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भागवत एकादश स्कंध, द्वितीय अध्याय (हिंदी अनुवाद)

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भागवत एकादश स्कंध, द्वितीय अध्याय (हिंदी अनुवाद), यह श्रीमद्भागवत महापुराण के एकादश स्कंध के द्वितीय अध्याय के श्लोक 1 से 55 तक का मूल संस्कृत पाठ ।

 

भागवत एकादश स्कंध, द्वितीय अध्याय (हिंदी अनुवाद)
भागवत एकादश स्कंध, द्वितीय अध्याय (हिंदी अनुवाद)

यह श्रीमद्भागवत महापुराण के एकादश स्कंध के द्वितीय अध्याय के श्लोक 1 से 55 तक का मूल संस्कृत पाठ है। अब इन श्लोकों का भावपूर्ण, गूढ़ एवं शुद्ध हिंदी अनुवाद क्रमशः प्रस्तुत है—


श्लोक १

श्रीशुक उवाच
गोविन्दभुजगुप्तायां द्वारवत्यां कुरूद्वह ।
अवात्सीन्नारदोऽभीक्ष्णं कृष्णोपासनलालसः ॥

अनुवाद:
श्रीशुकदेव जी बोले — हे कुरुश्रेष्ठ! जब द्वारका पुरी भगवान गोविन्द की भुजाओं द्वारा सुरक्षित थी, उस समय नारदजी वहाँ बारंबार आते रहते थे, क्योंकि वे श्रीकृष्ण की उपासना के अत्यंत आकांक्षी थे।


श्लोक २

को नु राजन्निन्द्रियवान् मुकुन्दचरणाम्बुजम् ।
न भजेत् सर्वतोमृत्युः उपास्यममरोत्तमैः ॥

अनुवाद:
हे राजन्! जो व्यक्ति इन्द्रियों पर संयम रखता है, वह सर्वत्र मृत्यु से रक्षा करने वाले तथा देवताओं द्वारा पूजित मुकुन्द के चरणकमलों की उपासना क्यों न करे?


श्लोक ३

तमेकदा तु देवर्षिं वसुदेवो गृहागतम् ।
अर्चितं सुखमासीनमभिवाद्येदमब्रवीत् ॥

अनुवाद:
एक बार वसुदेव जी ने अपने घर पधारे हुए देवर्षि नारदजी की विधिपूर्वक पूजा करके, उन्हें सुखपूर्वक बैठे देखकर नम्रतापूर्वक यह कहा—


श्लोक ४

श्रीवसुदेव उवाच
भगवन् भवतो यात्रा स्वस्तये सर्वदेहिनाम् ।
कृपणानां यथा पित्रोः उत्तमश्लोकवर्त्मनाम् ॥

अनुवाद:
वसुदेव जी बोले — हे भगवन्! आपकी यात्रा समस्त प्राणियों के कल्याण के लिए होती है, जैसे कि उत्तमश्लोक भगवान के मार्ग पर चलने वाले दीनों के लिए माता-पिता की यात्रा कल्याणकारी होती है।


श्लोक ५

भूतानां देवचरितं दुःखाय च सुखाय च ।
सुखायैव हि साधूनां त्वादृशामच्युतात्मनाम् ॥

अनुवाद:
भगवान के चरित्र भूतों (प्राणियों) के लिए कभी दुःखदायक तो कभी सुखदायक होते हैं; किंतु आप जैसे अच्युतात्मा साधुओं के लिए वे सदैव सुखप्रद ही होते हैं।


श्लोक ६

भजन्ति ये यथा देवान् देवा अपि तथैव तान् ।
छायेव कर्मसचिवाः साधवो दीनवत्सलाः ॥

अनुवाद:
जो व्यक्ति देवताओं की भाँति आचरण करते हैं, देवता भी उन्हीं की पूजा करते हैं। साधुजन भी जैसे छाया की तरह उनके कर्मों में सहभागी होकर दीनों पर दया करते हैं।


श्लोक ७

ब्रह्मन् तथापि पृच्छामो धर्मान् भागवतांस्तव ।
यान् श्रुत्वा श्रद्धया मर्त्यो मुच्यते सर्वतो भयात् ॥

