ऐल गीत (Aila Gīta), भागवत अध्याय 26, हिन्दी अनुवाद सहित

Sooraj Krishna Shastri
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ऐल गीत (Aila Gīta), भागवत अध्याय 26, हिन्दी अनुवाद सहित
ऐल गीत (Aila Gīta), भागवत अध्याय 26, हिन्दी अनुवाद सहित

ऐल गीत (Aila Gīta), भागवत अध्याय 26, हिन्दी अनुवाद सहित

 श्रीमद्भागवत महापुराण, एकादश स्कन्ध, षड्विंश अध्याय (अध्याय 26) का श्लोक सहित हिंदी अनुवाद, व्यवस्थित रूप में —


श्लोक 1

श्रीभगवानुवाच
मल्लक्षणमिमं कायं लब्ध्वा मद्धर्म आस्थितः ।
आनन्दं परमात्मानम् आत्मस्थं समुपैति माम् ॥ १ ॥

हिंदी अनुवाद
श्रीभगवान् ने कहा— जो पुरुष इस दुर्लभ मनुष्य शरीर को प्राप्त कर मेरे धर्म में स्थित होता है, वह आत्मस्थ परमात्मा के आनन्द को प्राप्त कर अंततः मुझमें लीन हो जाता है।


श्लोक 2

गुणमय्या जीवयोन्या विमुक्तो ज्ञाननिष्ठया ।
गुणेषु मायामात्रेषु दृश्यमानेष्ववस्तुतः ।
वर्तमानोऽपि न पुमान् युज्यतेऽवस्तुभिर्गुणैः ॥ २ ॥

हिंदी अनुवाद
जो पुरुष ज्ञान में स्थित होकर गुणमयी जीवयोनि से मुक्त हो जाता है, वह गुणों में—जो कि केवल माया के कारण दृश्य होकर भी वास्तव में अस्तित्वहीन हैं—स्थित रहते हुए भी उनसे लिप्त नहीं होता।


श्लोक 3

सङ्गं न कुर्यादसतां शिश्नोदरतृपां क्वचित् ।
तस्यानुगस्तमस्यन्धे पतत्यन्धानुगान्धवत् ॥ ३ ॥

हिंदी अनुवाद
मनुष्य को कभी भी उन असत्य पुरुषों का संग नहीं करना चाहिए जो केवल इन्द्रिय-सुख में लिप्त रहते हैं। उनके साथ संगति करने वाला अंधकार में पड़ जाता है, जैसे अंधा व्यक्ति दूसरे अंधे का अनुकरण करते हुए गड्ढे में गिर जाता है।


श्लोक 4

ऐलः सम्राडिमां गाथाम् अगायत बृहच्छ्रवाः ।
उर्वशीविरहान् मुह्यन् निर्विण्णः शोकसंयमे ॥ ४ ॥

हिंदी अनुवाद
सम्राट पुरुरवा (जो 'ऐल' कहलाते हैं) ने उर्वशी के विरह में मोहग्रस्त होकर, शोक से विवश होकर यह गाथा गाई, जिसका वर्णन महाप्रतापी बृहच्छ्रवा ने किया।


श्लोक 5

त्यक्त्वाऽऽत्मानं व्रजन्तीं तां नग्न उन्मत्तवन्नृपः ।
विलपन् अन्वगाज्जाये घोरे तिष्ठेति विक्लवः ॥ ५ ॥

हिंदी अनुवाद
राजा पुरुरवा, जो मोह से उन्मत्त हो चुका था, अपनी पत्नी उर्वशी को जाते देख नग्न अवस्था में ‘ठहरो, ठहरो’ कहता हुआ करुण विलाप करते हुए उसके पीछे-पीछे गया।

श्लोक 6

कामानतृप्तोऽनुजुषन् क्षुल्लकान् वर्षयामिनीः ।
न वेद यान्तीर्नायान्तीः उर्वश्याकृष्टचेतनः ॥ ६ ॥

