दीपावली के नामों पर प्रतिवर्ष होने वाले विवादों का प्रामाणिक उपशमन
दीपावली-विवाद भाग १ (तत्सम शब्द विमर्श)
प्रत्येक वर्ष दीपावली के अवसर पर इस पर्व के नाम को लेकर विवाद होता है। कुछ लोग “दिवाली” का समर्थन करते हैं तो वहीं कुछ “दीवाली” को ही शुद्ध बताते हैं। कुछ शुद्धिवादी लोग “दीपावली” अथवा “दीपोत्सव” को वरीयता देते हैं। रुचि में विविधता होना सामान्य बात है किंतु समस्या तब उत्पन्न होती है जब एक नाम के समर्थक दूसरे नाम को अशुद्ध बताते हैं। इस विवाद में हिंदी के बड़े लेखक और पत्रकार तो कूदते ही हैं, साथ-साथ कुछ हिंदी-विरोधी भी “दिवाली” का विरोध करने लगते हैं। इस आलेख में संस्कृत, प्राकृत और हिंदी के अन्यान्य शास्त्रीय और साहित्यिक प्रमाणों के आधार पर इस विवाद में अपना मत प्रस्तुत करूँगा।
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दीपावली के नामों पर प्रतिवर्ष होने वाले विवादों का प्रामाणिक उपशमन |
सर्वप्रथम “दीपावलि” शब्द की व्युत्पत्ति समझते हैं। वस्तुतः यह दो शब्दों के संयोग से बना है - दीप + आवलि। संस्कृत में “चमकने” के अर्थ में “दीप्” धातु मिलता है। इसी धातु में प्रत्यय (णिच्, अच्) जोड़कर “दीप” शब्द बनता है। जो दीपित अथवा प्रकाशित करता है, उसे दीप कहते हैं। इस “दीप” शब्द में उपसर्ग (प्र) और प्रत्यय (कन्) जोड़कर क्रमशः “प्रदीप” और “दीपक” शब्द बनते हैं। इन तीनों शब्दों का अर्थ एक ही है, यद्यपि “दीपक” कुछ अन्य अर्थों में भी प्रयुक्त होता है।
अब “आवलि” शब्द का अर्थ समझते हैं। संस्कृत में इसका अर्थ है पंक्ति। वस्तुतः कोश-ग्रन्थों के अनुसार “वीथि”, “आलि”, “आवलि”, “पंक्ति”, “श्रेणी”, “लेखा” “रेखा” और “राजि” - ये सभी शब्द पर्याय हैं (अमरकोश २.४.४)। इसी “आवलि” में “ङीष्” प्रत्यय जोड़कर समानार्थक शब्द “आवली” बनता है, जो अब हिंदी आदि भाषाओं में अधिक प्रचलित है। “दीप” और “आवलि” / “आवली” के संयोग से क्रमशः “दीपावलि” और “दीपावली” बनते हैं। इन दोनों समानार्थक शब्दों का अर्थ है - “दीपों की पंक्ति”। अतः “दीपावलि” और “दीपावली” के बीच का विवाद समय का अपव्यय मात्र है। यह सत्य है कि हिंदी और प्रादेशिक भाषाओं में “दीपावली” अधिक प्रचलित हो गया है, किंतु मध्यकालीन साहित्य में “दीपावलि” का भी प्रयोग होता रहा है - “दीपावलि हीरामणि राजत देखत हरख होत बहु भाई” (परमानंददास)।
कुछ महानुभाव “दीपावलि” और “दीपावली” - दोनों का निषेध यह कहकर करते हैं कि यह तो केवल दीपों की पंक्ति का नाम है, इससे पर्व-विशेष का पता नहीं चलता। इन शब्दों के स्थान पर वे “दीपोत्सव” को प्रधानता देते हैं। इस वाद के खण्डन में मैं तीन तर्क प्रस्तुत करता हूँ-
१. संस्कृत और हिंदी - दोनों भाषाओं के शब्द-कोषों (आपटे संस्कृत-हिंदी, मोनियर विलियम, और हिंदी शब्दसागर) में “दीपावली” शब्द दीपों की पंक्ति के साथ-साथ कार्त्तिक-मास की अमावस्या को मनाए जाने वाले पर्व-विशेष के लिए आया है।
२. इसी पर्व-विशेष के अर्थ में “दीपावली” के अनेक शास्त्रीय प्रयोग भी प्राप्त होते हैं-
स्कन्द-पुराण (वैष्णव-खण्ड, कार्त्तिक-माहात्म्य) में पर्व-विशेष के लिए “दीपावली” शब्द का अनेकशः प्रयोग किया गया है। उदाहरण-स्वरूप यह कहा गया है कि आश्विन मास (अमान्त) की चतुर्दशी और अमावस्या को जब प्रारम्भ में स्वाति-नक्षत्र रहता है, तब “दीपावलि” होती है-
