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Abhigyan-shakuntalam: चतुर्थ अंक के आरम्भ से श्लोक 1(विचिन्तयन्ती यमनन्यमानसा)तक

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Abhigyan-shakuntalam: चतुर्थ अंक के आरम्भ से श्लोक 1(विचिन्तयन्ती यमनन्यमानसा)तक, भागवत दर्शन, सूरज कृष्ण शास्त्री।

Abhigyan-shakuntalam: चतुर्थ अंक के आरम्भ से श्लोक 1(विचिन्तयन्ती यमनन्यमानसा)तक
Abhigyan-shakuntalam: चतुर्थ अंक के आरम्भ से श्लोक 1(विचिन्तयन्ती यमनन्यमानसा)तक


Abhigyan-shakuntalam: चतुर्थ अंक के आरम्भ से श्लोक 1(विचिन्तयन्ती यमनन्यमानसा)तक

प्रवेश दृश्य

(ततः प्रविशतः कुसुमावचयं नाटयन्त्यौ सख्यौ)
(तत्पश्चात्‌ फूल चुनने का अभिनय करती हुयी दोनों सखियाँ प्रवेश करती हैं।)

व्याकरण एवं शब्दार्थ

कुसुमावचयम्‌कुसुमानामवचयम्‌ (अव+चि+अच्‌) = फूलों का चुनना।
विशेष व्याकरणिक टिप्पणी – ‘अवचय’ यह पद अशुद्ध है। यहाँ हस्तादाने चेरस्तेये सूत्र से चिं धातु से धञ्‌ होकर अवचायः बनता है। कालिदास ने मालविकाग्निमित्रम्‌ में भी कुसुमावचयव्यग्रहस्ता यह प्रयोग किया है।
नाटयन्त्यौअभिनयन्त्यौ = अभिनय करती हुयी।

अनसूया का भावप्रद कथन

अनसूया –
हला प्रियंवदे, यद्यपि गान्धर्वेण विधिना निर्वृत्तकल्याणा शकुन्तलाऽनुरूपभर्तृगामिनी संवृत्तेति निर्वृतं मे हदयम्‌ तथाप्येतावच्चिन्तनीयम्‌।
(हला पिअंवदे, जई वि गन्धव्वेण विहिणा णिव्वुत्तकल्लाणा सउन्दला अणुरूवभत्तुगामिणी संवृत्तेति णिव्वुदं मे हिअअं। तह वि एतिअं चिन्तणिज्जं।)

व्याकरण एवं शब्दार्थ

  • गान्धर्वेणं विवाहेन – द्रष्टव्य – तृ० अं० के श्लो २० की टिप्पणी।

  • निर्वृत्तकल्याणानिर्वृत्तं (निर+वृत्‌+क्त) निष्पन्नं कल्याणं मङ्गलं (मनोरथ-सिद्धिः) यस्या सा (ब०त्री०) = सम्पन्न हो गया है विवाहरूप मङ्गल (मनोरथ-सिद्धि) जिसका, ऐसी। यह पद ‘शकुन्तला’ इस पद का विशेषण है।

  • अनुरूपभर्तृगामिनीअनुरूपं योग्यं पतिं गच्छति (या) सा (अनुरूप+भर्तृ+गम्‌+णिनि+ङीप्‌) = अपने अनुरूप (योग्य) पति को पाने वाली।

  • संवृत्तासम्‌+वृत्‌+क्त+टाप्‌ = हो गयी है।

  • निर्वृतनिर्‌+वृ+क्त = आनन्दित (प्रसन्न) (है)।

भावार्थ

अनसूया – सखी प्रियंवदा! गान्धर्व (विवाह) विधि से सम्पन्न (विवाहरूप) कल्याण (मङ्गल कार्य) वाली शकुन्तला यद्यपि अपने योग्य पति से सङ्गत हो गयी है (अर्थात्‌ अपने योग्य पति को पा गयी है), इसलिये मेरा हदय आनन्दित (प्रसन्न) है, तथापि इतनी सी बात विचारणीय है।


प्रियंवदा की जिज्ञासा

प्रियवदा – कथमिव ?
(कहं विअ ?)
शब्दार्थ – कौन-सी?


