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संस्कृत श्लोक: "अवश्यमनुभोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद |
संस्कृत श्लोक: "अवश्यमनुभोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद
🙏 जय श्री राम! 🌹सुप्रभातम्! 🙏
यह जो श्लोक प्रस्तुत किया गया है, वह कर्मसिद्धान्त की नींव है — वह सिद्धान्त जो पूरे वैदिक दर्शन, उपनिषदों, गीता और न्याय-व्यवस्था का मूल आधार है।
श्लोकः
अवश्यमनुभोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् ।
नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि ॥
शब्दार्थ:
- अवश्यम् – अनिवार्य रूप से
- अनुभोक्तव्यम् – भोगना ही पड़ेगा
- कृतं कर्म – किया गया कर्म
- शुभाशुभम् – शुभ (अच्छा) या अशुभ (बुरा)
- नाभुक्तं – जो भोगा नहीं गया
- क्षीयते – नष्ट नहीं होता
- कल्पकोटिशतैरपि – करोड़ों कल्पों (ब्रह्मा के दिन) में भी
हिंदी भावार्थ:
मनुष्य को अपने किए हुए हर शुभ और अशुभ कर्म का फल अवश्य भोगना ही पड़ता है।
यह कर्म कभी व्यर्थ नहीं जाता। भले ही करोड़ों कल्प (432 मिलियन वर्ष x करोड़ों) बीत जाएँ, यदि वह कर्म भोगा नहीं गया है, तो वह नष्ट नहीं होता।
कर्म का लेखा-जोखा अचूक है।
आधुनिक दृष्टिकोण से:
- प्रत्येक कर्म एक ऊर्जा है, जो ब्रह्मांड में स्थायी रूप से अंकित हो जाती है।
- यह ऊर्जा, अपने फल के रूप में, समय आने पर लौटकर आती है – चाहे इस जन्म में हो या किसी भविष्य जन्म में।
- यह सिद्धांत हमें कर्तव्यनिष्ठ, सजग, और नैतिक बनाता है।
बाल कथा – “कर्मों का पिटारा”
एक वृद्ध ऋषि ने अपने शिष्य से कहा –
"जाओ, जंगल में एक पिटारा गाड़ दो और भूल जाओ।"
शिष्य ने वैसा ही किया। वर्षों बाद, जब वह खुद ऋषि बन चुका था, तो उसी जगह से एक अदृश्य हाथ प्रकट हुआ और बोला –
"यह वही पिटारा है – जिसमें तूने अपने पहले झूठ और अहंकार को छिपाया था। अब वह फल देने आया है।"
शिष्य हतप्रभ!
ऋषि की वाणी याद आई –
“कर्म छुपाया जा सकता है, मिटाया नहीं जा सकता। वह अपनी घड़ी पर लौटता ही है।”
गीता से संगति:
"कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन..."
(अध्याय 2, श्लोक 47)
भगवान श्रीकृष्ण ने भी यही सिद्धांत स्थापित किया —
कर्म करते चलो, फल की चिंता मत करो, लेकिन यह जान लो कि कर्म का फल निश्चित है।
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