भागवत कथा: ऐल गीत (Aila Gīta) , ऐल गीत (Aila Gīta) का विश्लेषण के साथ दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक, और आध्यात्मिक पहलुओं पर गहराई से दृष्टि।भागवत दर्शन सूरज
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भागवत कथा: ऐल गीत (Aila Gīta) |
ऐल गीत का उल्लेख श्रीमद्भागवत महापुराण के ग्यारहवें स्कंध, अध्याय 26 में मिलता है। यह गीत राजा पुरूरवा (जिन्हें ऐल भी कहा जाता है) द्वारा गाया गया है। यह गीत उनके जीवन के अनुभवों और वैराग्य की अभिव्यक्ति है। राजा पुरूरवा को उनके स्त्री-प्रेम और उर्वशी के साथ उनके संबंधों के लिए जाना जाता है।
जब उर्वशी ने उन्हें छोड़ दिया, तो वे गहरे शोक और आत्मनिरीक्षण में डूब गए। इस गीत में उन्होंने अपने मोह और वैराग्य के विचारों को प्रकट किया है। यह गीत मनुष्य के भौतिक मोह, सांसारिक सुखों की अस्थिरता, और आत्मज्ञान की आवश्यकता को उजागर करता है।
ऐल गीत (Aila Gīta) का विश्लेषण करते समय हमें इसके दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक, और आध्यात्मिक पहलुओं पर गहराई से दृष्टि डालनी होती है। यह गीत श्रीमद्भागवत महापुराण, एकादश स्कंध, अध्याय 26 में वर्णित है, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण, उद्धव को राजा पुरूरवा (ऐल) की कथा सुनाते हैं।
यह गीत — ऐल की आत्मस्वीकृति है — जो स्त्री-मोह, काम-वासना, अज्ञान, और अंततः वैराग्य की ओर उसकी यात्रा को प्रकट करता है। नीचे इसका विश्लेषण किया गया है:
🌿 1. संदर्भ (Context):
राजा ऐल (पुरूरवा), अप्सरा उर्वशी के प्रेम में पड़कर अपनी दिव्यता, राज्य, विवेक, और आत्मसंयम सब कुछ खो बैठते हैं। उर्वशी अंततः उसे छोड़ देती है, जिससे वह शोक, मोह और वैराग्य के द्वार पर पहुँचता है। यह गीत, उसके आत्ममंथन और आत्मजागरण की संगीतमयी अभिव्यक्ति है।
🪷 2. दार्शनिक विश्लेषण:
🔹 (कर्म और मोह का बंधन)
"अहो मे आत्मसम्मोहो येनात्मा योषितां कृतः।क्रीडामृगश्चक्रवर्ती नरदेवशिखामणिः॥ ९॥"
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यह श्लोक ऐल के गहरे पश्चात्ताप को दर्शाता है। वह स्वीकार करता है कि कैसे मोह ने उसे राजसिंहासन से गिराकर एक क्रीड़ामृग (खिलौना) बना दिया।
🔹 (विषय-विकार की असारता)
"त्वङ्मांसरुधिरस्नायु मेदोमज्जास्थिसंहतौ।विण्मूत्रपूये रमतां कृमीणां कियदन्तरम्॥ २१॥"
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यह अद्वितीय श्लोक वैराग्य के चरम बिंदु को दर्शाता है जहाँ ऐल स्त्री-सौंदर्य को केवल "त्वचा, मांस, रक्त, मज्जा आदि का संचय" मानकर उसे त्याज्य समझता है।
🔹 (आत्मा का भ्रांति से मुक्त होना)
"कुतस्तस्यानुभावः स्यात् तेज ईशत्वमेव वा।योऽन्वगच्छं स्त्रियं यान्तीं खरवत् पादताडितः॥ ११॥"
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आत्मविमर्श की ऐसी तीव्रता दुर्लभ है जहाँ ऐल कहता है कि जो स्त्री के पीछे इस तरह भागे, वह कैसा ईश्वरतुल्य हो सकता है? यह नाटकीय आत्म-ह्रास का बोध कराता है।
🧠 3. मनोवैज्ञानिक विश्लेषण:
🔹 मोह का अंधकार:
"न वेद यान्तीर्नायान्तीः उर्वश्याकृष्टचेतनः ॥ ६ ॥"
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यह मानसिक स्थिति दर्शाती है जब मनुष्य प्रेम या भोगविलास में इतना लीन हो जाता है कि उसे समय, दिशा, अथवा आत्मबोध का भी ज्ञान नहीं रहता।
🔹 नशीली लिप्सा की व्यर्थता:
"सेवतो वर्षपूगान् मे उर्वश्या अधरासवम् ।न तृप्यत्यात्मभूः कामो वह्निराहुतिभिर्यथा ॥ १४ ॥"
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यह श्लोक दर्शाता है कि जैसे अग्नि आहुति से नहीं तृप्त होती, वैसे ही काम की अग्नि भी विषयों से शांत नहीं होती। यह काम की असीम प्रवृत्ति का मनोवैज्ञानिक चित्रण है।
🔥 4. आत्मचिंतन एवं वैराग्य:
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ऐल का गीत आत्मचिंतन की उस गहराई को दर्शाता है, जहाँ वह अपने मोहमयी जीवन पर लज्जित होकर आत्मज्ञान की ओर उन्मुख होता है।
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"किं विद्यया किं तपसा किं त्यागेन श्रुतेन वा ।किं विविक्तेन मौनेन स्त्रीभिर्यस्य मनो हृतम् ॥ १२ ॥"
इस प्रश्न के माध्यम से ऐल विद्या, तप, त्याग और श्रवण जैसी समस्त साधनाओं को निष्फल मानता है यदि मन स्त्री-मोह (विषयासक्ति) में फंसा रहे।
🌼 5. समाधान और निष्कर्ष:
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अंततः भगवान कहते हैं:
"एवं प्रगायन् नृपदेवदेवःस उर्वशीलोकमथो विहाय ।आत्मानमात्मन्यवगम्य मां वैउपारमत् ज्ञानविधूतमोहः ॥ २५ ॥"
अर्थात, ऐल इस अनुभव के बाद उर्वशी लोक का परित्याग कर आत्मा में आत्मा को देखता है और मोहमुक्त होकर भगवत्प्राप्ति करता है।
🌺 6. आधुनिक संदर्भ में महत्व:
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यह गीत वर्तमान समाज में विषय-विलास, भोग, और प्रेमजनित व्यामोह से ग्रस्त मनुष्य के लिए चेतना की पुकार है।
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यह दर्शाता है कि बिना आत्मसंयम और विवेक के, मनुष्य अपनी प्रतिष्ठा, बुद्धि, और जीवन का सर्वस्व खो सकता है।
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साथ ही यह बताता है कि वैराग्य का जन्म भोग से ही होता है, और आत्मा की मुक्ति आत्मनिरीक्षण और भगवत्स्मरण से संभव है।
✨ निष्कर्ष:
ऐल गीत, केवल एक राजा की कथा नहीं, बल्कि प्रत्येक आत्मा की व्यथा है जो विषयों में फँसकर अपने दिव्य स्वरूप को भूल गई है। यह गीत हमें मोह से मोक्ष की यात्रा का मार्ग दिखाता है — शुद्ध वैराग्य, आत्मजागृति, और भक्ति के माध्यम से।
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