अनुवाद:
हे ब्रह्मन्! फिर भी हम आपसे उन भागवत धर्मों को पूछते हैं, जिन्हें श्रद्धापूर्वक सुनने मात्र से मनुष्य समस्त प्रकार के भय से मुक्त हो जाता है।


श्लोक ८

अहं किल पुरानन्तं प्रजार्थो भुवि मुक्तिदम् ।
अपूजयं न मोक्षाय मोहितो देवमायया ॥

अनुवाद:
पूर्वकाल में मैंने अनन्त भगवान को, जो पृथ्वी पर प्रजाओं की भलाई हेतु मोक्ष प्रदान करने वाले रूप में प्रकट हुए थे, उनकी पूजा नहीं की; मैं देवमाया के प्रभाव से मोक्ष की इच्छा नहीं कर सका।


श्लोक ९

यथा विचित्रव्यसनाद् भवद्‌भिः विश्वतोभयात् ।
मुच्येम ह्यञ्जसैवाद्धा तथा नः शाधि सुव्रत ॥

अनुवाद:
जैसे आप महात्मा लोग विविध प्रकार के संकटों से सहज ही मुक्त हो जाते हैं, वैसे ही हमको भी इस सर्वत्र व्यापी भय से उबारने हेतु कृपया हमें उपदेश दें, हे सुव्रत नारद!


श्लोक १०

श्रीशुक उवाच
राजन्नेवं कृतप्रश्नो वसुदेवेन धीमता ।
प्रीतस्तमाह देवर्षिः हरेः संस्मारितो गुणैः ॥

अनुवाद:
श्रीशुकदेव जी बोले — हे राजन्! जब बुद्धिमान वसुदेव जी ने ऐसा प्रश्न किया, तब भगवान के गुणों को स्मरण करते हुए प्रीत हुए देवर्षि नारद ने उनसे कहा—


श्लोक ११

श्रीनारद उवाच
सम्यगेतद्व्यवसितं भवता सात्वतर्षभ ।
यत् पृच्छसे भागवतान् धर्मान् त्वं विश्वभावनान् ॥

अनुवाद:
श्रीनारद जी बोले — हे सात्वतवंश के श्रेष्ठ (वसुदेव)! तुमने अत्यंत उचित प्रश्न किया है क्योंकि तुमने समस्त जगत के कल्याणकारी भागवत धर्मों के विषय में जानना चाहा है।


श्लोक १२

श्रुतोऽनुपठितो ध्यात आदृतो वानुमोदितः ।
सद्यः पुनाति सद्धर्मो देव विश्वद्रुहोऽपि हि ॥

अनुवाद:
भागवत धर्म को सुनना, पढ़ना, ध्यान करना, सम्मान करना और स्वीकार करना — ये सभी क्रियाएँ तत्काल मनुष्य को पवित्र कर देती हैं, चाहे वह संसार के द्रोही ही क्यों न हो।


श्लोक १३

त्वया परमकल्याणः पुण्यश्रवणकीर्तनः ।
स्मारितो भगवानद्य देवो नारायणो मम ॥

अनुवाद:
आज तुमने परम कल्याणकारी भगवान नारायण के पवित्र नाम और गुणों का श्रवण-कीर्तन करवाकर मुझे पुण्य का अवसर दिया है।


श्लोक १४

अत्राप्युदाहरन्तीमम् इतिहासं पुरातनम् ।
आर्षभाणां च संवादं विदेहस्य महात्मनः ॥

अनुवाद:
इस संदर्भ में मैं तुम्हें एक प्राचीन इतिहास सुनाता हूँ — महात्मा विदेह (राजा निमि) और ऋषभदेव के पुत्रों (नव योगीश्वरों) के बीच हुए संवाद का।


श्लोक १५

प्रियव्रतो नाम सुतो मनोः स्वायंभुवस्य यः ।
तस्याग्नीध्रस्ततो नाभिः ऋषभस्तत्सुतस्स्मृतः ॥