इषासितचतुर्दश्यामिन्दुक्षयतिथावपि ।
दर्शादौ स्वातिसंयुक्ते तदा दीपावलिर्भवेत् ।। (९.४८)
पर्व-त्यौहारों के निर्णय में प्रामाणिक ग्रन्थ वीरमित्रोदय में दीपावली को कार्त्तिक मास के कृष्ण-पक्ष की चतुर्दशी तिथि का नाम बताया गया है (“कार्त्तिककृष्णचतुर्दशी दीपावली“, समयप्रकाश, ८३)। नारद-संहिता (५३.५) और वैखानस-गृह्यसूत्रों की टीका में भी इसी दिन को दीपावली कहा गया है।
३. “दीपावली” के विरोधी लोग भाषा के प्रसिद्ध सिद्धांत “योगाद्रूढिर्बलीयसी” (यौगिक-अर्थ से रूढ़-अर्थ अधिक बलवान् होता है) को भूल गए हैं। इस सिद्धांत के अनुसार भी “दीपावली” का रूढ़ अर्थ (पर्व-विशेष) उसके यौगिक अर्थ (दीपों की पंक्ति) से अधिक बलवान् है। संशय होने पर प्रसंग से अर्थ स्पष्ट हो जाता है।
अब दीपावली के कुछ अन्य तत्सम नामों की सिद्धि अपेक्षित है -
१. “दीपालि” और “दीपाली” - ये दोनों शब्द “दीप” और क्रमशः “आलि” अथवा “आली” के संयोग से बने हैं। ये शब्द भी “दीपों की पंक्ति” और पर्व-विशेष - दोनों अर्थों में प्रयुक्त होते हैं।
२. दीपोत्सव - दीपों का उत्सव। उदाहरण-स्वरूप इस शब्द का प्रयोग भविष्य-पुराण (४.१४०.७३) में किया गया है*।
३. दीपदिन - दीपों का दिन। इसका प्रयोग भी भविष्यपुराण (४.१४०.७१) में एक सुंदर द्व्यर्थक सुभाषित में हुआ है।-
उपशमितमेघनादं प्रज्वलितदशाननं रमितरामम्।
रामायणमिव सुभगं दीपदिनं हरतु वो दुरितम्॥
“जिस समय मेघनाद शान्त हो गया (अथवा शरद् ऋतु के आगमन पर मेघों का गरजना बंद हो गया), दशानन को जला दिया गया (अथवा दशों दिशाएँ प्रज्वलित हो उठीं), और श्रीराम प्रसन्न हो गए (अथवा स्त्रियाँ प्रसन्न हो उठीं), तब रामायण के समान मनोरम दीपदिन आपके पाप का नाश करे।”
४. कालरात्रि - आगम-शास्त्रों में ११ प्रकार की रात्रियाँ वर्णित हैं - वीररात्रि, महारात्रि, कालरात्रि, मोहरात्रि, घोररात्रि, क्रोधरात्रि, अचला रात्रि, तारारात्रि, शिवरात्रि, दिव्यरात्रि और दारुण-रात्रि। इनमें कार्त्तिक मास की अमावस्या से युक्त चतुर्दशी की रात्रि को “कालरात्रि” अथवा “कालनिशा” कहते हैं।-
दीपोत्सवचतुर्दश्यां त्वमाया योग एव तु ।
कालरात्रिर्महेशानि ताराकालीप्रियङ्करी ॥
५. यक्षरात्रि - यक्षराज कुबेर के पूजन से संबद्ध होने के कारण दीपावली को “यक्षरात्रि” भी कहा गया है।
६. दीपान्विता - वह अमावस्या जो दीपों से युक्त हो।
७. दीप-दान-दिवस - कुछ बौद्ध-मतावलंबी दीपावली के लिए “दीप-दान-दिवस” का प्रयोग करते हैं और यह तर्क देते हैं कि सम्राट् अशोक के समय यही नाम प्रचलित था। यद्यपि अनेक उत्सवों में दीप-दान की परंपरा है, तथापि मुझे बौद्ध-साहित्य में कार्त्तिक-अमावस्या के विशिष्ट पर्व के लिए इस नाम का प्रयोग नहीं मिला। अशोक के शिलालेखों में दीपावली के अर्थ में इसका उल्लेख नहीं है और बौद्ध-धर्म में इस दिवस को मनाने की कोई विशेष परंपरा भी नहीं है।
इस प्रकार दीपावली के १० तत्सम नामों से हम अवगत हो चुके हैं। कुछ अन्य नामों को विस्तार भय से छोड़ रहा हूँ।
दीपोत्सवे जनितसर्वजनप्रमोदां
कुर्वन्ति ये सुमनसो बलिराजपूजाम्।
दानोपभोगसुखवृद्धिशताकुलानां
हर्षेण वर्षमिह पार्थिव याति तेषाम्॥
दीपावली-विवाद भाग २ (तद्भव शब्द विमर्श)
वस्तुतः हिंदी में दीपावली से बना एक ही तद्भव शब्द है किंतु इसे लिखने के चार प्रकार हैं -
