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संस्कृत श्लोक: "दीपनिर्वाणगन्धं च सुहृद्वाक्यमरुन्धतीम्" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद |
संस्कृत श्लोक: "दीपनिर्वाणगन्धं च सुहृद्वाक्यमरुन्धतीम्" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद
प्रस्तुत यह श्लोक जीवन, मृत्यु और चेतना की गूढ़ सीमाओं को स्पर्श करता है। आइए इसे विस्तार से समझते हैं:
श्लोकः
दीपनिर्वाणगन्धं च सुहृद्वाक्यमरुन्धतीम् ।
न जिघ्रन्ति न शृण्वन्ति न पश्यन्ति गतायुषः ॥
शाब्दिक विश्लेषण
- दीपनिर्वाणगन्धम् – बुझते दीपक से उठने वाली गंध
- सुहृत्-वाक्यम् – सच्चे मित्र या शुभचिन्तक की वाणी
- अरुन्धतीम् – सप्तर्षियों के साथ स्थित वह विशेष तारा (अरुंधती)
- न जिघ्रन्ति – नहीं सूँघ पाते
- न शृण्वन्ति – नहीं सुन पाते
- न पश्यन्ति – नहीं देख पाते
- गतायुषः – जिनका आयुष्य समाप्त हो चुका है / जिनका अंत निकट है
हिंदी भावार्थ
जिन मनुष्यों का जीवनकाल समाप्त होने वाला होता है, वे तीन सूक्ष्म संकेत ग्रहण नहीं कर पाते —
- दीपक के बुझने की गंध
- मित्रों की चेतावनी या हित की बात
- आकाश में अरुन्धती तारे का दर्शन
इन तीनों का अनुभव न हो पाना मृत्यु के समीप होने का लक्षण माना गया है।
आधुनिक सन्दर्भ में भावार्थ
यह श्लोक केवल शारीरिक इन्द्रियों की दुर्बलता की ओर संकेत नहीं करता, बल्कि मानसिक और आध्यात्मिक चेतना की कमी को भी दर्शाता है।
- बुझते दीपक की गंध न आना – सूक्ष्म परिवर्तनों की पहचान की शक्ति का लोप
- सुहृद्वाक्य न सुनना – अहंकार या मनोविकारों के कारण शुभचिन्तकों की बातों की उपेक्षा
- अरुन्धती न देखना – उच्च मूल्य, निष्ठा और धर्म की ओर दृष्टिहीनता
बालकथा – "श्रवण की माता"
एक वृद्धा को उसका पुत्र रोज कहता कि – “माँ, आज आप थक गई हैं, चलिए दीपक बुझा देता हूँ।”
पर एक दिन, जब दीपक बुझा, माँ बोली – “क्या दीपक बुझा भी? मुझे तो गंध नहीं आई।”
पुत्र चौंका, और उस रात माँ ने अंतिम साँस ली।
नीति:
जब जीवन की सूक्ष्म चेतनाएँ मंद पड़ने लगें, तो समझना चाहिए कि जीवन संध्या समीप है।
संक्षिप्त नीति
जिसकी आयु क्षीण हो जाती है, वह न तो शुभ संकेतों को अनुभव कर पाता है, न ही हितकारी वाणी को ग्रहण करता है। इसीलिए जीवन में सजग रहना, चेतना को विकसित करना, और शुभचिन्तकों के वचनों को महत्व देना चाहिए।
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