अनुवाद:
स्वायंभुव मनु के पुत्र प्रियव्रत थे। प्रियव्रत के पुत्र अग्नीध्र, उनके पुत्र नाभि और नाभि के पुत्र ऋषभदेव हुए।


श्लोक १६

तमाहुः वासुदेवांशं मोक्षधर्मविवक्षया ।
अवतीर्णं सुतशतं तस्यासीद् ब्रह्मपारगम् ॥

अनुवाद:
ऋषभदेव भगवान वासुदेव के अंशावतार थे, जो मोक्ष के धर्म का प्रचार करने के लिए अवतरित हुए। उनके 100 पुत्र हुए, जो सभी ब्रह्मज्ञान में पारंगत थे।


श्लोक १७

तेषां वै भरतो ज्येष्ठो नारायणपरायणः ।
विख्यातं वर्षमेतद्यत् नाम्ना भारतमद्भुतम् ॥

अनुवाद:
उन पुत्रों में सबसे बड़े भरत थे, जो नारायण के परम भक्त थे। उन्हीं के नाम पर यह अद्भुत भारतवर्ष प्रसिद्ध हुआ।


श्लोक १८

स भुक्तभोगां त्यक्त्वेमां निर्गतस्तपसा हरिम् ।
उपासीनस्तत्पदवीं लेभे वै जन्मभिस्त्रिभिः ॥

अनुवाद:
भरत ने भोग-विलास को त्यागकर भगवान हरि की कठोर तपस्या की और तीन जन्मों में उनके धाम को प्राप्त किया।


श्लोक १९

तेषां नव नवद्वीप-पतयोऽस्य समन्ततः ।
कर्मतन्त्रप्रणेतार एकाशीतिर्द्विजातयः ॥

अनुवाद:
ऋषभदेव के नौ पुत्र नवद्वीपों के स्वामी बने। 81 ब्राह्मणों ने समाज को कर्मकांड सिखाया।


श्लोक २०

नवाभवन् महाभागा मुनयो ह्यर्थशंसिनः ।
श्रमणा वातरशना आत्मविद्याविशारदाः ॥

अनुवाद:
नौ महान मुनि हुए, जो वैराग्य धारण करने वाले, आत्मज्ञान के विशेषज्ञ और समस्त अर्थों (सत्य) के प्रतिपादक थे।


श्लोक २१

कविर्हरिरन्तरिक्षः प्रबुद्धः पिप्पलायनः ।
आविहोत्रोऽथ द्रुमिलश्चमसः करभाजनः ॥

अनुवाद:
उन नौ मुनियों के नाम हैं — कवि, हरि, अंतरिक्ष, प्रबुद्ध, पिप्पलायन, आविहोत्र, द्रुमिल, चमस और करभाजन।


श्लोक २२

त एते भगवद्रूपं विश्वं सदसदात्मकम् ।
आत्मनोऽव्यतिरेकेण पश्यन्तो व्यचरन् महीम् ॥

अनुवाद:
ये मुनि समस्त सृष्टि को भगवान का ही स्वरूप मानते थे। वे आत्मा और परमात्मा के अभेद को देखते हुए संसार में विचरण करते थे।


श्लोक २३

अव्याहतेष्टगतयः सुरसिद्धसाध्य-
गन्धर्वयक्षनरकिन्नरनागलोकान् ।
मुक्ताश्चरन्ति मुनि-चारण-भूतनाथ-
विद्याधर-द्विज-गवां भुवनानि कामम् ॥

अनुवाद:
ये मुक्तात्मा मुनि सिद्ध, गंधर्व, यक्ष, नर, किन्नर, नाग, मुनि, चारण, विद्याधर और देवलोकों में स्वतंत्रता से विचरते थे।


श्लोक २४

त एकदा निमेः सत्रं उपजग्मुः यदृच्छया ।
वितायमानं ऋषिभिः अजनाभेर्महात्मनः ॥

अनुवाद:
एक बार ये मुनि महात्मा अजनाभ (राजा निमि) के यज्ञ में स्वतः ही पहुँच गए, जो ऋषियों द्वारा संपन्न किया जा रहा था।