हिंदी अनुवाद
काम-वासना से तृप्त न होने वाला वह राजा (पुरुरवा), अनेक वर्षों तक क्षुद्र सुखों का सेवन करता रहा और उर्वशी के प्रति मोहित चित्त होने के कारण यह भी न जान सका कि वह (उर्वशी) कब आई और कब चली गई।


श्लोक 7

ऐल उवाच
अहो मे मोहविस्तारः कामकश्मलचेतसः ।
देव्या गृहीतकण्ठस्य नायुःखण्डा इमे स्मृताः ॥ ७ ॥

हिंदी अनुवाद
(ऐल अर्थात् पुरुरवा बोले:) हाय! मेरी चित्त की अपवित्रता और काममोह की पराकाष्ठा को देखो। उर्वशी के आलिंगन में बँधे हुए मैंने अपने जीवन के इतने वर्षों को भी नहीं पहचाना।


श्लोक 8

नाहं वेदाभिनिर्मुक्तः सूर्यो वाभ्युदितोऽमुया ।
मूषितो वर्षपूगानां बताहानि गतान्युत ॥ ८ ॥

हिंदी अनुवाद
मुझे यह भी ज्ञात न हो सका कि इस स्त्री के पास रहने पर मैं कब सोकर उठा, कब सूर्य उदित हुआ। अहो! मैं कितने वर्षों तक ठगा गया, और मेरे बहुमूल्य दिन व्यर्थ नष्ट हो गए।


श्लोक 9

अहो मे आत्मसम्मोहो येनात्मा योषितां कृतः ।
क्रीडामृगश्चक्रवर्ती नरदेवशिखामणिः ॥ ९ ॥

हिंदी अनुवाद
हाय! यह मेरा कितना बड़ा आत्ममोह है कि मैंने स्वयं को स्त्रियों का खिलौना बना डाला—मैं जो कि चक्रवर्ती सम्राट और राजाओं में भी शिरोमणि था।


श्लोक 10

सपरिच्छदमात्मानं हित्वा तृणमिवेश्वरम् ।
यान्तीं स्त्रियं चान्वगमं नग्न उन्मत्तवद् रुदन् ॥ १० ॥

हिंदी अनुवाद
मैंने अपने सारे ऐश्वर्य, सामर्थ्य और राज्य को तिनके के समान त्याग दिया और उर्वशी के पीछे-पीछे नग्न, उन्मत्त और रोते हुए चला, जैसे कोई पागल व्यक्ति।


श्लोक 11

कुतस्तस्यानुभावः स्यात् तेज ईशत्वमेव वा ।
योऽन्वगच्छं स्त्रियं यान्तीं खरवत् पादताडितः ॥ ११ ॥

हिंदी अनुवाद
उस व्यक्ति में भला क्या प्रभाव, क्या तेज, क्या ईश्वरीयता रह गई जो एक स्त्री के पीछे दौड़ता रहा और गधे की तरह उसके पैरों से ठुकराया गया?


श्लोक 12

किं विद्यया किं तपसा किं त्यागेन श्रुतेन वा ।
किं विविक्तेन मौनेन स्त्रीभिर्यस्य मनो हृतम् ॥ १२ ॥

हिंदी अनुवाद
जिसका मन स्त्रियों द्वारा हरण कर लिया गया हो, उसके लिए विद्या, तपस्या, त्याग, शास्त्रज्ञान, एकांतवास या मौन का क्या मूल्य रह जाता है?


श्लोक 13

स्वार्थस्याकोविदं धिङ् मां मूर्खं पण्डितमानिनम् ।
योऽहमीश्वरतां प्राप्य स्त्रीभिर्गोखरवज्जितः ॥ १३ ॥

हिंदी अनुवाद
धिक्कार है मुझे—मैं अपने ही कल्याण में अज्ञानी, मूर्ख होकर भी अपने को पण्डित मानता रहा। मैं जो ईश्वरवत् स्थिति को प्राप्त कर चुका था, स्त्रियों द्वारा गधे-बैल की तरह वश में कर लिया गया!


