नवरात्रि काल की समाप्ति पर माँ की मूर्ति का विसर्जन क्या शास्त्र सम्मत है ?

Sooraj Krishna Shastri
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नवरात्रि काल की समाप्ति पर माँ की मूर्ति का विसर्जन क्या शास्त्र सम्मत है ?
 नवरात्रि काल की समाप्ति पर माँ की मूर्ति का विसर्जन क्या शास्त्र सम्मत है ?


 नवरात्रि काल की समाप्ति पर माँ की मूर्ति का विसर्जन क्या शास्त्र सम्मत है ? 

नवरात्रि के अंत में माँ दुर्गा की मूर्ति विसर्जन की प्रथा को समझने के लिए हमें इसके शास्त्रीय, दार्शनिक, सांस्कृतिक और आधुनिक पहलुओं को गहराई से देखना होगा। यहाँ विस्तृत विवरण प्रस्तुत है:


1. शास्त्रीय आधार और ग्रंथों में उल्लेख

  • पुराणों में संकेत:

    • देवी भागवत पुराण (9.1-10): इसमें देवी के नवरूपों की पूजा और उनके "प्रकृति में विलय" का संकेत मिलता है।

    • मार्कण्डेय पुराण (दुर्गा सप्तशती): अध्याय 11 में देवी के "सृष्टि-संहार" के चक्र का वर्णन है, जो मूर्ति विसर्जन के प्रतीकवाद से जुड़ता है।

    • कालिका पुराण: यह ग्रंथ मूर्ति पूजा के बाद "प्रतिमा विसर्जन" को देवी की शक्ति को प्रकृति में वापस करने की क्रिया बताता है।

  • आगम शास्त्रों में विधि:

    • कामिकागम (चित्रकारण 25): मूर्ति विसर्जन के लिए विशेष मंत्रों (जैसे "यत्र यत्र स्थिता देवी...") और जल में अर्पण की विधि बताई गई है।

    • सुप्रभेदागम: इसमें मूर्ति को "पंचतत्वों" (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश) में विसर्जित करने का निर्देश है।

  • तंत्र साहित्य:

    • तंत्रसार और शक्तिसंगम तंत्र में मूर्ति विसर्जन को "शक्ति का प्राणप्रतिष्ठा का उल्टा संस्कार" माना गया है, जिसमें देवी की ऊर्जा को मूल स्रोत में लौटाया जाता है।


2. दार्शनिक और प्रतीकात्मक गहराई

  • अनित्यता का सिद्धांत:
    बौद्ध धर्म के "अनित्य" (अस्थायित्व) और हिंदू दर्शन के "नित्य-अनित्य" के संयोग से यह प्रथा जुड़ी है। मूर्ति विसर्जन याद दिलाता है कि भौतिक रूप अनित्य है, परंतु देवी का तत्व नित्य है।

  • पंचभूतों में विलय:
    मूर्ति का जल में विसर्जन "जल तत्व" के माध्यम से पंचभूतों के चक्र को पूरा करता है। यह वैदिक सिद्धांत "यत्पिण्डे तत् ब्रह्माण्डे" (जो अणु में है, वही ब्रह्मांड में है) को दर्शाता है।

  • भक्ति और विरह का भाव:
    बंगाल में विसर्जन को "दुर्गा का बाप के घर लौटना" माना जाता है। भक्ति भाव में यह विरह-लीला का प्रतीक है, जहाँ भक्त देवी से वादा करते हैं: "आसचे बोचर अबार होबे!" (अगले साल फिर आना!)।


3. सांस्कृतिक विविधता और क्षेत्रीय प्रथाएँ

  • बंगाल की परंपरा:

    • ढाक की थाप: विसर्जन से पहले महिलाएँ शोला पत्तों से बनी छतरी (छत) और देवी के शृंगार की वस्तुएँ चढ़ाती हैं।

    • सिंदूर खेला: विवाहित महिलाएँ देवी को सिंदूर चढ़ाकर एक-दूसरे को लगाती हैं, जो सुहाग की लंबी उम्र का प्रतीक है।

  • गुजरात और महाराष्ट्र:

    • यहाँ नवरात्रि के अंत में "गरबा" और "डांडिया" के बाद कलश विसर्जन किया जाता है।

    • कुछ समुदायों में मूर्ति के स्थान पर "ज्वारे" (अंकुरित अनाज) को नदी में प्रवाहित किया जाता है।