श्लोक २५

तान् दृष्ट्वा सूर्यसङ्काशान् महाभागवतान् नृप ।
यजमानोऽग्नयो विप्राः सर्व एवोपतस्थिरे ॥

अनुवाद:
हे राजन्! उन सूर्य के समान तेजस्वी और भगवद्भक्त मुनियों को देखकर यजमान राजा निमि और सभी ब्राह्मण उनके समीप आकर खड़े हो गए।


श्लोक २६

विदेहस्तानभिप्रेत्य नारायणपरायणान् ।
प्रीतः संपूजयाञ्चक्रे आसनस्थान् यथार्हतः ॥

अनुवाद:
राजा निमि ने समझ लिया कि ये मुनि नारायण के परम भक्त हैं। उन्होंने प्रसन्न होकर यथोचित आसन देकर उनका स्वागत किया।


श्लोक २७

तान् रोचमानान् स्वरुचा ब्रह्मपुत्रोपमान् नव ।
पप्रच्छ परमप्रीतः प्रश्रयावनतो नृपः ॥

अनुवाद:
राजा ने उन नौ ब्रह्मपुत्रों के समान तेजस्वी मुनियों को देखकर अत्यंत प्रसन्न होकर विनम्र भाव से प्रश्न किए।


श्लोक २८

विदेह उवाच
मन्ये भगवतः साक्षात् पार्षदान् वो मधुद्विषः ।
विष्णोर्भूतानि लोकानां पावनाय चरन्ति हि ॥

अनुवाद:
राजा निमि बोले — मुझे लगता है कि आप सभी भगवान विष्णु के साक्षात पार्षद हैं, जो संसार के कल्याण के लिए विचरण करते हैं।


श्लोक २९

दुर्लभो मानुषो देहो देहिनां क्षणभङ्गुरः ।
तत्रापि दुर्लभं मन्ये वैकुण्ठ-प्रियदर्शनम् ॥

अनुवाद:
मनुष्य जन्म दुर्लभ है, और यह शरीर क्षणभंगुर है। फिर भी इससे भी दुर्लभ है वैकुण्ठ के स्वामी भगवान का दर्शन।


श्लोक ३०

अत आत्यन्तिकं क्षेमं पृच्छामो भवतोऽनघाः ।
संसारेऽस्मिन् क्षणार्धोऽपि सत्सङ्गः शेवधिर्नृणाम् ॥

अनुवाद:
इसलिए हे निष्पाप मुनियों! मैं आपसे परम कल्याणकारी उपाय पूछता हूँ। संसार में सत्संग ही मनुष्यों के लिए अमूल्य खजाना है।


श्लोक ३१

धर्मान् भागवतान् ब्रूत यदि नः श्रुतये क्षमम् ।
यैः प्रसन्नः प्रपन्नाय, दास्यत्यात्मानमप्यजः ॥

अनुवाद:
कृपया हमें भागवत धर्म बताएँ, जिनके द्वारा भगवान प्रसन्न होकर शरणागत को अपना स्वरूप भी प्रदान कर देते हैं।


श्लोक ३२

श्रीनारद उवाच
एवं ते निमिना पृष्टा वसुदेव महत्तमाः ।
प्रतिपूज्याब्रुवन् प्रीत्या ससदस्यर्त्विजं नृपम् ॥

अनुवाद:
श्रीनारद जी बोले — हे वसुदेव! इस प्रकार राजा निमि के प्रश्न करने पर उन महान मुनियों ने प्रसन्न होकर यज्ञ में उपस्थित ऋत्विजों और राजा का सम्मान करते हुए उत्तर दिया।


श्लोक ३३

कविरुवाच
मन्येऽकुतश्चिद्भयमच्युतस्य
पादाम्बुजोपासनमत्र नित्यम् ।
उद्विग्नबुद्धेः असदात्मभावात्
विश्वात्मना यत्र निवर्तते भीः ॥

अनुवाद:
कवि मुनि बोले — मैं समझता हूँ कि अच्युत भगवान के चरणकमलों की नित्य उपासना ही भय से मुक्ति का मार्ग है। जो व्यक्ति संसार को असत्य मानकर विश्व को आत्मस्वरूप देखता है, उसकी भीति समाप्त हो जाती है।