श्लोक 14

सेवतो वर्षपूगान् मे उर्वश्या अधरासवम् ।
न तृप्यत्यात्मभूः कामो वह्निराहुतिभिर्यथा ॥ १४ ॥

हिंदी अनुवाद
मैंने उर्वशी के अधरों के मधुर रस को अनेक वर्षों तक चखा, फिर भी आत्मभूत कामदेव तृप्त नहीं हुआ—जैसे अग्नि आहुति मिलने पर भी शांत नहीं होती।


श्लोक 15

पुंश्चल्यापहृतं चित्तं को न्वन्यो मोचितुं प्रभुः ।
आत्मारामेश्वरमृते भगवन्तम् अधोक्षजम् ॥ १५ ॥

हिंदी अनुवाद
जिसका चित्त एक व्यभिचारिणी स्त्री द्वारा अपहृत हो गया हो, उसे और कौन मुक्त कर सकता है सिवाय आत्माराम, ईश्वर, भगवन् अधोक्षज (अर्थात भगवान विष्णु) के?


श्लोक 16

बोधितस्यापि देव्या मे सूक्तवाक्येन दुर्मतेः ।
मनोगतो महामोहो नापयात्यजितात्मनः ॥ १६ ॥

हिंदी अनुवाद
जब मेरी बुद्धि ही दुष्ट हो गई थी, तब देवी (उर्वशी) के उत्तम उपदेश देने पर भी मेरे मन में जो महान मोह व्याप्त था, वह मुझे नहीं छोड़ सका—क्योंकि मैंने अपने मन को वश में नहीं किया था।


श्लोक 17

किमेतया नोऽपकृतं रज्ज्वा वा सर्पचेतसः ।
रज्जु स्वरूपाविदुषो योऽहं यदजितेन्द्रियः ॥ १७ ॥

हिंदी अनुवाद
उस स्त्री (उर्वशी) ने मेरा कोई अपराध नहीं किया, जैसे रस्सी साँप नहीं होती, परंतु अज्ञानवश उसे साँप मान लिया जाता है। वैसे ही मैं भी अपनी इन्द्रियों को न जीत पाने के कारण स्वयं ही मोहित हो गया।


श्लोक 18

क्वायं मलीमसः कायो दौर्गन्ध्याद्यात्मकोऽशुचिः ।
क्व गुणाः सौमनस्याद्या ह्यध्यासोऽविद्यया कृतः ॥ १८ ॥

हिंदी अनुवाद
यह शरीर मल, पसीना और दुर्गन्ध से भरा हुआ अशुद्ध है, और दूसरी ओर, सौंदर्य, शील और आकर्षण जैसे गुण उसमें कल्पना कर लिए गए हैं—यह सब अविद्या (अज्ञान) से उत्पन्न भ्रान्ति है।


श्लोक 19

पित्रोः किं स्वं नु भार्यायाः स्वामिनोऽग्नेः श्वगृध्रयोः ।
किमात्मनः किं सुहृदां इति यो नावसीयते ॥ १९ ॥

हिंदी अनुवाद
यह शरीर पिता का है या पत्नी का, मालिक का, अग्नि का, कुत्ते-गिद्धों का, आत्मा का या मित्रों का—इस प्रकार का विचार जिसे नहीं होता, वही अज्ञानी व्यक्ति इस शरीर को ‘स्व’ मानकर आसक्त होता है।


श्लोक 20

तस्मिन् कलेवरेऽमेध्ये तुच्छनिष्ठे विषज्जते ।
अहो सुभद्रं सुनसं सुस्मितं च मुखं स्त्रियः ॥ २० ॥

हिंदी अनुवाद
अरे आश्चर्य! इस तुच्छ, अपवित्र और क्षणभंगुर शरीर में आसक्त होकर व्यक्ति कहता है—‘कितना सुंदर नाक है! कितना मनोहर मुस्कान है!’—यही तो मोह का प्रमाण है।


श्लोक 21

त्वङ्‌मांसरुधिरस्नायु मेदोमज्जास्थिसंहतौ ।
विण्मूत्रपूये रमतां कृमीणां कियदन्तरम् ॥ २१ ॥

हिंदी अनुवाद
स्त्री का यह शरीर त्वचा, मांस, रक्त, नसों, चर्बी, मज्जा और हड्डियों से बना हुआ है। इसमें मल-मूत्र भरे रहते हैं। इसमें रमण करने वालों और कीड़ों में (जो सड़े मांस में रमते हैं) कितना सा ही अन्तर है?


