पुत्री का विवाह, मनोवैज्ञानिक कंडीशनिंग और सांस्कृतिक पतन : एक बहुस्तरीय विवेचन

Sooraj Krishna Shastri
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✒️पुत्री का विवाह, मनोवैज्ञानिक कंडीशनिंग और सांस्कृतिक पतन : एक बहुस्तरीय विवेचन

(Daughter's marriage, psychological conditioning and cultural degradation: A multi-layered analysis)

Daughter's marriage, psychological conditioning and cultural degradation: A multi-layered analysis
(Daughter's marriage, psychological conditioning and cultural degradation: A multi-layered analysis)



🔹 1. शास्त्रीय दृष्टिकोण : विवाह से पूर्व वर के 7 गुणों का परीक्षण

📜 श्लोक:

"आदौ कुलं परीक्षेत् ततो विद्यां ततो वयम्।
शीलं धनं ततो रूपं देशं पश्चाद्विवाहयेत्॥"

🔍 व्याख्या:

भारतीय वैदिक परंपरा में विवाह मात्र सामाजिक अनुबंध नहीं, अपितु एक धार्मिक-सांस्कृतिक उत्तरदायित्व है। इसीलिए वर का चयन अत्यंत गहन विवेक से करने की सलाह दी गई है।


१. कुल (वंश और पृष्ठभूमि):

  • किसी का डीएनए सिर्फ जैविक नहीं होता, सामाजिक, मानसिक, और सांस्कृतिक भी होता है।
  • माता-पिता, पितामह, नाना-नानी के संस्कारों, कार्यों और दृष्टिकोण से ही संतान की वृत्तियाँ निर्मित होती हैं।
  • अगर कुल में अहंकार, आक्रोश, अपराध, अनाचरण रहा हो, तो वहाँ संतुलित जीवन की अपेक्षा दुराशा है।

२. विद्या (शिक्षा और योग्यता):

  • केवल डिग्री नहीं, जीवन जीने की शिक्षा
  • क्या वह आत्मनिर्भर है? क्या उसमें निर्णय लेने की क्षमता है?
  • क्या उसके पास विवाहोपरांत उभयजीवन के आर्थिक, सामाजिक और मानसिक उत्तरदायित्वों का स्पष्ट दृष्टिकोण है?

३. वय (उम्र):

  • मानसिक परिपक्वता का संतुलन अत्यावश्यक है।
  • बहुत कम या बहुत अधिक उम्र का अंतर प्रायः संप्रेषण और समभाव के रास्ते में बाधा बनता है।

४. शील (स्वभाव और चारित्रिक गुण):

  • क्या वह संवेदनशील, शांतचित्त, सहनशील और मैत्रीभावनापूर्ण है?
  • क्या वह क्रोधी, असहिष्णु, या महिला विरोधी विचारों से ग्रसित तो नहीं?

५. धन (धन-संचय और नीति):

  • क्या उसमें धन को साधन मानने की बुद्धि है या लक्ष्य बना बैठा है?
  • क्या वह अपनी इच्छाओं को नियंत्रित कर सकता है?
  • पैसे का संयम ही पारिवारिक स्थायित्व की आधारशिला है।

६. रूप (स्वास्थ्य और शारीरिक बनावट):

  • यह केवल सौंदर्य तक सीमित नहीं।
  • शरीर से स्वस्थ, स्वच्छ और सजीव रहना, दीर्घजीवी दाम्पत्य का संकेत है।

७. देश (परिवेश, संस्कृति, भाषा):

  • रहन-सहन, संस्कृति, खानपान, विचारधारा – ये सभी जीवन के स्थायित्व को प्रभावित करते हैं।
  • क्या उसकी सामाजिक स्थिति बेटी के संस्कारों से मेल खाती है?

🔹 2. श्लोक-2 : परिजनों की प्राथमिकताएं और सामाजिक विकृति

📜 "कन्या वरयेत रूपं, माता वित्तं, पिता श्रुतम्।
बान्धवा: कुलमिच्छन्ति, मिष्टान्नमितरे जना:॥"

❗ आधुनिक यथार्थ:

  • कन्या वर का रूप देखती है – भावनाओं का बाह्य जाल
  • माता धन देखती है – सुरक्षा की झूठी गारंटी
  • पिता शिक्षा देखता है – सामाजिक स्थिति का बैरोमीटर
  • बंधु-बांधव कुल देखते हैं – परिवार की प्रतिष्ठा
  • जनसाधारण भोजन – दिखावा, प्रदर्शन और भौकाल

