श्रीमद्भागवत की पूतना वध कथा: बालकृष्ण ने कैसे किया राक्षसी पूतना का उद्धार?

Sooraj Krishna Shastri
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श्रीमद्भागवत की पूतना वध कथा: बालकृष्ण ने कैसे किया राक्षसी पूतना का उद्धार?

"गोपान् गोकुलरक्षायां निरुप्य मथुरां गतः ।

नन्दः कंसस्य वार्षिक्यं  करं दातुं कुरुद्वह।।"

नन्दबाबा ने गोकुल की रक्षा का भार गोपों को सौंप कर कंस का वार्षिक कर चुकाने के लिए मथुरा चले गए।

वसुदेव को खबर मिली थी कि कंस ने पूतनाको बच्चों को मारने के लिए गोकुल भेजी है,इसलिए उन्होंने नंदबाबा को कहा - ये दिन आपके लिए अच्छे नहीं है। आपके गाँव में कोई राक्षसी आएगी,आप बाहर घूमो वह ठीक नहीं है। जल्दी गोकुल जाओ---

"करो वै वार्षिको दत्तो राज्ञे दृष्टा वयं च वः।

नेह  स्थेयं बहुतिथं  सन्त्युपाताश्च  गोकुले।।"

नन्द (जीव-या-आत्मा) गोकुल छोड़कर कहीं दूर जाता है वहाँ काम,मद,लोभ,मोह,मत्सर आदि राक्षस धमकते है। नन्द,कृष्ण को छोड़कर कंस के पास जाते है तो गोकुल में विपत्ति आती है,ऊधम मच जाता है। 

श्रीमद्भागवत की पूतना वध कथा: बालकृष्ण ने कैसे किया राक्षसी पूतना का उद्धार?
श्रीमद्भागवत की पूतना वध कथा: बालकृष्ण ने कैसे किया राक्षसी पूतना का उद्धार?


नंदबाबा गोकुल वापस जाते है, उन्होंने सोचा गोकुल में खिलौने नहीं मिलते,इसलिए मथुरा से लेता जाऊ तो कन्हैया खुश होगा, घर के लोग को जब तक कुछ दोगे तो प्रेम बताएँगे फिर भूल जायेंगे,पर कन्हैया को दोगे  तो वह हमेशा याद रखेगा,इसीलिए कहीं बाहर जाओ तो वहाँ से ठाकुरजी के लिए कोई अच्छी से चीज ले कर जाओ, तुम्हारा प्रवास भक्तिमय बनेगा। 

 कंस को जब योगमाया ने आकाशवाणी द्वारा कहा कि तेरे काल का जन्म हो गया है तो वह घबराया है, सने तुरन्त सभी जन्मे हुए बच्चों की हत्या करने का आदेश दिया और इस हेतु से उसने पूतना को गोकुल की ओर भेज दिया---

"कंसेन प्रहिता घोरा पूतना बालघातिनी।'

 पूत का अर्थ है पवित्र, पूत नहीं है वह पूतना। 

पवित्र क्या नहीं है, अज्ञान, सो पूतना का अर्थ है अज्ञान,अविद्या और पवित्र है केवल ज्ञान। 

गीताजी में कहा है - इस संसार में ज्ञान के सिवाय पवित्र कर्ता और कुछ नहीं है। 

आत्मस्वरूप का ज्ञान ही सच्चा ज्ञान है, ज्ञान पवित्र है और अज्ञान अपवित्र,अज्ञान से वासना का जन्म होता है। 

पूतना वासना का स्वरुप है, पूतना चतुर्दशी के दिन गोकुल में आई है।

 पूतना चतुर्दशी के दिन क्यों आई? 

