Letter for Krishna by Rukmini, रुक्मिणी का पत्र, भागवत कथा

Sooraj Krishna Shastri
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Letter for Krishna by Rukmini, रुक्मिणी का पत्र, भागवत कथा  

विदर्भ देश के राजा भीष्मक की कन्या रुक्मिणी ने भगवान के चरित्र और कीर्ति बहुत से लोगों ने सुनी थी। इस कारण उसने निश्चय कर लिया था कि मैं भगवान के साथ ही विवाह करूँगी, भगवान के कानों में भी उसके शील, गुण और सुंदरता की ख्याति पड़ चुकी थी और उन्होंने भी उसे अपने योग्य समझ रखा था, राजा भीष्मक भी यही चाहते थे कि इन दोनों का विवाह हो,किन्तु उसके पुत्र रुक्मी की यह तीव्र इच्छा थी कि रुक्मिणी शिशुपाल को दी जाय।

Letter for Krishna by Rukmini, रुक्मिणी का पत्र, भागवत कथा
Letter for Krishna by Rukmini, रुक्मिणी का पत्र, भागवत कथा 


अंत में यही निश्चय स्थिर भी रहा, भ्राता का यह निश्चय जानकर रुक्मिणी अत्यंत दुःखी हुई और उसने श्रीकृष्ण भगवान को पाने का एक उपाय सोचा, एक सुशील ब्राह्मण को पत्र देकर शीघ्रता से भगवान को लिवा लाने के लिए उसने भेजा---

          "रुक्मिणी का पत्र"

श्रुत्वा गुणान् भुवनसुंदर श्रृण्वतां ते

                निर्विश्य कर्णविवरैर्हरतोंऽगतापम्।

रूपं दृशां दृशिमतामखिलार्थलाभं

                 त्वय्यच्युताविशति चित्तमपत्रपं मे।।

हे भुवन सुंदर! हे अच्युत! सुनने वाले मनुष्यों के कर्ण छिद्र से अंतःकरण में प्रवेश करके तीनों तापों को हरने वाले तुम्हारे गुणों को सुनकर तथा नेत्रधारी पुरुषों के नेत्रों को सकल प्रयोजन प्राप्त कराने वाले तुम्हारे रूप को सुनकर, मेरा निर्लज्ज चित आप में आसक्त हो गया है।

शंका -  ऐसा उद्धतपना कुलीन कन्या के लिए योग्य नहीं है। 

समाधान करते हुए रुक्मिणी आगे कहती हैं- यह संदेह मन में मत लाओ क्योंकि --

का त्वा मुकुन्द महती कुलशीलरूप-

              विद्यावयोद्रविणधामभिरात्मतुल्यम्।

धीरा पतिं कुलवती न वृणीत कन्या

              काले नृसिंह नरलोकमनोऽभिरामम्।।

  हे मुकुन्द! हे नृसिंह! ऐसी कौन सी कुलीन, बहुगुणवती तथा धैर्यवती कन्या है जो सत्कुल में उत्पन्न, सुंदर स्वभाव और रूपयुत, सर्वविद्यावान्, धनाढ्य और अनुपम तेजस्वी तथा संपूर्ण जन्तुओं को आनन्द देने वाले आपको विवाह के योग्य काल में पतिरूप से न वरेगी? अर्थात सभी वरेंगी, अतः मुझमें दोष की आशंका नहीं होनी चाहिए।

तन्मे भवान्खलु वृतः पतिरंग जाया-

              मात्मार्पितश्च भवतोऽत्र विभो विधेहि।

मा वीरभागमभिमर्शतु चैद्य आराद्

                  गोमायुवन्मृगपतेर्बलिम्मबुजाक्ष।।

हे विभो! इस कारण मैंने आपको अपना पति वर लिया है और अपना देहादि भी आपको पत्नीरूप से अर्पण कर दिया है। आप यहाँ आकर मुझे अपनी भार्या बनाकर ले जाइये। हे अम्बुजाक्ष! आप वीर हैं, आपके भाग को शिशुपाल श्रृगाल के समान शीघ्र आकर स्पर्श न करे।।

