वैदिक ऋषि: महर्षि ऐलूष कवष

Sooraj Krishna Shastri
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वैदिक ऋषि: महर्षि ऐलूष कवष

'ऐतरेय ब्राह्मण' में कथा आती है कि भृगु, अंगिरा आदि ऋषियों ने सरस्वती नदी के तट पर यज्ञ आरम्भ किया।

इस यज्ञ में भाग लेने के लिए ऐलूष के पुत्र कवष भी पहुँचे, परन्तु ऋषियों ने उनको जुआरी समझकर उनसे कहा === "(दास्या: पुत्र:) कितव: अब्राह्मण: कथं नो मध्ये अदीक्षिष्ट इति) ---- अर्थात् 'दासीपुत्र, जुआरी, अब्राह्मण, अदीक्षिष्ट-- हम लोगों के बीच कैसे दीक्षित हो सकता है ?'

ऐसा कहकर उन्होंने यज्ञशाला से बाहर सरस्वती नदी से अत्यंत दूर निर्जन स्थान पर ले जाकर उसे छोड़ दिया, जिससे वह सरस्वती नदी का जल न पी सके और प्यासा ही मर जाये।

वे प्यास से अत्यंत व्याकुल थे और पूर्व जन्म की तपस्या तथा पुण्यकर्म के प्रभाव से ऋग्वेद दशम् मण्डल के तीसवें सूक्त 【वरुण-सूक्त】 का उन्हें ज्ञान था।

उनके वरुण-सूक्त के जप के प्रभाव से वरुण देवता ने उनपर कृपा की। 

वरुण जी की कृपा से सरस्वती नदी का जल प्रवाह उनकी ओर बहने लगा, उन्होंने यथेष्ट जल पीकर अपनी प्यास शांत की।

तब देवताओं ने प्रसन्न होकर ऋषियों को कवष की शुद्धि का परिचय दिया। 

ऋषियों ने अपने उपास्य देवता के द्वारा कवष की प्रशंसा सुनकर पश्चाताप किया।

ऋषि आपस में कहने लगे कि जिसकी उपास्य देव भी स्तुति करते हैं, वह अनादर तथा निकाले जाने के योग्य नहीं है।

 अतः ऋषियों ने उन्हें बुलाकर यज्ञ में दीक्षित किया। 【ऐतरेय ब्राह्मण-- २,२,१९】

यह तो हुआ उनका जीवन-चरित्र।     

अब आइये आर्यसमाजियों, वामपंथीयों, अंग्रेजों आदि षड्यंत्रकारीयों द्वारा उनके जीवन-चरित्र को लेकर किये गये दुष्प्रचार पर विचार करें।

शंका== आजकल के सुधारवादी तथा वर्णाश्रम को न मानने वाले मन्त्र में आये हुये 'दास्या: पुत्र:' , 'कितव:' तथा 'अब्राह्मण' शब्द को देखकर इनको शूद्र कहते हैं।

समाधान== वेदभाष्यकार श्री सायणाचार्य जी इन तीनों शब्दों को निंदार्थक मानते हैं।

ऐलूष कवष जन्म से ब्राह्मण होने पर भी "जुआ खेलना वर्जित है" , इस बात को नहीं जानते थे। वेदज्ञान से रहित होने से ऋषियों ने 'दास्या: पुत्र:, अब्राह्मण' शब्द से अति कटु वचन कहे (गालियां दी)।

ऋषियों ने 'दास्या: पुत्र:' आदि उसके जुआरीपन को दूर करने के लिए उसे दण्ड देने तथा सुधार के लिए कटूक्तियां कही।

जैसे माता-पिता अपने उस पुत्र को, जो अधिक खेलता हो, पढ़ाई नहीं करता ; उसकी निंदा करते हुये माता-पिता अपने पुत्र को सुअर, गधा, बंदर कहकर डांटते है।

तो जैसा वह बालक माता-पिता द्वारा ऐसा कहने पर ही गधा, सुअर नहीं हो जाता ; वैसे ही ऋषियों द्वारा उसे दासीपुत्र तथा अब्राह्मण कहने से वह शूद्र नहीं होता।

'दास्या: पुत्र:' में अलुक् समास वाला शूद्र का पुत्र अर्थ नहीं है, किन्तु कवष जुआरी की निंदार्थक है।

इसीलिए इसपर भाष्यकार सायणाचार्य जी भाष्य में लिखते हैं---- 'दास्या: पुत्र: इत्युक्ति---- रधिक्षेपार्थ:।' दासीपुत्र वचन अक्षेपार्थ है, शूद्रापुत्र कहने में इसका तात्पर्य नहीं है।

व्याकरण शास्त्र में 'षष्ट आक्रोशे' 【६,३,२१】 अर्थात् षष्टी विभक्ति आक्रोश अर्थ में आई है। वे ब्राह्मण होने पर भी जुआ खेलते थे, इससे आक्रोशित होकर उन्हें दासीपुत्र कहा गया है।

दासीपुत्र केवल व्याकरण से ही सिद्ध नहीं होता, बल्कि साहित्य में भी गाली के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। 

महाकवि कालिदास प्रणीत "अभिज्ञानशाकुन्तलं" नाटक के द्वितीय अंक में सेनापति के लिए कहा है कि-----

 'गच्छ ! भो दास्य: पुत्र:। ध्वंसितस्ते उत्साह वृत्तान्त।'