श्लोक ३४

ये वै भगवता प्रोक्ता उपाया ह्यात्मलब्धये ।
अञ्जः पुंसामविदुषां विद्धि भागवतान् हि तान् ॥

अनुवाद:
भगवान द्वारा बताए गए वे सभी उपाय, जो आत्म-प्राप्ति के लिए हैं, अज्ञानी मनुष्यों के लिए सरल भागवत धर्म ही हैं।


श्लोक ३५

यानास्थाय नरो राजन् न प्रमाद्येत कर्हिचित् ।
धावन् निमील्य वा नेत्रे न स्खलेन्न पतेदिह ॥

अनुवाद:
हे राजन्! इन धर्मों को अपनाकर मनुष्य कभी भटकता नहीं। वह आँखें बंद करके दौड़ता हुआ भी न तो लड़खड़ाता है और न ही गिरता है।


श्लोक ३६

कायेन वाचा मनसेन्द्रियैर्वा
बुद्ध्यात्मना वानुसृतस्वभावात् ।
करोति यद् यत् सकलं परस्मै
नारायणायेति समर्पयेत्तत् ॥

अनुवाद:
शरीर, वाणी, मन, इंद्रियाँ, बुद्धि या स्वभाव से जो कुछ भी कर्म किया जाए, उसे "यह सब नारायण के लिए है" ऐसा समर्पित कर देना चाहिए।


श्लोक ३७

भयं द्वितीयाभिनिवेशतः स्यात्
ईशात् अपेतस्य विपर्ययोऽस्मृतिः ।
तन्माययातो बुध आभजेत्तं
भक्त्यैकयेशं गुरुदेवतात्मा ॥

अनुवाद:
भय द्वैतभाव (अहंकार) से उत्पन्न होता है। ईश्वर से विमुख होने पर व्यक्ति विपरीत बुद्धि और विस्मृति का शिकार हो जाता है। बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि एकनिष्ठ भक्ति से उस ईश्वर की शरण ले, जो गुरु, देवता और आत्मा स्वरूप है।


श्लोक ३८

अविद्यमानोऽप्यवभाति हि द्वयोः
ध्यातुर्धिया स्वप्नमनोरथौ यथा ।
तत्कर्मसङ्कल्पविकल्पकं मनो
बुधो निरुंध्याद् अभयं ततः स्यात् ॥

अनुवाद:
जिस प्रकार स्वप्न और मनोरथ (कल्पना) में अस्तित्वहीन वस्तुएँ भी सत्य प्रतीत होती हैं, उसी प्रकार मन कर्म और संकल्प-विकल्प का कारक है। बुद्धिमान को इस मन को वश में कर लेना चाहिए, तभी भय से मुक्ति मिलती है।


श्लोक ३९

श्रृण्वन् सुभद्राणि रथाङ्गपाणेः
जन्मानि कर्माणि च यानि लोके ।
गीतानि नामानि तदर्थकानि
गायन् विलज्जो विचरेदसङ्गः ॥

अनुवाद:
भगवान के जन्म, कर्म, नाम और गुणों का श्रवण-कीर्तन करते हुए मनुष्य को लज्जा और मोह रहित होकर निर्लिप्त भाव से विचरण करना चाहिए।


श्लोक ४०

एवंव्रतः स्वप्रियनामकीर्त्या
जातानुरागो द्रुतचित्त उच्चैः ।
हसत्यथो रोदिति रौति गाय-
त्युन्मादवत् नृत्यति लोकबाह्यः ॥

अनुवाद:
इस प्रकार भगवान के नाम का कीर्तन करते हुए भक्त का हृदय प्रेम से भर जाता है। वह उच्च स्वर में हँसता, रोता, गाता और उन्माद की तरह नाचता हुआ लोक-लज्जा से परे हो जाता है।


श्लोक ४१

खं वायुमग्निं सलिलं महीं च
ज्योतींषि सत्त्वानि दिशो द्रुमादीन् ।
सरित्समुद्रांश्च हरेः शरीरं
यत्किं च भूतं प्रणमेदनन्यः ॥

