सो सुखु करमु धरमु जरि जाऊ। जहँ न राम पद पंकज भाऊ॥
सो सुखु करमु धरमु जरि जाऊ।
जहँ न राम पद पंकज भाऊ॥
जोगु कुजोगु ग्यानु अग्यानू।
जहँ नहिं राम प्रेम परधानू॥
अर्थात्, "जहाँ श्री राम के चरण कमलों में प्रेम नहीं है, वह सुख, कर्म और धर्म जल जाए, जिसमें श्री राम प्रेम की प्रधानता नहीं है, वह योग कुयोग है और वह ज्ञान अज्ञान है॥"
भगवान को छोड़कर किया गया सभी कर्म धर्म जप तप क्रिया या यहाँ तक कि श्वास लेना भी पाप ही की श्रेणी में आता है । और उनके निमित्त किया गया सभी कर्म पुण्य की श्रेणी में आता है । हमारा मानना है कि अपने कर्तव्य पथ से भागना और दूसरों की निजता का हनन करना ही पाप है और अपने कर्तव्यों का पालन सम्पूर्ण निष्ठा और ईमानदारी से करना ही पुण्य है।
परोपकाराय पुण्याय पापाय परपीडनम्।।
परोपकार पुण्य है और दूसरों को किसी भी प्रकार से पीड़ा देना, दुःख देना पाप है। मैं तो यही समझता हूँ
समदरसी इच्छा कछु नाहीं।
हरष सोक भय नहिं मन माहीं॥
कुछ लोग अभी भी शास्त्रों के उन शब्दों को पकड़कर गलत अर्थ निकाल लेते हैं, जिनमें कहा गया है कि कर्म के बंधन से भी मुक्त हो जाओ। परमात्मा यह नहीं कहता कि कर्म को बंधन मानो। कर्म बंधन हो ही नहीं सकता। मुक्त होना है कर्म के फल की आसक्ति से। इसलिए भगवान यह नहीं बताते हैं कि किस तरह से कर्म करते हुए मुझसे जुड़ जाएं।
जो समदर्शी है, जिसे कुछ इच्छा नहीं है और जिसके मन में हर्ष, शोक और भय नहीं है। ऐसा सज्जन मेरे हृदय में ऐसे बसता है, जैसे लोभी के हृदय में धन बसा करता है। भगवान का सीधा संदेश है मेरे लिए कुछ छोडऩे की जरूरत नहीं है, जरूरत है मुझसे जुडऩे की।
त्यागहिं कर्म सुभासुभ दायक।
भजहिं मोहि सुर नर मुनि नायक॥
संत असंतन्ह के गुन भाषे।
ते न परहिं भव जिन्ह लखि राखे।।
इसी से वे शुभ और अशुभ फल देने वाले कर्मों को त्यागकर देवता, मनुष्य और मुनियों के नायक मुझको भजते हैं। (इस प्रकार) मैंने संतों और असंतों के गुण कहे। जिन लोगों ने इन गुणों को समझ रखा है, वे जन्म-मरण के चक्कर में नहीं पड़ते॥
सभी शुभ अशुभ कर्म अर्थात क्या पाप है क्या पुण्य है सबका त्याग कर देना है । मतलब ? मतलब पूर्ण शरणागति । तो भगवान अनंतानंत जन्मों के सभी कर्मों को नष्ट कर देंगे भगवदप्राप्ति के पश्चात् । अन्यथा तो कर्मफल भोगने ही पड़ेंगे भले आप परमहंस ही क्यों न बन गए हों
भगवान अपने भक्तों के अनंतानंत जन्मों के क्रियमाण , संचित और प्रारब्ध सभी क्षण मात्र में नष्ट कर देते हैं । लेकिन किसका ? जो उनकी शरण में चला गया । शरण का मतलब ? भगवदप्राप्त हो जाना । शुभाशुभ कर्मों से निवृत्त हो जाना ।भगवदप्राप्त सन्त बन जाना ,माया से उत्तीर्ण हो जाना । मन्दिर में जाना और थोड़ी देर के लिए भगवान के सामने नतमस्तक हो कर श्लोकों के माध्यम से यह कह देना कि भगवान मैं तुम्हारी शरण में आया हूँ" यह शरणागति नहीं है । शरणागति का अर्थ है कुछ न करना । मन बुद्धि सबका समर्पण । उसका उपयोग ही नहीं करना ।
वह स्थिति कब आयेगी ? जब पूर्ण समर्पण होगा भगवान के क्षेत्र में । जब आनंद इतना मिलने लगेगा कि कुछ करना शेष नहीं रह जाएगा । तब भगवान की कृपा से हमारे अनंतानंत जन्मों के शुभ अशुभ कर्म अर्थात पाप और पुण्य नष्ट हो जाते हैं , पंचक्लेश, त्रिदोष इत्यादि सब नष्ट हो जाते हैं ।
अब पंच क्लेश क्या है ?