अनसूया का उत्तर

अनसूया –
अद्य सः राजर्षिरिष्टिं परिसूमाप्यर्षिभिर्विसर्जित आत्मनो नगरं प्रविश्यान्तःपुरसमागतं इतोगतं वृत्तान्तं स्मरति वा न वेति।
(अज्ज सो राएसी इं परिसमाविअ इसी विसज्जिओ अत्तणो णञरं पविसिअ अन्तेउरसमागदो इदोगदं वुत्तन्तं सुमिरदि वा ण वेति।)

व्याकरण एवं शब्दार्थ

  • राजर्षिरिष्टिम्‌ = राजर्षिः+इष्टिम्‌ (यज्‌+क्तिन्‌) = यज्ञ को।

  • परिसमाप्यपरि+सम्‌+आप्‌+क्त्वा+ल्यप्‌ = समाप्त (सम्पन्न) कर।

  • विसर्जितःवि+सृज्‌+क्त – (राजधानी गमनाय) अनुज्ञातः = (राजधानी जाने के लिये ऋषियों द्वारा) छोड़ा गया (बिदा किया गया)।

  • प्रविश्यप्र+विश्‌+क्त्वा – प्रवेश कर।

  • इतो गतम्‌ – यहाँ घटित (यहाँ के विवाहादि)।

  • वृत्तान्तम्‌ – बात को।

अनसूया की शंका एवं प्रियंवदा का उत्तर

अनसूया का कथन

अनसूया –
आज वह राजर्षि (दुष्यन्त) यज्ञ को समाप्त करने के बाद ऋषियों द्वारा विदा किये जाने पर (जब) अपने नगर में प्रवेश करेगा तब अन्तःपुर की स्त्रियों से मिलने के बाद यहाँ के वृत्तान्त (विवाह आदि की बात) को याद करेगा या नहीं?


प्रियंवदा का उत्तर

प्रियंवदा –
विखबव्धा भव । न तादृशा आकृतिविरोषा गुणविरोधिनो भवन्ति । तात इदानीमिमं वृत्तान्तं श्रुत्वा न जाने किं प्रतिपत्स्यत इति ।
(वीसद्धा होहि । ण तदिसा आकिदिविसेसा गुणविरोहिणो होन्ति । तादो दाणि इमं वुत्तन्तं सुणिअ अ आणे किं पडिवज्जिस्सदि त्ति ।)

व्याकरण एवं शब्दार्थ

  • विखबव्धा = वि+खम्भ्‌+क्त+टाप्‌ = विश्वस्ता, निःशङ्का।

  • आकृतिविरोषाः = आकृतीनां विशेषाः = सुंदर आकृति वाले।

  • गुणविरोधिनः = गुणों के विरुद्ध, निर्गुण।

  • प्रतिपत्स्यते = प्रति+पद्‌ (लट्‌, प्र०पु०, ए०व०) = करेगा (सोचेगा)।

विशेष टिप्पणियाँ

  1. "यत्राकृतिस्तत्र गुणा वसन्ति"बृहत्संहिता का कथन: जहाँ सुंदर रूप होता है, वहाँ गुण भी होते हैं।

  2. "यत्राकारस्ततो गुणाः"अग्निपुराण का वचन।

  3. मृच्छकटिक – "न ह्याकृतिः सुसदृशं विजहाति वृत्तम्‌।" – सुंदर आकृति वाले व्यक्ति सद्गुणों से वंचित नहीं होते।

भावार्थ

प्रियंवदा – विश्वस्त (निश्चिन्त) रहो। उस प्रकार की विशिष्ट (सुंदर) आकृतियाँ गुणों से रहित नहीं होती हैं। पिता (कण्व) इस समाचार को सुनकर क्या करेंगे – यह कहना कठिन है (अनुमोदन करेंगे या नहीं, यह विचारणीय है।)