  • दक्षिण भारत:

    • तमिलनाडु और केरल में "गोलू" (पद्मावती देवी की सीढ़ीदार प्रदर्शनी) की समाप्ति पर मूर्तियों को विधिवत संग्रहित किया जाता है, न कि विसर्जित।


4. पर्यावरणीय समस्याएँ और समाधान

  • प्लास्टर ऑफ पेरिस (PoP) का प्रभाव:
    PoP मूर्तियाँ नदियों में जाकर भारी धातुओं (लीड, मरकरी) को छोड़ती हैं, जिससे जलीय जीवन को खतरा होता है।

  • शास्त्र-सम्मत विकल्प:

    • मिट्टी और प्राकृतिक रंगों का उपयोग: शिल्प शास्त्र (विश्वकर्मा वास्तुशास्त्र) के अनुसार, मूर्तियाँ शुद्ध मिट्टी, गोबर और बीजों से बननी चाहिए।

    • सांकेतिक विसर्जन: कलश के जल को नदी में प्रवाहित करना और मूर्ति को मिट्टी में दबाना।

    • बीज-मूर्तियाँ: कर्नाटक और तमिलनाडु में मूर्तियों में बीज मिलाए जाते हैं, जो विसर्जन के बाद पेड़ बनते हैं।

  • धार्मिक नेताओं की भूमिका:

    • शंकराचार्य पीठों और संत समाज ने "ईको-फ्रेंडली पूजा" को प्रोत्साहित किया है।

    • ISKCON जैसे संगठन "मूर्ति पुनः उपयोग" (टेराकोटा मूर्तियों को साल-दर-साल संरक्षित करना) की वकालत करते हैं।


5. विसर्जन की वास्तविक विधि (क्रियात्मक पक्ष)

  • संकल्प और प्रार्थना:
    विसर्जन से पूर्व पंडित "विसर्जन संकल्प" लेते हैं, जिसमें देवी से अनुमति माँगी जाती है:

    "हे देवि, त्वं सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता।
    गच्छ स्वस्थानमद्यैव पुनरागमनाय च॥"

  • प्रक्रिया:

    1. मूर्ति को फूल, नारियल और दीपक से अर्पित करना।

    2. शोभायात्रा निकालकर नदी/तालाब तक ले जाना।

    3. मूर्ति को जल में रखने से पहले "क्षमा याचना" करना: "यदि पूजा में कोई त्रुटि हुई हो, तो क्षमा करें।"

  • विशेष मंत्र:

    "अपसर्पन्तु ते भूताः ये केचित् पूजासंस्थिताः।
    गृहाण पूजां मयादत्तां पुनरागमनाय च॥"


6. आधुनिक संदर्भ में प्रासंगिकता

  • सामाजिक एकता:
    विसर्जन शोभायात्रा समाज के सभी वर्गों को एक सूत्र में बाँधती है। कोलकाता की "धाकू" (ड्रम बजाने वाले) और मुंबई की "लाल बत्ती" शोभायात्राएँ इसके उदाहरण हैं।

  • आध्यात्मिक पुनर्जागरण:
    कुछ संत मूर्ति विसर्जन को "अहंकार के विसर्जन" से जोड़ते हैं, जहाँ भक्त अपने अहं को देवी के चरणों में त्याग देता है।

  • कानूनी पहलू:
    भारत सरकार ने पर्यावरण संरक्षण अधिनियम (1986) के तहत PoP मूर्तियों पर प्रतिबंध लगाया है, जिसे धार्मिक समूहों ने स्वीकार किया है।


7. निष्कर्ष: शास्त्र, समाज और प्रकृति का सामंजस्य

मूर्ति विसर्जन न केवल शास्त्र-सम्मत है, बल्कि यह हिंदू धर्म की गतिशीलता को दर्शाता है। आवश्यकता इस बात की है कि:

  1. शास्त्रीय विधि का पालन करते हुए प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग किया जाए।

  2. विसर्जन को "भक्ति की पराकाष्ठा" माना जाए, न कि केवल रस्म।

  3. सामूहिक जिम्मेदारी के साथ पर्यावरण की रक्षा की जाए।

इस प्रकार, यह प्रथा सनातन धर्म की "अनुकूलनशीलता" और "वैज्ञानिक दृष्टिकोण" का उत्कृष्ट उदाहरण है।

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