🌳 भक्त और भगवान 🌳
(एक प्रेममयी प्रेरणात्मक कथा – विस्तार एवं व्याख्या सहित)
✨ प्रस्तावना:
भक्ति का मार्ग न तो जटिल है, न ही किसी विशेष कर्मकांड का मोहताज। जब हृदय निष्कलंक होता है, भावना निर्मल होती है, तब ईश्वर स्वयमेव प्रकट हो जाते हैं — चाहे बालक के रूप में, चाहे वृद्धा के रूप में। प्रस्तुत कथा इसी सत्य का जीवन्त चित्रण करती है, जिसमें भक्त और भगवान दोनों एक-दूसरे में ईश्वर का साक्षात्कार करते हैं।
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भक्त और भगवान: एक प्रेममयी प्रेरणात्मक कथा |
📖 कथा का क्रमबद्ध वर्णन:
1. निष्कलंक इच्छा – ईश्वर से मिलने की चाह
एक 6 वर्षीय मासूम बालक था। वह अक्सर भगवान से मिलने की जिद करता।
उसे भगवान का स्वरूप, उनका निवास, कुछ भी ज्ञात नहीं था।
बस एक निष्कलंक आकांक्षा थी — “भगवान के साथ एक समय की रोटी खाना।”
2. सामान्य भक्ति, असामान्य यात्रा
एक दिन वह बालक थैले में 5–6 रोटियाँ रखकर "भगवान को ढूँढने" निकल पड़ा।
चलते-चलते वह बहुत दूर जा पहुँचा।
संध्या हो चुकी थी, सूर्य अस्ताचल को जा रहा था।
3. मिलन का क्षण – वृद्धा और बालक
नदी के तट पर उसे एक वृद्ध माता बैठी दिखीं।
उनकी आँखों में इंतजार, ममता और करुणा का मिश्रण था — जैसे किसी की प्रतीक्षा में हों।
बालक उनके पास जाकर बैठ गया।
थैले से रोटी निकाली और खाने लगा।
उसे कुछ स्मरण हुआ —
उसने एक रोटी वृद्धा की ओर बढ़ाई।
वृद्धा ने वह रोटी प्रेमपूर्वक ले ली।
उनके चेहरे पर झुर्रियों के बीच से आनंद छलक पड़ा — "एक ईश्वरीय संतोष!"
4. प्रेम का आदान-प्रदान
बिना बोले, बिना किसी पहचान के —
बालक वृद्धा को एक-एक रोटी देता गया, और वृद्धा उसे वात्सल्य से देखती रहीं।
दोनों की आँखों में ईश्वर के प्रति प्रेम था।
वह समय रोटी खाने का नहीं था — वह समय था ईश्वर के मिलन का।
5. विदाई, पर मिलन की गूँज
जब अंधेरा घिरने लगा, बालक विदा लेकर चल पड़ा।
पर बार-बार पीछे मुड़कर देखता, और पाता कि वृद्धा अभी भी उसे ही निहार रही हैं —
जैसे माँ अपने पुत्र को देखती है, जैसे भक्त अपने आराध्य को।
🏠 घर लौटने पर...
🌼 बालक की माँ के पास:
घर पहुँचते ही माँ ने बेटे को गले लगा लिया।
बच्चे के चेहरे की चमक आज कुछ अलग थी।
माँ ने पूछा –
“बेटा! आज इतना प्रसन्न क्यों है?”
बच्चा बोला –
“माँ! आज मैंने भगवान के साथ रोटी खाई!वे बहुत बूढ़े हो गए हैं… पर बहुत प्यारे हैं।मुझे बड़े प्रेम से देखते रहे, रोटियाँ भी खाईं।”
🌼 वृद्धा के गाँव में:
वृद्धा जब अपने गाँव पहुँचीं तो सबने देखा –
आज उनके चेहरे पर अनुपम संतोष था।
किसी ने पूछा –
“माता जी! आप इतनी प्रसन्न क्यों हैं?”
वृद्धा बोलीं –
“मैं दो दिन से नदी तट पर भूखी बैठी थी।मुझे विश्वास था, भगवान आएंगे... और आज वे आए!उन्होंने रोटी दी, मेरी ओर बहुत प्रेम से देखा, मुझे गले भी लगाया।भगवान बहुत मासूम थे, बिल्कुल बच्चे की तरह लग रहे थे।”
🔍 गूढ़ भावार्थ:
🌟 1. ईश्वर का दर्शन, भावना में होता है।
बालक वृद्धा को भगवान समझ बैठा और वृद्धा बालक को।
दोनों ने एक-दूसरे में ईश्वर को अनुभव किया — और वही सच्चा दर्शन है।
🌟 2. भक्ति की परिपक्वता, उम्र पर नहीं, प्रेम पर निर्भर है।
छह वर्ष का बालक और वृद्धा — दोनों ने जो पाया, वह कर्म से नहीं, प्रेम से प्राप्त किया।
🌟 3. प्रेम और सेवा ही सच्चा योग है।
जहाँ निष्काम सेवा है, वहीं ईश्वर हैं।
"भूखे को रोटी देना" — यही प्रभु का सबसे प्यारा पूजन है।
🌟 4. जब भक्ति निष्कलंक होती है, तो साक्षात् साक्षात्कार होता है।
भगवान को मंदिरों में ढूँढना आवश्यक नहीं,
वह तो उसी में प्रकट हो जाते हैं – "जिसके भीतर भक्ति, और जिसकी सेवा में करुणा हो।"
🕉️ निष्कर्ष – आध्यात्मिक संदेश:
“प्रेम ही भगवान है। सेवा ही पूजा है। और निर्दोष हृदय ही मंदिर है।”
ईश्वर को खोजने की आवश्यकता नहीं होती,
वे तो वहीं होते हैं –
जहाँ एक भूखे को रोटी दी जाए, एक माँ को संतान का प्रेम मिले,
या एक बालक को किसी के नेत्रों में अपनापन झलक जाए।