संयोग-संधियाँ (विशेष टिप्पणी)

🔸 राघवभट्ट के अनुसार – चतुर्थ अङ्क के प्रारम्भ से लेकर पञ्चम अङ्क के श्लोक १८ के पश्चात् "इति यथोक्तं करोति" तक गर्भसन्धि है।
🔸 विश्वनाथ के अनुसार – यहाँ से लेकर सप्तम अङ्क में शकुन्तला के पहचानने तक विमर्शसन्धि है।
🔸 विश्वनाथ के ही अनुसार – तृतीय अङ्क के "स्निग्धजनसंविभक्तम्‌" वाक्य से अङ्क की समाप्ति तक गर्भसन्धि है।


अनसूया का सकारात्मक अनुमान

अनसूया –
यथाऽहं पश्यामि, तथा तस्यानुमतं भवेत्‌।
(जह अहं देक्खामि, तह तस्स अणुमदं भवे।)

भावार्थ

अनसूया – जैसा मैं समझती हूँ, वैसा ही यह (गान्धर्व विवाह) उन्हें (कण्व मुनि को) स्वीकार्य होगा।


प्रियंवदा की जिज्ञासा

प्रियंवदा –
कथमिव?
(कहं विअ?)

भावार्थ

कैसे?


अनसूया का तर्क

अनसूया –
गुणवते कन्यका प्रतिपादनीयेत्ययं तावत्‌ प्रथमः सङ्कल्पः। तं यदि दैवमेव सम्पादयति, नन्वप्रयासेन कृतार्थो गुरुजनः।
(गुणवदे कण्णआ पडिवादणिज्जे त्ति अअं दाव पढमो संकप्पो। तं जई देव्वं एव्व संपादेदि णं अप्पआसेण किदत्थो गुरूअणो।)

व्याकरण एवं शब्दार्थ

  • गुणवते – गुणवान्‌ को (गुण+मतुप्‌, च०ए०व०)।

  • प्रतिपादनीयाप्रति+पद्‌+णिच्‌+अनीयर+टाप्‌ = देनी चाहिये।

भावार्थ

अनसूया – गुणवान्‌ व्यक्ति को कन्या देनी चाहिए – यह माता-पिता का प्रथम संकल्प होता है। यदि वही संयोग दैव द्वारा स्वतः सम्पन्न हो गया हो, तो गुरुजन बिना प्रयास के ही कृतार्थ हो जाते हैं।


प्रियंवदा का पुष्प निरीक्षण

प्रियंवदा (पुष्पभाजनं विलोक्य) –
सखि, अवचितानि बलिकर्मपर्याप्तानि कुसुमानि।
(सहि, अवहदाई बलिकम्मपज्जत्ताई कुसुमाई।)

भावार्थ

प्रियंवदा – सखि, बलिकर्म के लिए पर्याप्त पुष्प चुन लिए गये हैं।


प्रियंवदा (पुष्पपात्रं दृष्ट्वा):

"सखे, बलिकर्मणि योग्याणि पुष्पाणि संचितानि।"
(प्राकृत: णं सहिए, बलिकम्मणि जोग्गाणि फुस्साणि संचिअाणि।)

हिंदी:
सखी! बलिकर्म (पूजा) के लिए उपयुक्त पुष्प इकट्ठे कर लिये गये हैं।


अनसूया:

"ननु सख्याः शकुन्तलायाः सौभाग्यदेवताऽर्चनीया।"
(प्राकृत: णं सहिए सउन्दलाए सोहग्गदेवआ अच्चणीआ।)

हिंदी:
किन्तु सखी शकुन्तला के सौभाग्य (विवाह) की देवी की पूजा तो करनी ही चाहिए।


प्रियंवदा:

"युज्यते।"
(प्राकृत: जुज्जदि।)
(इति तदेव कर्माभिनयतः।)

हिंदी:
ठीक है। (फिर उसी कार्य — अर्थात पुष्पों को सजाने — का अभिनय करती है।)


(नेपथ्ये)

"अयमहम् भोः!"

