मोक्ष की चाह — एक यथार्थबोध कथा

Sooraj Krishna Shastri
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मोक्ष की चाह — एक यथार्थबोध कथा


📚 प्रस्तावना

मनुष्य के जीवन में एक समय ऐसा आता है जब वह सांसारिकता से ऊबकर वैराग्य और मोक्ष की ओर प्रवृत्त होता है। यह प्रवृत्ति यदि प्रबुद्ध विवेक से हो, तो वह व्यक्ति को आत्मकल्याण की दिशा में ले जाती है, लेकिन यदि वह भावावेश या भ्रम से उत्पन्न हो, तो वह कर्तव्यत्याग, परिवार-विमुखता और आध्यात्मिक पाखंड का कारण बन जाती है। प्रस्तुत कथा इसी द्वंद्व और समाधान का यथार्थ चित्रण करती है।

मोक्ष की चाह — एक यथार्थबोध कथा
मोक्ष की चाह — एक यथार्थबोध कथा



🧔🏻 एक गृहस्थ की वैराग्य-यात्रा की शुरुआत

किसी नगर में एक साधारण गृहस्थ रहता था।
उसके परिवार में उसकी पत्नी और एक नन्हा पुत्र था।
जीवन शांतिपूर्वक चल रहा था –

  • दैनिक कर्म,
  • पारिवारिक सुख,
  • संतुलित जीवनचर्या।

परंतु अचानक एक दिन, उसके मन में वैराग्य की तीव्र भावना उत्पन्न हो गई।

अब उसे संसार बंधन प्रतीत होने लगा।
उसे प्रतीत हुआ कि

“सच्चा जीवन तो भगवद्भक्ति और मोक्ष में है,
यह गृहस्थ जीवन तो मोह-माया का जाल है।”


🏃🏻 गृहत्याग का निर्णय

मन में चल रहे इस द्वंद्व ने धीरे-धीरे उसे इतना आवेशित कर दिया कि एक दिन रात्रि के समय,
जब पत्नी और पुत्र गहरी नींद में थे —
वह चुपचाप घर से निकल पड़ा

वह मन-ही-मन सोच रहा था:

“अब मुझे मुक्त होना है,
आत्मा को मुक्त कर भगवान की प्राप्ति करनी है।”


🧙🏻‍♂️ साधु के पास पहुँचकर मार्गदर्शन की याचना

वह एक प्रसिद्ध साधु के आश्रम पहुँचा।
उनके चरणों में नतमस्तक होकर बोला —

“गुरुदेव! मुझे मोक्ष चाहिए।
मैं गृहस्थ जीवन छोड़ आया हूँ।
कृपा कर भगवद्प्राप्ति का मार्ग बताएं।”


🎙️ साधु का उत्तर और प्रश्न

साधु ने गंभीरता से उसकी बात सुनी और बोले:

“वत्स! भगवान की कृपा सहज में नहीं मिलती।
उसके लिए महान त्याग और तपस्या की आवश्यकता होती है।”

गृहस्थ व्यक्ति उत्साहित होकर बोला —

“गुरुदेव, मैंने भी बहुत त्याग किया है!”

साधु मुस्कराकर बोले —

“बताओ तो सही, क्या त्याग किया है तुमने?”


👨‍👩‍👦 उसके त्याग की कथा

गृहस्थ व्यक्ति बोला:

“रात्रि में जब मैं घर से निकला,
मेरी पत्नी और बेटा सो रहे थे।
तभी मेरा बेटा नींद में चौंककर रोने लगा।
मुझे भय हुआ कि पत्नी जाग न जाए।

पर वह नींद में ही बच्चे को सीने से चिपकाकर चुप करवा देती है

तभी मैं चुपचाप घर से निकल पड़ा।
और अब, मैं संसार के मोह से मुक्त होना चाहता हूँ।”


⚡ साधु का यथार्थबोध

साधु गंभीर होकर बोले:

“मूर्ख! जिन दो भगवानों को तू छोड़ आया है –
तेरी पत्नी और पुत्र
क्या उनकी सेवा करना तुझे बंधन लगता है?

तू उनके प्रति अपने कर्तव्यों से पलायन कर रहा है और इसे मोक्ष की साधना समझ बैठा है?

परिवार का परित्याग त्याग नहीं है,
भीतर के विकारों का परित्याग ही सच्चा त्याग है।


🧘🏻 जीवन में संतुलन का संदेश

साधु आगे बोले:

“मोक्ष भगोड़े को नहीं मिलता।
अध्यात्म उनकी रक्षा करता है जो
कर्तव्य और साधना के संतुलन में जीते हैं।

तुझे त्याग करना है तो अपने अहंकार, कामना, आलस्य, और भ्रम का कर।
अपने परिवार को ही सेवा का माध्यम बना।”


🏠 घर की ओर लौटाव और आत्मबोध

वह गृहस्थ व्यक्ति उस साधु के वचनों से झकझोर उठा
उसकी आंखों में पश्चात्ताप के आँसू छलक आए।
अब उसे अपनी भूल का बोध हो गया था।

वह मन-ही-मन संकल्प करता है —
“अब मैं अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए ही
आत्म-साधना और मोक्ष के मार्ग पर चलूँगा।”

और वह वापस अपने घर की ओर चल पड़ा।


🌟 सारांशिक शिक्षा :

  1. त्याग का अर्थ केवल भौतिक वस्तुओं या संबंधों का त्याग नहीं है,
    बल्कि अपने भीतर के अज्ञान और दोषों का त्याग है।

  2. परिवार भी साधना का केंद्र बन सकता है, यदि सेवा और प्रेम से कर्म किए जाएँ।

  3. मोक्ष का मार्ग गृहस्थ जीवन से होकर भी जाता है, यदि जीवन संतुलन, विवेक और कर्तव्य-पालन से युक्त हो।

  4. वैराग्य भाव की परीक्षा तब सफल होती है, जब वह कर्तव्य से भागने का माध्यम न बने।


🪔 प्रेरक वाक्य :

“परिवार त्याग कर कोई योगी नहीं बनता,
स्वयं को पहचानकर, भीतर के विकारों से युद्ध कर
जो अपने दायित्वों में दिव्यता लाता है —
वही सच्चा साधक है, वही मोक्ष का अधिकारी है।”

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