श्लोक 22

अथापि नोपसज्जेत स्त्रीषु स्त्रैणेषु चार्थवित् ।
विषयेन्द्रियसंयोगान् मनः क्षुभ्यति नान्यथा ॥ २२ ॥

हिंदी अनुवाद
जो व्यक्ति आत्मकल्याण की इच्छा रखता है, उसे स्त्रियों और स्त्री-प्रेमी पुरुषों से संसर्ग नहीं करना चाहिए, क्योंकि इन्द्रियों के विषयों के संसर्ग से ही मन विचलित होता है; अन्य किसी कारण से नहीं।


श्लोक 23

अदृष्टाद् अश्रुताद्‍भावात् न भाव उपजायते ।
असम्प्रयुञ्जतः प्राणान् शाम्यति स्तिमितं मनः ॥ २३ ॥

हिंदी अनुवाद
जो वस्तुएँ देखी नहीं गईं, सुनी नहीं गईं, उनके प्रति मन में आकर्षण उत्पन्न नहीं होता। और जो इन्द्रियों को विषयों में प्रवृत्त नहीं करता, उसका चित्त शान्त हो जाता है।


श्लोक 24

तस्मात्सङ्गो न कर्तव्यः स्त्रीषु स्त्रैणेषु चेन्द्रियैः ।
विदुषां चाप्यविस्रब्धः षड्वर्गः किमु मादृशाम् ॥ २४ ॥

हिंदी अनुवाद
इसलिए स्त्रियों, स्त्री-आसक्त पुरुषों और इन्द्रिय विषयों में आसक्ति नहीं करनी चाहिए। जो ज्ञानी हैं, वे भी यदि असावधान रहें तो षड्वर्ग (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य) उन्हें भी भरमा देते हैं; फिर मेरी जैसी साधारण बुद्धि वाले की तो बात ही क्या!


श्लोक 25

श्रीभगवानुवाच
एवं प्रगायन् नृपदेवदेवः
स उर्वशीलोकमथो विहाय ।
आत्मानमात्मन्यवगम्य मां वै
उपारमत् ज्ञानविधूतमोहः ॥ २५ ॥

हिंदी अनुवाद
श्रीभगवान् ने कहा
इस प्रकार स्वयं को उपहास करके, ऐल जो राजा और देवताओं के भी देवता था, उर्वशी और उसके लोक को त्यागकर, आत्मा को अपने ही स्वरूप में जानकर तथा मेरे सच्चिदानन्द स्वरूप को पहचान कर ज्ञान से विमोह रहित हो गया और संयमपूर्वक स्थिर हो गया।


श्लोक 26

ततो दुःसङ्गमुत्सृज्य सत्सु सज्जेत बुद्धिमान् ।
सन्त एवास्य छिन्दन्ति मनोव्यासङ्गमुक्तिभिः ॥ २६ ॥

हिंदी अनुवाद
इसलिए बुद्धिमान मनुष्य को बुरे लोगों का संग त्यागकर संतों की संगति करनी चाहिए। वे संत ही मन के गहरे आसक्तियों को मोक्ष देने वाले उपदेशों द्वारा काट देते हैं।


श्लोक 27

सन्तोऽनपेक्षा मच्चित्ताः प्रशान्ताः समदर्शिनः ।
निर्ममा निरहङ्कारा निर्द्वन्द्वा निष्परिग्रहाः ॥ २७ ॥

हिंदी अनुवाद
संतजन किसी वस्तु की अपेक्षा नहीं करते, उनका चित्त सदा मेरी ओर होता है, वे शांतचित्त, समदर्शी, ममता और अहंकार से रहित, द्वंद्वों से मुक्त और संग्रह की भावना से परे होते हैं।


श्लोक 28

तेषु नित्यं महाभाग महाभागेषु मत्कथाः ।
सम्भवन्ति हिता नृणां जुषतां प्रपुनन्त्यघम् ॥ २८ ॥