अविद्याऽस्मितारागद्वेषाभिनिवेशा: पञ्च कलेशा: ।।
योगदर्शन के अनुसार अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष एवं अभिनिवेश पाँच क्लेश हैं। । भाष्यकर व्यास ने इन्हें विपर्यय कहा है और इनके पाँच अन्य नाम बताए हैं- तम, मोह, महामोह, तामिस्र और अंधतामिस्र।
त्रिदोष तीन जैविक ऊर्जाओं या सिद्धांतों का प्रतिनिधित्व करता है, अर्थात् वात, पित्त और कफ, जो हमारी शारीरिक और मानसिक कार्यप्रणाली को नियंत्रित करते हैं।
अपना मन बुद्धि होता ही नहीं तो कर्म क्या करेंगे बिचारे । उनके मन और बुद्धि के माध्यम से भगवान ही कर्म करते हैं ।
इसीलिए भगवान श्री कृष्ण ने कहा कि –
अहं त्वं सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:।
सभी पापों को नष्ट करके मुक्त कर दूँगा । लेकिन इसके पहले क्या बोले है यह भी तो देखिए
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
मामेकं - केवल मेरी "ही" शरण में आ जाओ ।
तुलसी दास जी लिखते है कि –
जननी जनक बंधु सुत दारा।
तनु धनु भवन सुहृद परिवारा।।
सब कै ममता ताग बटोरी।
मम पद मनहि बांध बरि डोरी।।
समदरसी इच्छा कछु नाहीं।
हरष सोक भय नहिं मन माहीं।।
अस सज्जन मम उर बस कैसें।
लोभी हृदयं बसइ धनु जैसें।।
तुम्ह सारिखे संत प्रिय मोरें।
धरऊं देह नहिं आन निहोरें।।
माता-पिता, भाई, पुत्र, स्त्री, शरीर, धन, घर, मित्र और परिवार इन सबके ममत्वरूपी तागों को बटोरकर और उन सबकी एक डोरी बटकर उसके द्वारा जो अपने मन को मेरे चरणों में बांध देता है यानी सारे सांसारिक संबंधों का केंद्र मुझे बना लेता है, जो समदर्शी है, जिसे कुछ इच्छा नहीं है और जिसके मन में हर्ष, शोक और भय नहीं है। ऐसा सज्जन मेरे हृदय में ऐसे बसता है, जैसे लोभी के हृदय में धन बसा करता है। तुम-सरीखे संत ही मुझे प्रिय हैं। श्रीराम कहते हैं इन दस बातों को मुझसे जोड़ दो। भगवान का सीधा संदेश है मेरे लिए कुछ छोडऩे की जरूरत नहीं है, जरूरत है मुझसे जुडऩे की।
उदाहरण स्वरुप -
एक कहानी मैंने सुना था कि –
जैसा कि लंका नरेश विभीषण भगवान् राम के चरणों की शरण हो जाते हैं? तो फिर विभीषण के दोष को भगवान् अपना ही दोष मानते हैं।
एक समय विभीषणजी समुद्र के इस पार आये। वहाँ विप्रघोष नामक गाँव में उनसे एक अज्ञात ब्रह्महत्या हो गयी। इस पर वहाँ के ब्राह्मणों ने इकट्ठे होकर विभीषण को खूब मारा पीटा, पर वे मरे नहीं।
फिर ब्राह्मणों ने उन्हें जंजीरों से बाँधकर जमीन के भीतर एक गुफा में ले जाकर बंद कर दिया। भगवान श्री रामजी को विभीषण के कैद होने का पता लगा तो वे पुष्पक विमान के द्वारा तत्काल विप्रघोष नामक गाँव में पहुँच गये और वहाँ विभीषण का पता लगाकर उनके पास गये। ब्राह्मणों ने रामजी का बहुत आदर सत्कार किया और कहा कि महाराज इसने ब्रह्महत्या कर दी है। इसको हमने बहुत मारा? पर यह मरा नहीं।
भगवान् राम ने कहा कि हे ब्राह्मणों विभीषण को मैंने कल्प तक की आयु और राज्य दे रखा है? वह कैसे मारा जा सकता है और उसको मारने की जरूरत ही क्या है वह तो मेरा भक्त है।
भक्त के लिये मैं स्वयं मरने को तैयार हूँ। दास के अपराध की जिम्मेवारी वास्तव में उसके मालिक पर ही होती है अर्थात् मालिक ही उसके दण्ड का पात्र होता है। अतः विभीषणके बदले में आप लोग मेरे को ही दण्ड दें ।
भगवान् की यह शरणागत वत्सलता देखकर सब ब्राह्मण आश्यर्य करने लगे और उन सबने भगवान् की शरण ले ली। तात्पर्य यह हुआ कि मैं भगवान् का हूँ और भगवान् मेरे हैं ।
इस अपने पन के समान योग्यता? पात्रता?,अधिकारिता आदि कुछ भी नहीं है। यह सम्पूर्ण साधनों का सार है।