हिंदी:
(नेपथ्य में कोई कहता है) — "अरे, मैं आ गया हूँ!"


अनसूया (कर्णं दत्त्वा):

"सखि, अतिथीनामिव निवेदितम्।"
(प्राकृत: सहि, अदिधीणं विअ णिवेदिदं।)

हिंदी:
सखी! यह तो किसी अतिथि के आगमन की सूचना जैसी प्रतीत हो रही है।


प्रियंवदा:

"ननूटजसन्निहिता शकुन्तला।"
(प्राकृत: णं उडजसण्णिहिदा सउन्दला।)

हिंदी:
शकुन्तला तो कुटी में ही उपस्थित है।


अनसूया:

"अद्य पुनर्हृदयेनासन्निहिता। अलमेतावद्भिः कुसुमैः।"
(प्राकृत: अज्ज उण हिअएण असण्णिहिदा। अलं एत्तिएहिं फुसुमेहिं।)
(इति प्रस्थिते।)

हिंदी:
किन्तु आज वह हृदय से यहाँ उपस्थित नहीं है। इन पुष्पों से ही काम चल जायेगा। (दोनों चल देती हैं।)


(नेपथ्ये)

"आः! अतिथिपरिभाविनि!"

हिंदी:
(नेपथ्य से कोई रोषपूर्वक पुकारता है) — "अरे! हे अतिथि का अपमान करने वाली!"

📜 श्लोक (दुर्वासा का शाप)

विचिन्तयन्ती यमनन्यमानसा
तपोधनं वेत्सि न मामुपस्थितम्।
स्मरिष्यति त्वां न स बोधितोऽपि सन्
कथां प्रमत्तः प्रथमं कृतामिव॥


🔍 शब्दार्थ और पदविभाजन:

शब्द अर्थ
विचिन्तयन्ती निरन्तर स्मरण करती हुई
यम् जिसे (पुरुष, अर्थात् दुष्यन्त)
अनन्यमानसा जिसका चित्त उसी में एकाग्र है
तपोधनम् तप ही जिसका धन है – दुर्वासा
वेत्सि जानती हो
नहीं
माम् मुझे
उपस्थितम् उपस्थित, सामने आया हुआ
स्मरिष्यति स्मरण करेगा
त्वाम् तुम्हें
नहीं
सः वह (दुष्यन्त)
बोधितः सन् स्मरण कराया गया होने पर भी
प्रमत्तः उन्मत्त (मोह या पागलपनवश)
कथां बात (घटना, कथा)
प्रथमं कृताम् पहले कही गई, पहले की गई
इव जैसे

🌸 सरल संस्कृतार्थ (सरल अन्वय सहित):

अनन्यमानसा (एकाग्रचित्ता) यं जनं (जिस पुरुष को) विचिन्तयन्ती (निरंतर स्मरण करती हुई)
तपोधनं मां (मुझे, तप से संपन्न दुर्वासा को) उपस्थितं (सामने उपस्थित) न वेत्सि,
सः जनः (वह पुरुष – दुष्यन्त) बोधितः सन् अपि (याद दिलाए जाने पर भी) त्वां (तुम्हें) न स्मरिष्यति,
कथाम् प्रमत्तः प्रथमं कृतामिव (जिस प्रकार उन्मत्त व्यक्ति पहले कही बात को नहीं याद करता)।


🪔 हिंदी भावार्थ:

हे कन्या!
तू एक ही व्यक्ति (दुष्यन्त) में चित्त लगाए, उसी का स्मरण करती हुई
यहाँ उपस्थित तपस्वी (मुझे) को नहीं पहचान सकी है।
वह पुरुष भी, यदि उसे (तेरे द्वारा) याद दिलाया जाए,
तो भी वह तुम्हें उसी प्रकार नहीं पहचानेगा
जैसे कोई उन्मत्त व्यक्ति पहले कही गई बात को याद नहीं करता।


