदा:
"ननूटजसन्निहिता शकुन्तला।"(प्राकृत: णं उडजसण्णिहिदा सउन्दला।)
अनसूया:
"अद्य पुनर्हृदयेनासन्निहिता। अलमेतावद्भिः कुसुमैः।"(प्राकृत: अज्ज उण हिअएण असण्णिहिदा। अलं एत्तिएहिं फुसुमेहिं।)(इति प्रस्थिते।)
(नेपथ्ये)
"आः! अतिथिपरिभाविनि!"
📜 श्लोक (दुर्वासा का शाप)
विचिन्तयन्ती यमनन्यमानसातपोधनं वेत्सि न मामुपस्थितम्।स्मरिष्यति त्वां न स बोधितोऽपि सन्कथां प्रमत्तः प्रथमं कृतामिव॥
🔍 शब्दार्थ और पदविभाजन:
शब्द | अर्थ |
---|---|
विचिन्तयन्ती | निरन्तर स्मरण करती हुई |
यम् | जिसे (पुरुष, अर्थात् दुष्यन्त) |
अनन्यमानसा | जिसका चित्त उसी में एकाग्र है |
तपोधनम् | तप ही जिसका धन है – दुर्वासा |
वेत्सि | जानती हो |
न | नहीं |
माम् | मुझे |
उपस्थितम् | उपस्थित, सामने आया हुआ |
स्मरिष्यति | स्मरण करेगा |
त्वाम् | तुम्हें |
न | नहीं |
सः | वह (दुष्यन्त) |
बोधितः सन् | स्मरण कराया गया होने पर भी |
प्रमत्तः | उन्मत्त (मोह या पागलपनवश) |
कथां | बात (घटना, कथा) |
प्रथमं कृताम् | पहले कही गई, पहले की गई |
इव | जैसे |
🌸 सरल संस्कृतार्थ (सरल अन्वय सहित):
🪔 हिंदी भावार्थ:
📚 व्याकरणिक विश्लेषण:
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अनन्यमानसा — न + अन्य + मानस (ब.प्र.स्त्री), "जिसका चित्त अन्यत्र नहीं गया"
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विचिन्तयन्ती — वि + चिन्त् (धातु) + णिच् + शतृ (वर्तमान काल), "स्मरण करती हुई"
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तपोधनम् — तपस् + धन, "तप को ही धन मानने वाला", बहुब्रीहि समास
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प्रमत्तः — प्र + मद् (उन्माद) + क्त, "उन्मत्त, प्रमादी"
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बोधितः — बुध् (जानना) + णिच् + क्त, "स्मरण दिलाया गया"
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स्मरिष्यति — स्मृ (याद करना) + लृट्, भविष्यत् काल
🎭 रस, भाव, अलंकार विश्लेषण:
🌊 रस:
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यहाँ रौद्र रस की भावना है — दुर्वासा ऋषि के क्रोध रूप में।
✨ अलंकार:
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काव्यलिङ्गम् — "दुष्यन्त न स्मरिष्यति" का कारण रूप में पूर्व में अतिथि का अपमान।
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परिकर अलंकार — “तपोधनम्” विशेषण से दुर्वासा की तपस्विता का व्यंग्य।
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पूर्णोपमा —
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उपमेय: दुष्यन्त
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उपमान: प्रमत्त (मत्त व्यक्ति)
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साधारण धर्म: विस्मरण
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उपमावाचक शब्द: "इव"
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श्लेष — "कथां प्रमत्तः प्रथमं कृतामिव" – ‘कथा’ और ‘विवाह कथा’ दोनों अर्थों में।
🪶 छन्द:
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वंशस्थ छन्द – लक्षण - जतौ तु वंशस्थमुदीरितं जरौ।। प्रत्येक चरण में 12 मात्रा।
🔍 विशेष टिप्पणी:
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शकुन्तला का अपराध:दुर्वासा का शाप शकुन्तला की अतिथि के प्रति अनवधानता के कारण है, न कि उसके मन की आसक्ति के कारण।
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कालिदास की मौलिक कल्पना:मूल महाभारत कथा में इस शाप का उल्लेख नहीं है।कालिदास ने इसे नाटक में जोड़ा ताकि दुष्यन्त के शकुन्तला को न पहचानने का एक मानसिक और कथात्मक औचित्य बन सके।
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कथावस्तु की संगति:इस शाप की परिकल्पना के बिना पञ्चम अंक में दुष्यन्त-शकुन्तला मिल जाते, और कथा में नाटकीय उत्कर्ष नहीं आ पाता।
- कथां प्रमत्तः प्रथमं कृतामिव - यह औपम्यविधान अत्यन्त सटीक एवं सार्थक है । जैसे प्रमत्त (शराबी व्यक्ति) याद दिलाये जाने पर भी पहले की गयी ~ कही गयी - बात को स्मरण दिलाने पर भी नही समझ पाता, उसी प्रकार शकुन्तला का चिन्तनीय (अभीष्ट) व्यक्ति भी उसके घटित घटना का स्मरण नही कर पायेगा ।
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