कहते है - पूतना (वासना) ने चौदह ठिकानों पर वास किया है। 

अविद्या - वासना चौदह स्थानों में बसती है --

       "पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय,मन,बुद्धि,चित्त और अहंकार"  ये चौदह स्थान वासना-अविद्या -पूतना के बसने के लिए है, इसी कारण से वह चतुर्दशी के दिन आई। 

 नीति और धर्म के मना करने पर भी यदि आँखे परस्त्री के पीछे भागे - तो मान लो कि अपनी आँखों में पूतना आ बसी है, आँखों में पूतना होगी तो काम मन में भी बसेगा। 

जगत के किसी भी व्यक्ति को भगवद भाव से देखने में बुराई नहीं है किन्तु किसी भी व्यक्ति को सांसारिक काम- भाव से देखोगे तो समझ लेना कि मन में पूतना बसी है। 

धर्म और नीति,जिस पदार्थ का आहार करने को मना करे,वही खाने की इच्छा हो - तो मान लो कि तुम्हारी जीभ में पूतना बसी है, वीभत्स और अति कामुक बातें सुनने की इच्छा हो तो समझो कि पूतना कान में भी सवार हो गई है। 

पूतना हरेक इन्द्रिय में बसी हुई है,जो बहुत सताती रहती है, सभी इन्द्रियों के द्वार बंद कर दो जिससे पूतना अंदर प्रविष्ट ही न कर सके, पूतना सज-धज कर,सुंदरी का रूप लेकर गोकुल आई--- --

"तां केशबन्ध व्यतिषक्तमल्लिकां,

                       बृहन्नितम्बस्तनकृच्छमध्यमाम्।

सुवाससं     कम्पितकर्णभूषण-

                        त्विषोल्लसत्कुन्तलमण्डिताननाम्।।"

तीन वर्ष की आयु तक बालक को शिशु कहा जाता है।

इस शिशु को मारने के लिए पूतना आई है---

       "शिशूंश्चचार निघ्नन्ती पुरग्रामव्रजादिषु"

प्रश्न यह है कि पूतना तीन वर्ष तक की आयु के बालक को ही क्यों मारती है और उससे बड़ी आयु के बालक को क्यों नहीं मारती? 

उसके पीछे अलग-अलग तर्क है।

१- सत्व,रजस और तमस यह तीन गुणों वाली (प्रकृति) माया में जो फँसा है उसे पूतना मारती है। 

जो संसार सुख में फँसे है वह सभी बालक है (बालक में बुद्धि नहीं होती), उसे (अज्ञान) पूतना मारती है, पर जो संसार का मोह छोड़कर ईश्वर में लीन है उसे अज्ञान (पूतना )नहीं मार सकती। 

 २- जीवन की चार अवस्थाएं है -----

    (१) जाग्रत (२) स्वप्न (३) सुषुप्ति (४) तुर्यगा। 

जाग्रत अवस्था में पूतना आँखों पर सवार हो जाती है। और आँखों की चंचलता मन को चंचल करती है। 

इस प्रकार जाग्रत,स्वप्न और सुष्प्ति इन तीनो अवस्था में अज्ञान सताता है, अर्थात पूतना (अज्ञान) तीन वर्ष तक (तीन अवस्थाएं वाले को) के शिशु को मारती है। 

इन तीन अवस्थाओं को छोड़ कर-जब, तुर्यगा अवस्थामें  जीव का सम्बन्ध ब्रह्म से होता है, तब पूतना (अज्ञान- या- वासना) उसे सता नहीं सकती, जब पूतना आई,उस समय गोकुल की गाये वन में चरने गई थी और नंद जी मथुरा गए थे।

इस घटना का सूचितार्थ क्या है?