पूर्तेष्टदत्तनियमव्रतदेवविप्र-

            गुर्वर्चनादिभिरलं भगवान् परेशः।

आराधितो यदि गदाग्रज एत्य पाणिं

           गृह्णातु मे न दमघोषसुतादयोऽन्ये।।

यदि मैंने किसी जन्म में पूर्त,(कूपादि बनवाना),इष्ट,(अग्निहोत्रादि) दान, नियम,( तीर्थयात्रादि),व्रत या देव, विप्र और गुरु की पूजा आदि से भगवान परमेश्वर की बड़ी आराधना की है तो उससे प्रसन्न हुए आप गदाग्रज (श्रीकृष्ण) ही यहाँ आकर मेरा पाणिग्रहण करें, दूसरे शिशुपालादि न करें।

शंका- तुम्हारे बांधवों ने तो तुमको शिशुपालादि को दे दिया हे भगवान वहाँ आकर क्या करेंगे?

समाधान करते हुए रुक्मिणी आगे कहती हैं-

श्वोभाविनि त्वमजितोद्वहने विदर्भान्

              गुप्तः समेत्य   पृतनापतिभिः परीतः।

निर्मथ्य चैद्यमगधेन्द्रबलं प्रसह्य

              मां राक्षसेन विधिनोद्वह वीर्यशुल्काम्।।

 हे अजित! विवाह के एक दिन पहले बिना सेना के गुप्तरूप से आप विदर्भ देश में आकर, फिर सेनापतियों से चारों ओर घिरकर, तदनन्तर शिशुपाल, जरासन्धादि राजाओं की सेना का विध्वंस करके राक्षसविधि से विवाह करके  पराक्रम रूपी मूल्य देकर मुझे ले जाइये।

अन्तःपुरान्तरचरीमनिहत्य बन्धूं-

         स्त्वामुद्वहे कथमिति प्रवदाम्युपायम्।

पूर्वेद्युरस्ति महती कुलदेवियात्रा

         यस्यां   बहिर्नववधूर्गिरिजामुपेयात्।।

यदि आप यह कहें कि तुम्हारे बन्धु आदि का वध किये बिना ही अंतःपुर में रहने वाली तुमको मैं कैसे विवाह कर ला सकता हूँ, तो इसका उपाय मैं बतलाती हूँ- इस कुल में यह प्रथा है कि विवाह के पहले दिन कुलदेवी की पूजा की बड़ी यात्रा होती है, उस अवसर पर नववधू गिरिजा की पूजा करने के लिए नगर के बाहर जाती है वहाँ मेरे हरण करने में बंधु आदिकों का वध नहीं होगा।

यदि यह शंका हो कि अनर्थोत्पादक आग्रह से क्या लाभ, शिशुपाल भी गुणकर्म से प्रख्यात है, तो समाधान करती हूँ---

यस्याङ्घ्रिपंकजरजः स्नपनं महान्तो

              वाञ्छन्त्युमापतिरिवात्मतमोऽपहत्यै।

यर्ह्मम्बुजाक्ष न लभेय भवत्प्रसादं

           जह्यामसून्व्रतकृशाञ्छतजन्मभिः स्यात्।।

 हे अम्बुजाक्ष! आपके चरण कमल की रेणु में महादेव तथा उनके समान अन्य ब्रह्मादिक भी अपने अज्ञान को दूर करने के लिए स्नान करने की इच्छा करते हैं, आपका प्रसाद यदि मैं न पाऊँगी तो उपवासादि व्रत से देह को सुखाकर प्राणों को बार-बार अनेक जन्म तक त्यागती रहूँगी तो किसी जन्म में आपका प्रसाद मिलेगा ही।

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