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संस्कृत श्लोक: "अतिथिर्यस्य भग्नाशो गृहात् प्रतिनिवर्तते" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद |
संस्कृत श्लोक: "अतिथिर्यस्य भग्नाशो गृहात् प्रतिनिवर्तते" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद
🙏 जय श्री राम! 🌹सुप्रभातम्!
यह जो श्लोक साझा किया गया है, वह भारतीय संस्कृति में अतिथि-सत्कार की महान परंपरा और उसके आध्यात्मिक महत्त्व को अत्यंत गहराई से प्रकट करता है—
श्लोकः
अतिथिर्यस्य भग्नाशो गृहात् प्रतिनिवर्तते ।
स दत्त्वा दुष्कृतं तस्मै पुण्यमादाय गच्छति ॥
शब्दार्थ:
- अतिथि – बिना पूर्व सूचना के आए हुए आगंतुक (विशेषतः साधु, संत या याचक)
- भग्नाशः – आशा टूटी हुई, निराश
- गृहात् – घर से
- प्रतिनिवर्तते – लौटता है
- दत्त्वा दुष्कृतं – (अपना) पाप देकर
- तस्मै – उस (गृहस्थ) को
- पुण्यम् आदाय – पुण्य लेकर
- गच्छति – चला जाता है
हिंदी भावार्थ:
जिस घर से कोई अतिथि निराश होकर लौट जाता है,
वह अपने पाप उस गृहस्थ को देकर,
और उसके पुण्य लेकर चला जाता है।
(यानी) अतिथि के प्रति उपेक्षा – पुण्य-हानि और पाप की प्राप्ति का कारण बनती है।
धार्मिक एवं सांस्कृतिक सन्दर्भ:
- हमारे शास्त्रों में "अतिथि देवो भवः" की भावना सर्वोच्च मानी गई है।
- मनुस्मृति, महाभारत, और रामायण सभी में अतिथि के आदर और सत्कार की महिमा वर्णित है।
- यह श्लोक बताता है कि अतिथि को केवल भोजन देना ही नहीं, आशा और सत्कार देना भी धर्म है।
आधुनिक सन्देश:
- जब कोई हमारे पास सहायता, प्रेम या अपनापन लेकर आता है, तो उसे तिरस्कार या उपेक्षा देना – केवल सामाजिक नहीं, आध्यात्मिक पतन का कारण बनता है।
- जो हमें श्रद्धा से देखता है, उसे उपेक्षा देना आत्मघात है – क्योंकि हम अपनी ऊर्जा, पुण्य, और सम्मान खोते हैं।
रामायण संदर्भ:
जब श्रीराम वनवास में थे, शबरी उन्हें आतुर हृदय से प्रतिदिन बाट जोहती थी।
वह कहती थी –
"मेरे द्वार से श्रीराम निराश न लौटें, इसी कारण मैं हर दिन जूठे बेर चखकर रखती हूँ!"
श्रीराम ने उन बेरों को सर्वश्रेष्ठ प्रसाद मानकर ग्रहण किया – क्योंकि उसमें आतिथ्य भाव और शुद्ध हृदय था।
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