अनुवाद:
आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, तारे, प्राणी, दिशाएँ, वृक्ष, नदियाँ, समुद्र — ये सभी भगवान के शरीर हैं। अतः जो व्यक्ति इन सभी में हरि को देखता है, वही सच्चा भक्त है।


श्लोक ४२

भक्तिः परेशानुभवो विरक्तिः
अन्यत्र चैष त्रिक एककालः ।
प्रपद्यमानस्य यथाश्नतस्स्युः
तुष्टिः पुष्टिः क्षुदपायोऽनुघासम् ॥

अनुवाद:
भक्ति, भगवान का साक्षात्कार और विषयों से विरक्ति — ये तीनों एक साथ प्रकट होते हैं। जैसे भोजन करने वाले को तृप्ति, पुष्टि और भूख की शांति मिलती है, वैसे ही भगवान की शरणागति से ये तीनों फल प्राप्त होते हैं।


श्लोक ४३

इति अच्युताङ्घ्रिं भजतोऽनुवृत्त्या
भक्तिर्विरक्तिर्भगवत्प्रबोधः ।
भवन्ति वै भागवतस्य राजन्
ततः परां शान्तिमुपैति साक्षात् ॥

अनुवाद:
हे राजन्! इस प्रकार अच्युत भगवान के चरणों का अनुसरण करने वाले भक्त को भक्ति, विरक्ति और भगवद्ज्ञान की प्राप्ति होती है। फिर वह सीधे परम शांति को प्राप्त करता है।


श्लोक ४४

श्रीराजोवाच
अथ भागवतं ब्रूत यद्धर्मो यादृशो नृणाम् ।
यथाचरति यद् ब्रूते यैर्लिङ्गैः भगवत्प्रियः ॥

अनुवाद:
राजा ने पूछा — कृपया बताएँ कि भागवत धर्म क्या है? उसका स्वरूप, आचरण और लक्षण क्या हैं?


श्लोक ४५

हरिरुवाच
सर्वभूतेषु यः पश्येद्भगवद्भावमात्मनः ।
भूतानि भगवत्यात्मन्येष भागवतोत्तमः ॥

अनुवाद:
भगवान ने उत्तर दिया — जो सभी प्राणियों में अपने आत्मा और भगवान का अभेद देखता है, वही उत्तम भागवत है।


श्लोक ४६

ईश्वरे तदधीनेषु बालिशेषु द्विषत्सु च ।
प्रेममैत्रीकृपोपेक्षा यः करोति स मध्यमः ॥

अनुवाद:
जो ईश्वर में प्रेम, भक्तों में मैत्री, अज्ञानियों पर दया और द्वेषियों के प्रति उदासीनता रखता है, वह मध्यम श्रेणी का भक्त है।


श्लोक ४७

अर्चायामेव हरये पूजां यः श्रद्धयेहते ।
न तद्भक्तेषु चान्येषु स भक्तः प्राकृतः स्मृतः ॥

अनुवाद:
जो केवल मूर्ति पूजा में श्रद्धा रखता है, किंतु भक्तों और अन्य प्राणियों के प्रति सम्मान नहीं दिखाता, वह सामान्य भक्त है।


श्लोक ४८

गृहीत्वापीन्द्रियैरर्थान् यो न द्वेष्टि न हृष्यति ।
विष्णोर्मायामिदं पश्यन् स वै भागवतोत्तमः ॥

अनुवाद:
जो इंद्रियों द्वारा विषयों का उपभोग करते हुए भी न तो द्वेष करता है और न ही आसक्त होता है, क्योंकि वह सब कुछ विष्णु की माया समझता है — वही उत्तम भागवत है।


श्लोक ४९

देहेन्द्रिप्राणमनोधियां यो
जन्माप्ययक्षुद्भयतर्षकृच्छ्रैः ।
संसारधर्मैरविमुह्यमानः
स्मृत्या हरेर्भागवतप्रधानः ॥

अनुवाद:
जो जन्म-मृत्यु, भूख-प्यास, भय और इच्छाओं से घिरे संसार में रहकर भी भगवान के स्मरण से विमुख नहीं होता — वही भागवत धर्म का प्रधान है।