📚 व्याकरणिक विश्लेषण:

  • अनन्यमानसान + अन्य + मानस (ब.प्र.स्त्री), "जिसका चित्त अन्यत्र नहीं गया"

  • विचिन्तयन्तीवि + चिन्त् (धातु) + णिच् + शतृ (वर्तमान काल), "स्मरण करती हुई"

  • तपोधनम्तपस् + धन, "तप को ही धन मानने वाला", बहुब्रीहि समास

  • प्रमत्तःप्र + मद् (उन्माद) + क्त, "उन्मत्त, प्रमादी"

  • बोधितःबुध् (जानना) + णिच् + क्त, "स्मरण दिलाया गया"

  • स्मरिष्यतिस्मृ (याद करना) + लृट्, भविष्यत् काल


🎭 रस, भाव, अलंकार विश्लेषण:

🌊 रस:

  • यहाँ रौद्र रस की भावना है — दुर्वासा ऋषि के क्रोध रूप में।

अलंकार:

  1. काव्यलिङ्गम् — "दुष्यन्त न स्मरिष्यति" का कारण रूप में पूर्व में अतिथि का अपमान।

  2. परिकर अलंकार — “तपोधनम्” विशेषण से दुर्वासा की तपस्विता का व्यंग्य।

  3. पूर्णोपमा

    • उपमेय: दुष्यन्त

    • उपमान: प्रमत्त (मत्त व्यक्ति)

    • साधारण धर्म: विस्मरण

    • उपमावाचक शब्द: "इव"

  4. श्लेष — "कथां प्रमत्तः प्रथमं कृतामिव" – ‘कथा’ और ‘विवाह कथा’ दोनों अर्थों में।


🪶 छन्द:

  • वंशस्थ छन्दलक्षणजतौ तु वंशस्थमुदीरितं जरौ।। प्रत्येक चरण में 12 मात्रा।


🔍 विशेष टिप्पणी:

  1. शकुन्तला का अपराध:
    दुर्वासा का शाप शकुन्तला की अतिथि के प्रति अनवधानता के कारण है, न कि उसके मन की आसक्ति के कारण।

  2. कालिदास की मौलिक कल्पना:
    मूल महाभारत कथा में इस शाप का उल्लेख नहीं है।
    कालिदास ने इसे नाटक में जोड़ा ताकि दुष्यन्त के शकुन्तला को न पहचानने का एक मानसिक और कथात्मक औचित्य बन सके।

  3. कथावस्तु की संगति:
    इस शाप की परिकल्पना के बिना पञ्चम अंक में दुष्यन्त-शकुन्तला मिल जाते, और कथा में नाटकीय उत्कर्ष नहीं आ पाता।

  4. कथां प्रमत्तः प्रथमं कृतामिव  - यह औपम्यविधान अत्यन्त सटीक एवं सार्थक है । जैसे प्रमत्त (शराबी व्यक्ति) याद दिलाये जाने पर भी पहले की गयी ~ कही गयी - बात को स्मरण दिलाने पर भी नही समझ पाता, उसी प्रकार शकुन्तला का चिन्तनीय (अभीष्ट) व्यक्ति भी उसके घटित घटना का स्मरण नही कर पायेगा ।

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भागवत दर्शन: Abhigyan-shakuntalam: चतुर्थ अंक के आरम्भ से श्लोक 1(विचिन्तयन्ती यमनन्यमानसा)तक
Abhigyan-shakuntalam: चतुर्थ अंक के आरम्भ से श्लोक 1(विचिन्तयन्ती यमनन्यमानसा)तक
Abhigyan-shakuntalam: चतुर्थ अंक के आरम्भ से श्लोक 1(विचिन्तयन्ती यमनन्यमानसा)तक, भागवत दर्शन, सूरज कृष्ण शास्त्री।
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भागवत दर्शन
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