इसी नाटक के तीसरे अंक में भी---- 

'किमत्र उज्जैन्याम् कोऽपि चोरो नाऽस्ति, य एतद् दास्या: पुत्रं (स्वर्णभाण्डम्) नापहरति' इस वाक्य में स्वर्ण के पात्र की दासीपुत्र कहकर निंदा की गई है।

यही शब्द शूद्रक प्रणीत "मृच्छकटिक" नाटक आदि अनेक ग्रन्थों में आया है।

जैसे शास्त्रों में अन्य पशु-पक्षियों की अपेक्षा गाय तथा घोड़ों की प्रशंसा करते हुए कहा गया है--- 

'अपशवोवा अन्ये गवाश्वेभ्य:।' 'गौ तथा घोड़ों के अतिरिक्त अन्य सब अपशु है।'

तो जैसे गौ तथा घोड़ों को छोड़कर यहां अन्य सब अपशु नहीं हो जाते, किन्तु इस वचन का तात्पर्य गौ तथा घोड़ों की प्रशंसा में है।

वैसे ही 'अब्राह्मण' निंदार्थक है।

संस्कृत में निषेधात्मक छः अर्थों में कहा गया है---

"तत्सादृश्यमभावश्च तदन्यत्वं तदल्पता।

अप्राशस्त्यं विरोधश्च नञर्थाः षट् प्रकीर्तिताः।।"

अर्थात् समानता, अभाव, सद्चित्र, अल्पनिंदा तथा विरोध, इन छः अर्थों में 'नञ्' कहा जाता है। ~~~

१. तद्सदृश== अब्राह्मण अर्थात् ब्राह्मणेतर स्वभाव वाले, ब्राह्मण की निंदा वाले अर्थ में अब्राह्मण।

२. अभाव:== अपापम्।

३. तद्भिन्न== घोड़े से अतिरिक्त अनश्व ।

४. अल्प== यथा अनुदराकन्या--- बहुत पतली कन्या को अनुदरा कहा गया है।

५. अप्राशस्त्य= अपशवोवा--- अन्ये गो अश्वेभ्य:। गौ तथा घोड़े के अतिरिक्त अन्य पशु प्रशंसनीय नहीं है।

६. विरुद्ध== अधर्म अथवा अप्रशंसनीय ।

तो प्रशंसा रहित धर्म वाला 'कवष' जुआरी होने के कारण उन्हें अब्राह्मण कहा।

जो ब्राह्मण जन्म पाकर भी खड़े होकर पेशाब करता है, 'नञ्' 【२/२/६】 इस सूत्र के भाष्य में गुणहीन ब्राह्मण का उदहारण देते हुये पतञ्जलि जी ने लिखा है-----

"अब्राह्मणोऽयं यस्तिष्ठन् मूत्रयति अब्राह्मणोऽयं यस्तिष्ठन् भक्षयति"

इसकी व्याख्या करते हुए श्री कैयट लिखते हैं-----  

"तप: श्रुतयोरभावाद् निंदया अत्र अब्राह्मण: शब्द प्रयोग:। तत्र जाति भावे अवयवे समुदाय-- रूपारोपाद् ब्राह्मण शब्द प्रयोग:।' 

अर्थात् वहां ब्राह्मण शब्द तपस्या तथा श्रोत्र के अभाव वाले ब्राह्मण में प्रयुक्त हुआ है, वहां पर जाति मात्र अंग में समुदाय के आरोप से ब्राह्मण शब्द प्रयुक्त हुआ है।'

अब्राह्मण के 'नञ्' शब्द के प्रयोग से ब्राह्मण की तपस्या तथा शास्त्रज्ञान की निवृत्ति प्रकट होती है।

कुछ लोग कल्पना करते हैं कि जब याज्ञिक ब्राह्मणों ने कवष को अपमानित करके सरस्वती नदी के उस पार निर्जल एवं निर्जन स्थान पर छोड़ दिया, तब उसने तपस्या करके ऋग्वेद का पूर्णज्ञान प्राप्त किया। 

परन्तु उनका यह वचन भी युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि उस स्थान पर कोई भी गुरुकुल नहीं था। और फिर चार-पांच मिनट के अंदर कोई भी व्यक्ति वेद नहीं पढ़ सकता।

उनपर सरस्वती देवी की कृपा हुई तथा उनको चालीस अध्याय वाला "अपोनप्ष्त्रीय सूक्त" का प्रत्यक्ष हुआ।

इस सूक्त के मन्त्रद्रष्टा कवष ऋषि जन्म से ही ब्राह्मण सिद्ध होते हैं, शूद्र नहीं। 

देवी-देवताओं की कृपा से जुआ खेलना भी छूट गया। ऋग्वेद 【१०/३४/१३】 में ब्राह्मण के लिए "अक्षौर्मादिव्य:" अर्थात् 'ब्राह्मण के लिए पाशा नहीं खेलना चाहिए' आया है।

शास्त्रज्ञान से रहित कुछलोग इनकी माता का नाम इलुष दासी बताते हुये इन्हें दासीपुत्र कहते हैं।

उनका यह कथन असत्य है, क्योंकि स्त्री का नाम अकारान्त न होकर आकारान्त होता है।

जैसे-- रमा, कृष्णा, सत्या आदि।

वास्तव में इनके पिता का नाम ऐलूष था, उनके पुत्र होने के कारण इन्हें ऐलूष-कवष कहते हैं।

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