श्लोक ५०

न कामकर्मबीजानां यस्य चेतसि संभवः ।
वासुदेवैकनिलयः स वै भागवतोत्तमः ॥

अनुवाद:
जिसके हृदय में कामना और कर्मबंधन के बीज नहीं होते और जो वासुदेव में ही स्थित है — वही श्रेष्ठ भागवत है।


श्लोक ५१

न यस्य जन्मकर्मभ्यां न वर्णाश्रमजातिभिः ।
सज्जतेऽस्मिन्नहं भावो देहे वै स हरेः प्रियः ॥

अनुवाद:
जो जन्म, कर्म, वर्ण, आश्रम या जाति के आधार पर "मैं यह शरीर हूँ" ऐसा अहंकार नहीं रखता — वही भगवान का प्रिय है।


श्लोक ५२

न यस्य स्वः पर इति वित्तेष्वात्मनि वा भिदा ।
सर्वभूतसमश्शान्तः स वै भागवतोत्तमः ॥

अनुवाद:
जो "स्व" और "पर", धन या शरीर में भेद नहीं देखता और सभी प्राणियों को समान मानकर शांत रहता है — वही उत्तम भक्त है।


श्लोक ५३

त्रिभुवन-विभवहेतवेऽप्यकुण्ठ-
स्मृतिरजितात्मसुरादिभिर्विमृग्यात् ।
न चलति भगवत्पादारविन्दात् ।
लव निमिषार्धमपि यः स वैष्णवाग्र्यः ॥

अनुवाद:
जो तीनों लोकों के ऐश्वर्य के लोभ में भी भगवान के चरणकमलों से पलभर के लिए विचलित नहीं होता और जिसकी स्मृति अजेय है — वही श्रेष्ठ वैष्णव है।


श्लोक ५४

भगवत उरुविक्रमाङ्घ्रिशाखा-
नखमणिचन्द्रिकया निरस्ततापे ।
हृदि कथमुपसीदतां पुनः स
प्रभवति चन्द्र इवोदितेऽर्कतापः ॥

अनुवाद:
भगवान के विशाल चरणों की नख-मणियों की चंद्रिका (कांति) से हृदय के ताप दूर हो जाते हैं। फिर उनके हृदय में सूर्योदय होने पर चंद्रमा की शीतलता कैसे रह सकती है? (अर्थात् भक्ति से ही शांति संभव है।)


श्लोक ५५

विसृजति हृदयं न यस्य साक्षाद्
हरिः अवशाभिहितोऽप्यघौघनाशः ।
प्रणयरशनया घृताङ्घ्रिपद्मः
स भवति भागवतप्रधान उक्तः ॥

अनुवाद:
जिसके हृदय से भगवान हरि कभी विदा नहीं होते, और जो प्रेमरूपी रस्सी से उनके चरणकमलों से बँधा हुआ है — उसे ही भागवत धर्म का प्रधान कहा जाता है।


॥ इति श्रीमद्भागवते एकादशस्कन्धे द्वितीयोऽध्यायः ॥
(श्रीमद्भागवत महापुराण के एकादश स्कंध के द्वितीय अध्याय का समापन।)

✍️ भावार्थ: इस अध्याय में भक्ति, ज्ञान और वैराग्य के समन्वय से परमात्म-प्राप्ति का मार्ग बताया गया है। सच्चा भागवत वही है जो सर्वत्र भगवान का दर्शन करता है और सभी प्राणियों से प्रेमपूर्वक व्यवहार करता है।

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भागवत दर्शन: भागवत एकादश स्कंध, द्वितीय अध्याय (हिंदी अनुवाद)
भागवत एकादश स्कंध, द्वितीय अध्याय (हिंदी अनुवाद)
भागवत एकादश स्कंध, द्वितीय अध्याय (हिंदी अनुवाद), यह श्रीमद्भागवत महापुराण के एकादश स्कंध के द्वितीय अध्याय के श्लोक 1 से 55 तक का मूल संस्कृत पाठ ।
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भागवत दर्शन
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