हिंदी अनुवाद
हे महाभाग! उन श्रेष्ठ संतों में सदा मेरी कथाएँ होती रहती हैं, जो मनुष्यों के लिए अत्यंत कल्याणकारी होती हैं। उन्हें श्रद्धा से सुनने और ग्रहण करने वाले लोगों के पाप दूर हो जाते हैं।


श्लोक 29

ता ये श्रृण्वन्ति गायन्ति ह्यनुमोदन्ति चादृताः ।
मत्पराः श्रद्दधानाश्च भक्तिं विन्दन्ति ते मयि ॥ २९ ॥

हिंदी अनुवाद
जो व्यक्ति उन कथाओं को श्रद्धा से सुनते हैं, गाते हैं, अनुमोदन करते हैं और मेरी भक्ति में मन लगाते हैं, वे मुझमें सच्ची भक्ति प्राप्त करते हैं।


श्लोक 30

भक्तिं लब्धवतः साधोः किमन्यद् अवशिष्यते ।
मय्यनन्तगुणे ब्रह्मण्यानन्दानुभवात्मनि ॥ ३० ॥

हिंदी अनुवाद
जो साधक मेरी, अनंत गुणों से युक्त, ब्रह्मस्वरूप, आनंदरूप आत्मा में भक्ति प्राप्त कर लेता है, उसके लिए फिर क्या बाकी रह जाता है?


श्लोक 31

यथोपश्रयमाणस्य भगवन्तं विभावसुम् ।
शीतं भयं तमोऽप्येति साधून् संसेवतस्तथा ॥ ३१ ॥

हिंदी अनुवाद
जैसे अग्नि की शरण लेने पर ठंड, भय और अंधकार दूर हो जाते हैं, वैसे ही जो मनुष्य संतों की सेवा करता है, उसके समस्त सांसारिक क्लेश दूर हो जाते हैं।


श्लोक 32

निमज्ज्योन्मज्जतां घोरे भवाब्धौ परमायनम् ।
सन्तो ब्रह्मविदः शान्ता नौर्दृढेवाप्सु मज्जताम् ॥ ३२ ॥

हिंदी अनुवाद
जो लोग इस भयानक संसार-सागर में डूबते-उतराते हैं, उनके लिए संतजन—जो ब्रह्मज्ञानी और शांतचित्त होते हैं—मजबूत नौका के समान होते हैं, जो उन्हें पार लगाते हैं।


श्लोक 33

अन्नं हि प्राणिनां प्राण आर्तानां शरणं त्वहम् ।
धर्मो वित्तं नृणां प्रेत्य सन्तोऽर्वाग् बिभ्यतोऽरणम् ॥ ३३ ॥

हिंदी अनुवाद
जैसे अन्न जीवों के लिए जीवन है, मैं दुखियों का शरणदाता हूँ, धर्म मृत्योपरांत जीवन का धन है, वैसे ही यह संतजन मृत्यु के भय से पीड़ित लोगों के लिए परम आश्रय हैं।


श्लोक 34

सन्तो दिशन्ति चक्षूंषि बहिरर्कः समुत्थितः ।
देवता बान्धवाः सन्तः सन्त आत्माहमेव च ॥ ३४ ॥

हिंदी अनुवाद
जैसे बाहर सूर्य प्रकाश देता है, वैसे ही संतजन अंतर की दृष्टि प्रदान करते हैं। देवता, बंधु, आत्मा और मैं स्वयं भी, सब संतों में ही प्रकट होते हैं।


श्लोक 35

वैतसेनस्ततोऽप्येवम् उर्वश्या लोकनिस्पृहः ।
मुक्तसङ्गो महीमेतम् आत्मारामश्चचार ह ॥ ३५ ॥

हिंदी अनुवाद
इस प्रकार वैतसेन (पुरुरवा), उर्वशी से विरक्त होकर, संसार की समस्त वासनाओं से मुक्त होकर, आत्मा में रमण करने वाला बन गया और स्वतंत्र भाव से इस पृथ्वी पर विचरण करने लगा।


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