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संस्कृत श्लोक: "यन्मातापितरौ वृत्तं तनये कुरुतः सदा" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद |
संस्कृत श्लोक: "यन्मातापितरौ वृत्तं तनये कुरुतः सदा" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद
श्लोक:
शाब्दिक अर्थ:
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यत् – जो
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मातापितरौ – माता और पिता
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वृत्तं – आचरण / व्यवहार
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तनये – पुत्र में, संतान के प्रति
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कुरुतः – करते हैं (द्विवचन)
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सदा – सदा / हमेशा
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न सुप्रतिकरं – उसका प्रतिकार (बदला / प्रतिदान) करना सरल नहीं
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तत्तु – वह वस्तु
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मात्रा पित्रा च – माता और पिता द्वारा
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यत्कृतम् – जो किया गया
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यथाशक्ति – अपनी सामर्थ्यानुसार
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प्रदानेन – देने के माध्यम से
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स्वापनोच्छादनेन – सुलाने और ढकने के द्वारा
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प्रियवादेन – मधुर वचनों से
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संवर्धनेन – पालन-पोषण के द्वारा
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नित्यम् – हमेशा
व्याकरणिक दृष्टि:
- कुरुतः – √कृ धातु (कर्तुम्) का लट् लकार, प्रथम पुरुष, द्विवचन
- तनये – सप्तमी विभक्ति, एकवचन (पुत्र में)
- मात्रा पित्रा च – तृतीया विभक्ति द्विवचन
- प्रियवादेन – तृतीया विभक्ति एकवचन (मधुर वचन से)
- संवर्धनेन – तृतीया विभक्ति एकवचन (पालन-पोषण से)
भावार्थ:
माता-पिता अपने बच्चों के लिए जो कुछ करते हैं—चाहे वह अपनी शक्ति के अनुसार देना हो, सुलाना हो, रात में ओढ़ाना हो, प्रिय शब्द बोलकर स्नेह देना हो या फिर उनका पालन-पोषण हो—इन सबका प्रतिदान संतान द्वारा कभी भी सम्यक् रूप से नहीं किया जा सकता। यह ऋण जीवनभर बना रहता है।
आधुनिक सन्दर्भ में:
आज के भौतिकतावादी युग में जब माता-पिता के त्याग को हल्के में लिया जाता है या वृद्धाश्रमों में भेज दिया जाता है, तब यह श्लोक हमें उनके निःस्वार्थ प्रेम और सेवा की गहराई का बोध कराता है। यह हमें स्मरण कराता है कि उनका ऋण केवल भौतिक रूप से नहीं, बल्कि भावात्मक, मानसिक और आध्यात्मिक स्तर पर भी अत्यंत गहन होता है।
प्रेरणात्मक संदेश:
- माता-पिता का ऋण पैसे या उपहारों से नहीं चुकाया जा सकता।
- उन्हें समय, स्नेह, आदर और सेवा देना ही सच्चा प्रतिदान है।
- हमें उनका सम्मान और कृतज्ञता जीवनभर बनाए रखना चाहिए।