१. दिवाली
२. दिवारी
३. दीवाली
४. दीवारी
१-२ और ३-४ में केवल “ल” और “र” का भेद है, जो संस्कृत के वर्णोच्चारण के सिद्धांत “रलयोरभेदः” (प्रसंगानुसार “र” और “ल” में भेद नहीं है) से समझाया जा सकता है। मध्यकालीन हिंदी में “दिवारी” और “दीवारी” का प्रचलन था। आधुनिक हिंदी में “दिवाली” और “दीवाली” का प्रचार अधिक है। अतः हम इन्हीं दो शब्दों के औचित्य पर विचार करेंगे। हिंदी शब्दसागर में केवल “दिवाली” शब्द ही सम्मिलित है, किंतु कई शब्दों (जैसे “दिवाली,” “दीपोत्सव,” “दीपावली,” “दीपावलि,” और “दीपान्विता”) के अर्थ के रूप में “दीवाली” लिखा गया है। इन बातों से दो निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं -
१. हिंदी में इस पर्व का प्रधान नाम “दिवाली” ही है।
२. किंतु सामान्य बोलचाल में “दीवाली” शब्द भी प्रचलित है और शुद्ध है।
प्रथम निष्कर्ष के समर्थन में हिंदी का मध्यकालीन साहित्य खड़ा है-
१. “ग्राम ग्राम जनु बरत दिवारिय” - जायसी (पद्मावत) (जन्म १४९२ ई॰)
२. “मानत पर्व दिवारी को सुख” - विट्ठलदास (जन्म १५१५ ई॰)
३. “आज दिवारी मंगलचार” - परमानंददास (जन्म १६०६ ई॰)
४. “आई है दिवारी चीते काजनि जिवारी प्यारी” - घनानंद (सुजान-हित, कवित्त, ४५) (जन्म १६८० ई॰)
आधुनिक हिंदी में तो इसका प्रयोग सार्वत्रिक है।
वहीं “दीवाली” के पक्ष में आज हिंदी के दैनिक-जागरण और हिंदुस्तान जैसे कई लोक-प्रिय समाचार पत्र खड़े हैं।
वस्तुतः इस शब्द-भेद का मूल संस्कृत से प्राकृत शब्द बनाने की प्रक्रिया में है। हिंदी-विरोधियों को यहाँ सावधान हो जाना चाहिए क्योंकि “दिवाली” का विरोध करना प्राकृत का विरोध करना है - जो भारत के अधिकांश भाषाओं की जननी है।
पाइअ-सद्द-महण्णवो (प्राकृत-शब्द-महार्णव) के अनुसार संस्कृत के “दीप” से प्राकृत में दो प्रमुख शब्द बनते हैं - “दीअ” और “दीव”। इन्हीं से हिंदी में “दीया” और “दीवा” (मध्यकालीन) बनता है, जिनसे “दीवाली” का निर्माण हुआ है। वहीं हिंदी में दीप का समानार्थक “दिया” शब्द भी है, जो मध्यकालीन साहित्य में मिलता है - “दिया मँदिर निसि करे अँजोरा” (जायसी)। चूँकि “देना” क्रिया का सामान्य भूतकाल एकवचन भी “दिया” ही है, इसलिए आधुनिक हिंदी में दीप के अर्थ में “दिया” अप्रचलित हो गया है। आधुनिक हिंदी में दीप का एक ही तद्भव रूप प्रचलित है - दीया। अतः “दीया” शब्द का व्यवहार करने वाले लोगों को “दीवाली” शब्द ही अधिक सहज जान पड़ता है।
चाहे शब्द-इतिहास और भाषा-विज्ञान से अपरिचित हिंदी के प्रतिष्ठित लेखक और पत्रकार एक को शुद्ध और दूसरे को अशुद्ध बताते रहें; चाहे वे कुतर्क-पूर्वक “दिवाली” को “दिवाला” और “दीवाली” को “चहार-दीवारी” से जोड़ते रहें, किंतु उपर्युक्त सभी प्रमाणों को देखते हुए मेरा निर्णय है कि हिंदी में दीपावली के लिए “दिवाली” और “दीवाली” - दोनों मान्य हैं।
जो इस विवाद के पार जा चुके हैं, उनके लिए शिवमहिम्नःस्तोत्र की पंक्ति उपादेय है - “रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम् / नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव” (“रुचियों में विविधता के कारण विभिन्न सीधे और टेढ़े मार्गों से जाने वाले लोगों का तुम ही एक गंतव्य हो, जैसे नदियों का सागर”)।
--कुशाग्र अनिकेत