🔸 यहाँ गुण गौण और दिखावा प्रधान हो जाता है।


🔹 3. मनोरंजन माध्यमों द्वारा मानसिक अनुकूलन (Psychological Conditioning)

🎬 “शाहरुख युग” और 'साइको इज़ रोमांटिक' का भ्रम:

क्या आपने गौर किया कि 1990 के बाद हिन्दी सिनेमा में प्रेमी सभ्य, मर्यादित और वैदिक संस्कारों वाला नहीं रहा?
वह बन गया – उन्मत्त, हिंसक, पीछा करने वाला, धमकाने वाला, मर्दवादी और पजेसिव


कुछ केस स्टडीज़:

  1. ‘डर’ (1993):

    • भारतीय नौसेना अधिकारी (पति) की हत्या कर प्रेमिका को पाने की कोशिश करने वाला 'साइको' हीरो।
    • दर्शक उसे हीरो मानते हैं। प्रेम की परिभाषा बदल जाती है
  2. ‘अंजाम’ (1994):

    • एकतरफा प्रेमी कई हत्याएँ करता है। फिर भी 'रोमांटिक'।
    • Stockholm Syndrome को रोमांस बना दिया गया।
  3. ‘बाजीगर’ (1993):

    • बदला लेने के लिए बहनों को प्रेमजाल में फँसाना, हत्या करना और झूठी शादी रचाना – फिर भी ‘नायक’।

🎯 गहरी कंडीशनिंग:

  • पॉज़ेसिवनेस = प्यार
  • पीछा करना = समर्पण
  • क्रोध = पैशन
  • हिंसा = गहराई
  • जबरदस्ती = हक़

📌 यह मनोरंजन नहीं, एक सामाजिक कुप्रवृत्ति की प्रतिष्ठा है।


🔹 4. मनोवैज्ञानिक और सामाजिक परिणाम:

👧 बालिकाओं के भीतर बैठी भ्रम की छवि:

  • स्कूल-कॉलेज की छात्राएँ अब ‘गुस्सैल’, ‘डॉमिनेटिंग’, ‘रफ-टफ’ लड़कों को आकर्षक मानने लगी हैं।
  • 8वीं-10वीं की छात्राओं के बीच बातचीत में भी सेक्सुअल कल्पनाएँ और आक्रामक ‘प्यार’ के आदर्श देखे जा सकते हैं।

😱 झारखंड की अंकिता जैसी घटनाएँ:

  • एकतरफा प्यार में जलाकर हत्या।
  • पीछा, धमकी, सोशल मीडिया स्टॉकिंग – और पुलिस की गिरफ्त में हँसता हुआ 'शाहरुख'।

🔹 5. माता-पिता के कर्तव्य: एक संस्कारशील दृष्टिकोण

🧑‍🏫 बेटों को सिखाएँ:

  • स्त्री स्वाभिमानी प्राणी है, वस्तु नहीं।
  • ‘ना’ का अर्थ ‘ना’ ही होता है।
  • प्रेम में अधिकार नहीं, सम्मान होता है।

👩‍🏫 बेटियों से संवाद करें:

  • दिखावे वाले, क्रोधी, पीछा करने वाले लड़के ‘हीरो’ नहीं होते।
  • उनकी अस्थायी पजेसिवनेस कभी स्थायी सुरक्षा नहीं बन सकती।

🤝 दोनों को सिखाएँ:

  • कच्ची उम्र का आकर्षण 'प्यार' नहीं, हार्मोनल प्रतिक्रिया है।
  • परिपक्वता से निर्णय लेना ही भविष्य का सुखद आधार है।

🔹 6. वैकल्पिक समाधान: क्या किया जाए?

  1. फिल्मों में सेंसर नहीं, चेतना चाहिए।
  2. शिक्षा में 'मूल्य आधारित यौन शिक्षा' अनिवार्य की जाए।
  3. माता-पिता को ‘ट्रेंडी’ बनने की बजाय ‘मार्गदर्शक’ बनना चाहिए।
  4. शिक्षकों, समाजशास्त्रियों और धार्मिक गुरुओं को संयुक्त विमर्श आरंभ करना चाहिए।

🧾 निष्कर्ष:

यदि हम अपनी बेटियों को फिल्मों के ‘राहुल’, ‘विक्की’ और ‘कबीर सिंह’ के हवाले करना चाहते हैं, तो हमें अपने संस्कारों, शास्त्रों और सामाजिक चेतना का श्राद्ध करना होगा।

विवाह केवल एक सामाजिक पर्व नहीं, आगामी पीढ़ियों की आत्मा का निर्माण है।

अब समय आ गया है कि हम दिखावे की शादी नहीं, संस्कारों का समागम करें।

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