गायों का वनगमन अर्थात इन्द्रियों का विषय- वन में गमन, इन्द्रियाँ इस विषय-वन में घूम रही होगीं तो पूतना-वासना मन में आ धमकेगी, अज्ञान, मन पर सवार हो जायेगा, जब इन्द्रियाँ विषयों में खो जाती है,बहिर्मुख होती है तब वासना आ जाती है, इन्द्रियों को प्रभु-सेवा की ओर मोड़ कर निरुद्ध करने से  तो पूतना वासना सता नहीं पाएगी। 

 नन्द अर्थात जीव, जीव जब हृदय गोकुल को छोड़कर मथुरा अर्थात देह सुख,देह-दृष्टि में खो जाए,तब ह्रदय में पूतना-अज्ञान बस जाते है। 

 पूतना श्रृंगार करके आई है, वह अपने स्तन पर विष लगाकर आई थी----

"तस्मिन् स्तनं दुर्जरवीर्यमुल्बणं,

                  घोराङ्कमादाय शिशोर्ददावथ।"

इसी तरह जीव का स्वभाव है - जीव आत्मा के स्वरुप (ज्ञान)पर विष (अज्ञान )का आवरण लगाकर विषयानन्द भुगतता है, वासना (अज्ञान )के विनाश होने पर ही कृष्ण-मिलन होता है। 

 पूतना को देखते ही कन्हैया ने आँखे मूंद ली---

  "बिबुध्य तां बलकमारिकाग्रहं,

                  चरचरात्माऽऽस निमीलितेक्षणः।"

पूतना (वासना) आँख से अंदर आती है, जब आँख बिगड़ती है - तो उससे मन बिगड़ता है, पूतना जैसा मैला मन प्रभु के दर्शन करने जाये तो प्रभु कहते है - मैं तुम्हे आँख नहीं देता, मै आँख बंद करता हूँ। 

जिसका मन मैला है उसके सामने ईश्वर नहीं देखते। प्रभु बाहर (स्थूल शरीर) के श्रृंगार को नहीं देखते, वे तो अंदर के सूक्ष्म शरीर और मन का श्रृंगार देखते है। 

 शास्त्र में तीन प्रकार के शरीर बताये है। 

और इन तीनों शरीर से पर (अलग) आत्मा है। 

(१) स्थूल शरीर - जो आँख से दिखे। 

(२) सूक्ष्म शरीर- १७ तत्व से बना है – ५-कर्मेन्द्रिय,५-प्राण,५-ज्ञानेन्द्रिय,मन और बुध्धि। (मन) मुख्य है। 

(३) कारण शरीर --- मन में जो वासना का समुदाय है  वह। 

पूतना तन का श्रृंगार करके आई है, मन का नहीं, 

 इसलिए प्रभु ने उसके सामने देखा नहीं है। 

सुदामा फटे हुए कपडे पहनकर कृष्ण के पास गये थे 

पर प्रभु ने उसके कपड़े को नहीं देखा था और खड़े होकर आलिंगन दिया था, कई लोग मंदिर में दर्शन करने कपडे बदलकर जाते है,पर मन को बदलकर नहीं जाते - तो प्रभु उनके सामने नहीं देखते, प्रभु के पास लायक होकर जाओ।

भगवान ने उसके स्तन को दोनों हाथों से दबाकर क्रोध पूर्वक उसके प्राणों को पीने लगे----

"गाढं कराभ्यां प्रपीड्य तत्,

            प्राणैः समं रोषसमन्वितोऽपिबत्।।"

जिससे पूतना के प्राणों के आश्रयभूत सभी मर्मस्थान फटने लगे और वह चिल्लाने लगी---

"सा मुञ्च मुञ्चालमिति प्रभाषिणी ,

                   निष्पीड्यमानाखिलजीवमर्मणि।"

वह बार बार अपने हाथ पैर पटक पटककर रोने लगी और उसके नेत्र उलट गये, उसका शरीर पसीने से लथपथ हो गया।

यह पूतना मोक्ष भगवान श्रीकृष्ण की अद्भुत बाल लीला है, जो मनुष्य इसका श्रवण करता है उसे भगवान श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम प्राप्त होता है---

"य एतत् पूतनामोक्षं कृष्णस्यार्भकमद्भुतम्।

श्रृणुयाच्छ्रद्धया मर्त्यो गोविन्दे लभते रतिम्।।"

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